समकालीन कविता

राजेन्द्र नागदेव

 

आभार

 

अभी-अभी रोशनदान से आया
धूप का मुलायम टुकड़ा
मैं उनींदे चेहरे पर मलता हूं
और अपनी सुरक्षित चारदिवारी से
बाहर निकलता हूं
रात भर जगीं खंभों पर बैठी बत्तियाँ सो चुकीं हैं
अब उनके विश्राम का समयारंभ है
उन्होंने अपलक जाग कर चौकीदारी की
सुनसान पगडंडियों, गलियों
सड़कों और निद्रित इमारतों की
जब बस्ती का चौकीदार
उनींदा टहल रहा था
या
लुटेरों संग गली के किसी अंधेरे कोने में
तम्बाकू मल रहा था,
बेज़ुबान बत्तियाँ हर रात देखतीं हैं
चौकीदार, लुटेरों के मध्य
भाईबंदी के अद्भुत दृश्य
मैं उन्हें विश्रांति काल के लिए
विदा देने निकला हूं
यद्यपि, बस्ती में
अपराध फिर भी होते हैं
बत्तियों की अविश्रांत अनींदी आंखें
भय संचार अवश्य करतीं हैं
इस ग्रह के एक त्रिकोणीय भूखण्ड की
अंधेरी गलियों में चौकीदार

चोर, लुटेरों, डकैतों के साथ
साझे प्याले से निर्द्वन्द्व पी रहे हैं,
खंभों की बत्तियों-सी
कुछ विचलित आत्माएं
कहीं-कहीं अंधेरों में आवाज़ उठातीं
पत्थरों की बारिश में
निरंतर जल रहीं हैं,
उन आवाज़ों को
प्रजातंत्र के अदने से नागरिक का
साभार नमन!

 

निवेदन

 

हे न्याय की देवी!
एक युग हो गया
आँखों पर पट्टी बाँधे,
इससे पहले
कि स्थायी अंधत्व आ जाए
पट्टी खोल दो देवी!
आँखों से देखो क्या हो रहा है?
कानों से सुना सब सच नहीं होता
तुम्हारे कानों तक आने वाले शब्द
अक्सर झूठ के सांचे में ढल कर निकले होते हैं
कर्ण-गुहाओं के द्वार बंद कर दो देवी!
एक बार पलकें उठा कर देखो
तुम्हारे न्याय का साम्राज्य
किस तरह छिन्न-भिन्न हो रहा है,
झूठी गवाही पर
निर्दोष जीवन के बीस वर्ष
जेल की कोठरी में जल कर
खाक हो जाते हैं
और बीस बच्चों का हत्यारा
सड़क पर स्वच्छंद विचरता है,
तुम नहीं जानतीं देवी!
तुम्हारी तुला के एक पलड़े पर न्याय
दूसरे पर कुबेर का खजाना होता है
पहला हवा में लटकता है
दूसरा धरती छूता है,
इसके पहले कि तुम त्यक्त विधवा-सी
बनारस की गलियों में लड़खड़ाती फिरो
अपना साम्राज्य सहेजो देवी!

अपना साम्राज्य सहेजो।

 

फिर एक युद्ध

 

फिर एक युद्ध
अभी-अभी तक मैदान में खेल रहे बच्चे
क्षत-विक्षत दूर-दूर बिखरे पड़े हैं
पता नहीं, किसके सिर पर किसका पाँव
किसकी छाती पर किसका हाथ है
अभी-अभी एक बाजार था
लोग बोल रहे थे
कर रहे थे मोलतोल
अब आग, धुआं और निस्तब्धता है
अभी-अभी यहां
आवाजों से जीवंत इमारत थी
अब एक मरा हुआ खण्डहर
ईंटों-पत्थरों का मलबा
और सन्नाटा
आकाश में मिसाइलें
जमीन पर टैंक
हाथों में बंदूकें
सड़कों पर तार-तार मनुष्यता
जिन कंधों पर
दुनिया बचाने का भार है
मंत्रणा-कक्षों में
अपनी लाभ-हानि का गुणा-भाग कर रहे हैं
सही को सही ग़लत को ग़लत कहना
उनका सरोकार नहीं

