समकालीन कविता

 

गुंजन उपाध्याय पाठक

 

 अय्यारी

  

रात की छाती पर
उग आते हैं दो पैने पंजे
और दीवारों की जीभ पर
रखे कुछ शब्द

 

वक्त की पगडंडी पर
साधते हुए रखती हूं पांव कि
जले न समय की आंच

 

सिर्फ़ शामों की लुकछिपी ही नहीं
दुपहरियो में भी उलझी रहती है स्मृतियों की डार

 

एक फर्लांग आगे लांघते हुए
वक्त की पांव में मोच
का डर सताता है

 

एक दर्द रूठा हुआ सा
चांद आसमां से लापता
बादलों की मनमानियां
सब महसूस करती हूं

 

कोई रपट नहीं क्योंकि
कहीं है ही नहीं किसी के उंगलियों के निशान

 

मौत फितूरी है
जो जाग में साथ है
और नींद में हैं सारे ख़्वाब
एक दरकन है ख्वाबों की बांहों में

 

दिन भर दांतो से कुचले हुए
होठों से रिसती खून की हदक

 

कटारो से नही
इस वक्त,
मुहब्बत की अय्यारी से
उलझी रहती हैं सांसे …

 

राम राज्य

 

भरी दुपहरिया
दरवाज़े पर दस्तक होगी
पूछा जायेगा नाम और पता
कुछ देर बाद
सजायाफ्ता होंगे आप

 

या फिर
भरे बाजार में अचानक
जब आप अकेले होंगे
सन्न से कोई चाकू या तलवार आर-पार होगी देह के

या फिर
आग लील जायेगी
घर दुकान सम्पत्ति और आपकी
अधपकी देह

 

मरना तय है
क्योंकि राम राज्य है
और फिर हिंदू है तो बच रहेंगे यह उम्मीद भी कम है

 

फिर गढ़ा जायेगा अलजेबरा
दलित, मुस्लिम या सवर्ण का
औरत है तो हर सूरत-ए-हाल में
होगा दुराचार

 

विभिन्न तरीकों से संपन्न होगी, आपकी इह लीला समझाते हुए कि

 

धोबी का कुत्ता
न घर का न घाट का

 

 गुंजन उपाध्याय पाठक ने मगध विश्वविद्यालय, पटना (बिहार) से पीएचडी (इलेक्ट्रॉनिक्स) किया है। 

के दो कविता संग्रह “अधखुली आंखो के ख़्वाब” और “दो तिहाई चांद” (बोधि प्रकाशन) से प्रकाशित हो चुके हैं।

 

वन्दना गुप्ता

 

आकृतियां साक्षी  हैं

 

बार-बारचढ़ाया अपना
वजूद चाक पर
मिट्टी बन

 

आकृतियां साक्षी हैं
मन की सत्ता
टटोलीं बार-बार

 

विचार-मंथन से
खुद को परखा
विगत आगत
समय में
खुद पर किया
शोध

 

ताकि जान सकूं
मैं क्या हूं

 

शास्त्र खोलें
उपनिषद, वेदों की
ऋचाओं में
टटोला खुद का
वजूद

 

इतिहास, भूगोल
छाने

 

ताकि जान सकूं
मैं क्या हूं

 

बार-बार
बदला अपना
स्वरूप

 

दैवी से लेकर
शिला तक
सफर तय किया मैनें

 

वर्तमान में निखारी
अपने वजूद की
परिसीमाएं

 

युग बदले
सत्ताएं बदली
मानसिकता के
ऊपरी सिरे पर
बनाई अपनी पहचान

 

बस नही बदल
सकी
विकृत मानसिकता के
शोहदों को।

 

क़फ़स

 

 अगर तुम एक स्त्री हो
और बनाती हो
समाज में ढले सांचों से इतर
कोई अपनी नयी पहचान

 

तो वे गढ़ देंगे तुम्हारे लिए
न जाने कितने चरित्रहीनता के प्रतिमान
तुम्हारे फैसले, हर कदम पर
होगी गिद्ध निगरानी
झपट लिया जाएगा
तुम्हारी सोच के बिन्दुओं को

 

तुम्हारी आकांक्षाओं, इरादों
अरमानों का किया जाएगा उपहास
तंज की कसौटी पर
उपहास की नयी चुनौतियों से परे

 

जब तुम बढ़ाओगी
अपने कदम आगे
तो निगाहों के आखेटक
अपनी तीखी दृष्टि से
करेंगे वार

 

और चुन देंगे तुम्हारे लिए
सलाखों का क़फ़स।

 

खोजा निर्वाण घर की चौखट पर

 