कैसा निर्लज्ज समय है!
युद्धभूमि में चिथड़े-चिथड़े हो रहे हैं
स्त्री-पुरुष, बच्चे
और मंत्रणा-कक्षों में चिथड़े-चिथड़े हो रही है नैतिकता।

 

बहुत देर कर दी

 

वीरान बंजर रेगिस्तान
– – – एक गिद्ध – – –
– – – रह रह कर ज़रा हिलती डुलती
सूडान की एक छोटी सी
अश्वेत मरणासन्न काया
– – – चिलचिलाती धूप – – –
रेत में जूतों के ताज़े गढ्ढे – – –
कोई अभी-अभी गुज़रा है यहाँ से,
बहुत व्यस्त होगा
मात्र इतना समय था उसके पास
कि गिद्ध, बच्चे
और हृदय को क्षत-विक्षत कर देने वाले
भयानक क्षणों को
छायाचित्र में समेट कर निकल जाए,
चाहता तो बचा सकता था उस गुडी-मुडी बच्चे को
नहीं चाहा,
मनुष्यता, पता नहीं मर चुकी थी
कि सुप्त थी उसके अंदर
सारा दारुण दृश्य संकुचित होकर
कला का नमूना भर रह गया
वह उसे संपूर्ण भूमंडल पर छाप देने की त्वरा में निकल गया
अगली सुबह
वह रेगिस्तान, वह गिद्ध, वह बच्चा
सबकुछ समस्त महाद्वीपों की हवा के
अणु-अणु में फैल गया
मरुस्थल में शेष रह गए होंगे
लाल से कत्थई होते र

क्त के कुछ धब्बे,
छोटी-छोटी हड्डियाँ

और एक नरमुंड
जिन पर रेत बिछा कर
हवा ने बना दी होगी
एक बच्चे की
और हाँ, मृत मनुष्यता की समाधि
एक दिन अकस्मात
पश्चाताप की ज्वाला में जल कर
भस्म हो गया वह आदमी
नमन में झुकीं
दुनिया भर की आँखें
सजल हो गईं
देर से पता चला
मनुष्यता थी उसके अंदर
बहुत सारी मनुष्यता
हृदय की किसी कंदरा में सो रही,
बहुत देर कर दी
झकझोर कर जगाने में
निरर्थक थी विलंब से जागी मनुष्यता
समय पर जाग जाती
दो जीवों का धरा से दुखद प्रयाण रुक गया होता।

राजेंद्र नागदेव,-कवि चित्रकार वास्तुकार

काव्यसंग्रह- ‘सदी के इन अंतिम दिनों में’ , ‘एक पत्ता थरथराता रहा’, ‘गूँगी घंटियाँ’, ‘चक्रवात सा घूमता है शून्य’, ‘अंधी यात्राएँ’ , ‘पत्थर में बंद आदमी’, ‘सूर्य गिरा है अभी-अभी नीचे’, ‘आवाजें अब नहीं आतीं’, ‘उस रात चाँद खंडहर में मिला’, ‘सुरंग में लड़की’, ‘चुनी हुईं कविताएँ’, ‘धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर’, ‘लौट लौट कर आते हैं परिंदे’ यात्रावृत्त ‘धुंध और आकार’ अंग्रेजी काव्यसंग्रह ‘सायलेंटली शी बर्न्स एंड अदर
पोएम्स’, ‘द डुएट’. अनुवाद- कविताओं का जापानी, बांग्ला, उड़िया, मराठी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में अनुवाद. सम्मान / पुरस्कार ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार’, हिंदी अकादमी, दिल्ली का ‘साहित्यिक कृति सम्मान’, ‘अ. भा. अम्बिकाप्रसाद दिव्य रजत अलंकरण’, ‘स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान’, भारत- एशियाई साहित्य अकादमी, दिल्ली का ‘साहित्य सृजन सम्मान’, ‘सैयद अमीरअली मीर पुरस्कार’ आदि .
अन्य – जलगाँव विश्वविद्यालय द्वारा ‘राजेंद्र नागदेव के काव्य में अभिव्यक्त समकालीन भावबोध’ शोध ग्रंथ पर पी एच डी प्रदान की गई.

 

 

राजीव तिवारी

 

जल – हत्या

 

सपने में अभी भी
आ जाता है कभी कभी
और बांकि बची
रात की नींद पर
भारी पड़ जाता है
वह कुआं
जिसे घर के बंटवारे के बाद
रहने की आफियत के लिए
मकान का विस्तार करते हुए
मैंने पुर दिय

 

जल सतह पर उभरता है
एक डरावना चेहरा
उस चेहरे से भी डरावनी हैं
उसकी आंखें
जो मेरी तरफ
किसी आग के गोले/बगूले की तरह
लपकती हुई आती है
और मुझे लील लेती है

 

जल से अग्नि का उभरना
आक्रोश का पारावार है
और मेरे अपराध की गंभीरता की व्याख्या

 

नींद एक दम से खुल जाती है
सांसें तेज चलने लगती हैं
मन भय कुंठा और ग्लानि के
स्याह गाढ़े द्रव में डूबने लगता है

 

बहुत से लोग
अचानक से दिखने लगते हैं
जो किसी मरुधर से गुजरकर आए हैं
जिनकी आंखें मुझे
किसी अपराधी की तरह
देख रही हैं

 

असंख्य प्यासों
और अपरिमित संभावनाओं की
हत्या हुई है मुझसे
एक जीवित कुएं को पुरकर

 

किसी युद्ध से
जितनी होती है
उससे
कम नहीं हुई है क्षति
प्रकृति की
मानवता की ।

 

चश्मा 

 

सस्ती और अच्छी मछलियां
उसे आफताब भाई की दुकान से मिल जाती हैं
उनका व्यवहार उसके साथ बड़ा दोस्ताना है

करीम टेलर की जोड़ में
कोई दूसरा टेलर नहीं
शहर भर में
उसकी नज़र में
कॉलेज के दिनों से ही
वह बिला नागा
उन्हीं के सिले कपड़े पहनता आया है
कोई 25 -30 साल का वक्त
गुजरने को हो आया

नफीस आलम
उसके स्कूल में
गणित के शिक्षक थे
गणित के अव्वल दर्जे के
जानकार तो थे ही
इंसान भी बड़े
जिंदादिल खुशमिजाज
और मिलनसार थे

 

होमियोपैथ
डॉक्टर हाफिज
जो उसके पड़ोस में ही रहते हैं
की सटीक दवाओं और इलाज़ से
उसे उसकी पत्नी और उसके बच्चों तक को
प्रायः एलोपैथ की जरूरत
ही नहीं पड़ती

 

उसी के स्टेशन में
काम करनेवाले स्टेशन मास्टर
मोहम्मद बुलंद अंसारी
रोज़ शाम
बाबा बैद्यनाथ के मंदिर में
अपनी हाजरी लगाने पहुँचते हैं
मस्जिद में वक्त से नमाज भी अता करते हैं

 

गुड्डू मियां की शोहरत
ऐसी रही है
कि शहर के ऐसे खराब
मोबाईल हैंड सेट
जो बैजू गली तक में
किसी भी रिपेयरिंग शॉप में
ठीक नहीं हो पाते
उनका एक ही ठिकाना बचता है
प्रिंस मोबाईल रिपेयरिंग शॉप

 

फरीद से उसने
अपनी कितनी किताबों पर
जिल्द चढ़वाये होंगे
उसे ठीक ठीक खुद भी याद नहीं

 

बावजूद इन सामाजिक जुड़ावों
और लगावों के
रोजमर्रा की जिंदगी की
छोटी बड़ी जरूरतों की
निर्भरताओं के
मुसलमानों को वह हमेशा
नफ़रत और संदेह की नज़र से देखता रहा है

 

उसे लगता है मुसलमान
किसी मिशन के तहत
इस देश की आबादी बढ़ाने में
जुटे हुए हैं
उनका पहला और आखिरी मक़सद
इस देश और हिंदुओं की बर्बादी है
बढ़ते बढ़ते वे एक दिन इतने बढ़ जायेंगे
कि हिंदुओं से ज्यादा हो जायेंगे
तब इस देश में वे
सरिया कानून अमल में लायेंगे

 

मुसलमान अच्छे होते हैं
अव्वल तो वह यह मानता ही नहीं
कोई जो बताए जाते हैं
उनकी अच्छाई के पीछे भी
उसे कोई साजिश
कोई छिपी हुई गलत मंशा ही
दिखती है

 