भले ही उसने
साधना में नही
गलायी देह

 

तपस्या भी नहीं की

 

पर झेला
वर्षों का वैराग्य
देह पर अपनी

वक्त की आंधी
झेली

शीत, ताप, तूफां
अग्नि में जलाया
खुद को
पर हार नही मानी

 

वह कोई बौद्ध भिक्षुणी
नही,
एक स्त्री है

 

जिसने संजोई
न जाने कितनी
बुद्ध आकृतियां
अन्तर्मन में

 

भटकी नही
उलझाव के
जंगलों में

 

घर की चौखट में ही
खोजा
निर्वाण का धरातल।

 

छलांग मारती स्त्रियां

 

बन्दूक की नाल के सामने
खड़ी युवती की
अन्तिम इच्छा क्या हो
सकती है?

 

जबकि लड़ने होते हैं उसे
कई द्वंद्व युद्ध स्मृतियों से अपनी
न जाने किस सुख के संधान में
चल रही थी वह तमाम उम्र
रिश्तों की धुरी पर

 

पर वक्त का पहिया
अब बदल रहा है धीरे-धीरे
युगों के बाद
चाहरदिवारी से
छलांग मारती स्त्रियां
अब नही होती है
मानसिक यातना का शिकार

 

न ही करती है
आत्मा हत्या किसी
नदी में कूद कर
वरन् अपने शब्दों के इस्पात से
तोड़ देती हैं जंग लगे
सामाजिकता के प्रतिमानों को

 

घिसी मान्यताओं के
फफूंद को साफ कर
तराशे हुए शब्दों की आग से
लिखती हैं स्त्रियां अब
नये पृष्ठ सामाजिक, आर्थिक
बराबरी के।

 

चिड़िया की पीठ पर

 

चिड़िया की पीठ पर
खुदे है न जाने कितने
संस्मरण
स्मृतियों के

 

चोंच पर गुदे हैं
रक्त के शिलालेख

 

प्रथम उड़ान से
लेकर
आसमान छूने
तक के।

 

वन्दना गुप्ता

  

वर्तमान में डॉ राजेन्द्र प्रसाद गर्ल्स हाई स्कूल (उ. मा.) सिलीगुड़ी में अध्यापन कर रही कवयित्री वन्दना गुप्ता के अब तक “अस्मिता की तलाश”(2017) और “मयूरपंख ख़्वाहिशों के”(2019) प्रकाशित हो चुके हैं। वन्दना गुप्ता जी की कविताएँ, समीक्षाएं, कहानियां एवं आलेख हिन्दी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। मैथिलीशरण गुप्त संस्थान (लखनऊ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सयुंक्त तत्वावधान में दिल्ली में आयोजित समारोह में मैथिली शरण गुप्त स्मृति सम्मान (2019) से आपको सम्मानित किया गया है।

 

संजीव कौशल

  

नदियां

 

 यमुना लबालब बह रही है
मानसून के बादल आसमान से उतर
पेड़ों पर झूल रहे हैं
पहाड़ो की बूटियां
उसके चेहरे को निखार रही हैं

 

हिमालय की पहाड़ियों से फिसल
लहलहाते खेतों में
उतर आई है यमुना
और धान की गाढ़ी हरी हंसी हंस रही है

 

हरियाणा की मिट्टी ने
दिल्ली को थोड़ा हरियाणा बना दिया है

और दिल्ली ने आगरा को थोड़ा दिल्ली
ताज की छवियां अपने आंचल में समेटे
एक दिन गंगा हो जाएगी यमुना
फिर भी बहते रहेंगे
गांव और शहर
झिलमिलाती लहरों पे मुस्कुराते रहेंगे असंख्य चेहरे

 

नदियां जगहों को और और जगहों की रंगत से भर देती हैं
निर्बल खेतों को पोषक तत्वों से साध लेती हैं
लोग उन्हें यूं ही नहीं पूजते
वे माएं हैं
भूखे पेटों को निवाले सहेजती रहती हैं

 

बंगाल तक पहुंचते-पहुंचते
एक बड़ा इलाका नदी में उतर आएगा
देशभर की मिट्टी दूर तक फैल जाएगी
उसकी खुशबू उसका ताप
कण-कण में समा जाएगा

 

नदियों में पानी ही नहीं
देश भी बहता है
बोलियां बहती हैं
गीत बहते हैं
खुशियां बहती हैं
संगीत बहते हैं
नदियां पृथ्वी की बांसुरियां होती हैं।

 

आख़िरी इच्छा

  

गांव ले जाना
शहर में मत जलाना
खेत की मेंड पर रख देना
मेरी चिता
जहां कलेवा करते थे
तुम्हारे पिता

 

नहीं, गंगा में नहीं
राख कुलावे में बुरक देना
मुझे सरसों भाती है
मुझे खेत में सुला देना।

 

शिकार

  

जंगल में जब कोई मरता है
उसे बचाने कोई नहीं आता
चिड़ियां गिलहरियां बंदर ज़रूर चिचियाते हैं
हालांकि उससे कुछ नहीं होता
शिकारी दौड़ा-दौड़ा कर शिकार को मारते हैं

 

कितने ही जानवर
शिकारियों के पेट भरने का इंतज़ार करते हैं
उनके जाते ही
शिकार पर टूट पड़ते हैं
और हड्डियां तक चाट जाते हैं

 

मनुष्यों में अब चिड़ियां और गिलहरियां भी नहीं रहीं
यहां कोई भी कहीं भी शिकार हो सकता है।

 

चांदनी

 

 रात है
सब तरफ खामोशी है
बच्चे पार्क से जा चुके हैं
झूलों पर बच्चों की जगह
चांदनी झूल रही है

 

कल जब बच्चे आएंगे
उनके पैरों में
झूले चांदनी पहना देंगे।

 

अर्थ

 

 कविताएं पढ़नी चाहिए
पुरानी, बहुत पुरानी कविताएं भी
खुश्बू से भरी होती हैं
बेटे से मैंने कहा

 

पुरानी तो पुरानी हो जाती होंगी
उसने पूछा

 

नहीं, कविताएं पुरानी नहीं होतीं
उनके अर्थ
शब्द नहीं परिस्थितियां गढ़ती हैं
नई परिस्थितियां
शब्दों में नए अर्थ उगा लेती हैं
इस तरह
कविताओं की क्यारियां हमेशा हरी रहती हैं।

 

साथ

  

रास्ते साथ से छोटे हो जाते हैं
और हंसी से हल्के

हमें हंसना नहीं आता
साथ चलना नहीं आता
हमें रास्तों ने मारा है

 

बरसों बीत गए साथ चले चले
थोड़ा बचा है अब रास्ता
कुछ देर ही सही
चलो साथ चलें

 

मैं खाली हाथ नहीं जाना चाहता
तुम्हारी हंसी साथ ले जाना चाहता हूं
इस धरती से।

 

खेल

  

बचपन में मुझे गुलेल का शौक़ था
मैं जेब में कंकड़ भरे रहता
और निशाने की प्रैक्टिस किया करता

 

गुलेल से
पत्थर दस हाथों की ताक़त लेकर निकलता है
और निशाने को फोड़ डालता है

 

एक दिन मुंडेर पर एक चिड़िया गा रही थी
दोस्त ने कहा
निशाना लगा
मुझे मालूम था
मेरा निशाना अच्छा था
फिर भी मैंने कंकड़ रखा और रबड़ को तान दिया

 

कंकड़ उड़ा और चिड़िया के कंठ में समा गया
गीत धम्म सा नीचे गिर गया

 

वह मज़े के लिए की गई हत्या थी
जिसकी मुझे कोई सज़ा नहीं मिली।

 

संजीव कौशल, प्रोफेसर, अंग्रेजी विभाग, इंदिरा गांधी इंस्टीट्युट ऑफ फिज़िकल एजूकेशन एण्ड स्पोर्ट्स साइंसेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
अंग्रेजी साहित्य में पी.एच.डी. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से 2007 में। 1998 से लगातार कविता लेखन। ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ शीर्षक से पहला कविता संग्रह साहित्य अकादमी दिल्ली से प्रकाशित। जर्मन भाषा में कविता के पूरे विकास क्रम को दिखाता कविताओं का एक महत्वपूर्ण अनुवाद हिंदी में ‘ख्व़ाहिश है नामुमकिन की’ शीर्षक से फोनीम पब्लिशर्स, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित। ऑस्ट्रियाई कविताओं का अनुवाद ‘नवंबर की धूप’ वाणी प्रकाशन से 2021 में।
देश की महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, लेख तथा समीक्षाएं प्रकाशित। विश्व साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अनुवाद ‘उम्मीद’ में प्रकाशित। बीसवीं शताब्दी के प्रमुख पोलिश कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुदित संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। हिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में एक वर्ष अध्यापन के उपरांत 2003 से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापनरत।
वर्ष 2017 में कविता के लिए दिए जाने वाला प्रतिष्ठित मलखान सिंह सिसोदिया पुरस्कार से सम्मानित।

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