मुसलमानों को वह
गोकश बुतशिकन
दहशतगर्द
से अलग करके देख ही नहीं पाता
किसी भी मुसलमान में
वह नादिरशाह और औरंगजेब देख ही लेता है
उसे दारा शिकोह नहीं दिखता

 

चिढ़ है उसे
एक खास तरह की टोपी से
एक खास रंग से
एक खास तरह की दाढ़ी से
एक खास दिशा से
एक खास भाषा से
एक खास तरह के लिबास से
एक खास दिन से

 

जो परिचय के मुसलमान नहीं हैं
उनके साथ तल्ख ढंग से पेश आता है
उन्हें इरादतन आहत करने की
उनके मन को
चोट पहुंचाने की
कोशिश करता है

 

फसादियों की जमात में तो नहीं रहता मगर
हिंदुओं के धार्मिक जुलूशों और जलशों का हिस्सा होकर
जब मुसलमानों के इलाके से गुजरता है
या मुसलमानों के बारे में बात करता है
आक्रामक और हिंसक हो जाता है

 

राम मंदिर, धारा 370
तीन तलाक़
जैसी उपलब्धियों के आगे
वह सरकार की
बांकि तमाम विफलताओं को
नजरंदाज करता है

 

उम्मीद है उसे
कि जल्द ही
CAA, NRC और
जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ा कानून भी
प्रभाव में आएगा
उसे पक्का विश्वास है
इसी रास्ते चलकर
देश में राम राज आएगा

 

इसी में उसे
सुख और आश्वस्ति है
चश्मा बदलने
या खोलने के लिए
कतई तैयार नहीं है वह ।

 

पांव और जूते 

 

जूते पांव के साथ चलते हैं
पांव को लेकर नहीं
पांव जूतों को लेकर चलते हैं

 

पांव जब चाहता है
पहन लेता है
जब चाहता है
छोड़ देता है जूतों को
इस संबंध में
चलती सिर्फ पांव की है
जूते सिर्फ चलते हैं

 

पांव को यह छूट है
कि वह जूतों को बदल ले
जूते अपनी मर्जी से
पांव नहीं चुन पाते मगर
जबकि दोनों की प्रासंगिकता
एक दूसरे से जुड़कर ही है

 

जूते तबतक पांव का साथ देते हैं
जबतक वे टूट नहीं जाते
या पांव के द्वारा त्याग नहीं दिए जाते

 

कैसी भी चुभन कैसी भी ठोकर हो
जूते पांव से पहले खुद को आहत करते हैं
पांव को बचाने का
वे भरसक प्रयास करते हैं
पांव जूतों के प्रति
इतने संवेदनशील नहीं हो पाते

 

जूते पांव से अगर गुस्सा हों
तो पांव को काटकर
अपनी नाराजगी
जाहिर करते हैं
पर यह गुस्सा भी
बहुत देर नहीं टिकता ।

 

बीमार पिता 

 

(१)
समय से व्याधि से
लड़ते लड़ते थक चुका शरीर
धीरे धीरे अस्त हो रहा है
और डूबते मन से
देख रहे हैं सबकुछ होते हुए पिता

(२)
बीमार और कमजोर आदमी को
सबसे ज्यादा डर
अकेले पड़ने
और अंधेरे में घिरने से लगता है
मृत्यु के पर्याय की तरह
वह इस अवस्था को समझता है

उठने बैठने चलने फिरने में
कठिनाई का सामना कर रहे पिता
दिन तो जैसे तैसे गुजार लेते हैं
घर के चहलपहल से खुद को जोड़कर
पर रात घिरने पर
चाहते हैं
कोई उनके बगल वाले बिस्तर पर सोए
ताकि………….

 

(३)
पिता जबतक नौकरी में रहे
बहुत कम
गांव जाया आया करते थे

 

जब वो स्वस्थ और सक्षम थे
गृहस्थी के दायित्वों
और कार्यालय के काम के दवाब से
कम ही फुर्सत निकाल पाते थे

 

गाह बेगाह ही
किसी खास मौके पर
गांव पहुंच पाते

 

पर चाहते हैं पिता
हम दोनों भाई
गांव से जुड़ कर रहें
गांव आया जाया करें
गांव हममें आया जाया करे
गांव से इतने जुड़े हैं पिता आजतक ।

 

(४)
८५ बरस के पिता
स्वप्न में
अपनी नानी के ननिहाल तक से
घूम आते हैं

 

बाल सखाओं के साथ
खाली पांव दौड़ते हुए
गांव से १०km दूर
डुमरामा हाई स्कूल पहुंच जाते हैं

 

भागलपुर के TNB कॉलेज
जो उनके समय में TNJ कॉलेज था
उसमें अपने अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर
तौहीद सर की क्लास अटेंड कर लेते हैं

 

जितनी लंबी उम्र होती है
आदमी की
स्वप्न में उसे
उतना पीछे लौट सकने की
सुविधा होती है

(५)
आदमी जब बीमार होता है
चाहता है कोई उसके पास बैठे
उसकी बातें सुने
उसके शरीर का हाल जाने
उससे हमदर्दी जताए
बड़ों को जब अपने पास नहीं पाते
पिता बच्चों को
किसी न किसी बहाने से
अपने पास बुला लेते हैं

(६)
मन के साथ
जब शरीर नहीं चलता
आदमी तनावग्रस्त हो जाता है

चिड़चिड़ा हो जाता है
गुस्से का बहुत बड़ा कारण यह भी है
पिता इसी हाल से गुजर रहे हैं ।

 

राजीव कुमार तिवारी-कवि , लेखक
प्रोफ़ेसर कॉलोनी
बिलासी टाऊन
देवघर, झारखंड
पिन 814113
मोबाईल 9852821415
rajeevtiwary6377

 

 

अरुण अवध

 

1.अस्तित्व :एक नदी

वह मान बैठी है —

अस्तित्व ही उसकी व्याधि है,

जिससे मुक्ति के लिए

ढलानों की तलाश में बल खाती हुई

वह अपना जिस्म तोड़ती रहती है।

 

वह हर गड्ढे में उतर कर नापती है

अपने समा जाने भर की जगह।

 

वह हर उस नदी के साथ हो लेती है

जिसके पास किसी समंदर का पता है।

 

वह नहीं जानती

कि पीछे आने वाला पानी भी

दरअसल वही है।

 

वह कभी नहीं चुकेगी।

 

2.पार

तुम्हारी तरह

मैं भी इस नदी को पार करना चाहता हूँ,

लेकिन मैं इस पार से उस पार जाकर

इसे पार नहीं करूँगा,

मैं इसे

सागर से उद्गम तक जाकर पार करूँगा।

 

3.सपनें

मेरा एक पाँव

मगरमच्छ के जबड़ों में है

और दूसरा भागने की फ़िराक में है।

मेरा अघाया पेट सोंचता है-

आखिर कर क्या रहा है दिमाग?

शरीर को आत्मरक्षा के लिए सक्रिय करने की

जिम्मेदारी तो उसी की है।

दिमाग सोंचता है-

मुझसे पहले सीना है फिर पेट,कमर

और दूसरी टाँग है

अभी मेरे पास समय है

अभी मैं कुछ और सपने देख सकता हूँ ।

 

4.रोशनी

सूरज बादलों में छुप गया है।

चरागों ने अपनी रोशनी लपेट कर

दराजों में डाल दी है।

मशालें माचिस बनाने की तरकीब

किताबों में तलाश रही हैं।

ये जो पत्तों पर ओस की बूँदें हैं,

जुगनुओं ने चुपके से अपनी रोशनी छोड़ दी है।

बादलों में कभी-कभार

कौंध जाती है बिजली।

इस अंधेरी रात में

बस इतनी ही रोशनी मुहैय्या है,

तुम्हारा चेहरा देखने के लिए।

 

5.लाल बुन्दियों वाली पीली फ्रॉक

आज वह भूल जाएगी चाय में चीनी डालना

और दाल में दो बार पड़ जायेगा नमक।

मुझे देखना होगा-

बाहर जाते समय अपना छाता न भूल जाये।

आज मौसम ठीक नहीं है!

अलमारी से निकल कर एक बादल,

सुबह से उसके चश्में पर बैठा है।

पुराने कपड़ों के बीच यूँ हीं

कुछ ढूँढते हुए निकल आई थी,

अचानक एक छोटी-सी

लाल बुँदियों वाली पीली फ्राक।

 

अरुण अवध कवि , लेखक

C-143, आवास विकास

कटेहलीबाग़,

सीतापुर (उ.प्र.)

261001

मो. 9415656390,8887741290

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