मेरी बात

मेरी बात   

 

 

पानी और सोना
एक प्यास बुझाता है तो दूसरी बढ़ाता है
हम इतने अमीर है कि सोने से लदे जा रहे हैं
हम इतने गरीब है कि गले की प्यास भी नहीं बुझा पा रहे हैं

 

मुझे वियेना के म्यूजियम की याद आती है, गाइड ने एक चित्र की और इशारा किया जिसमें एक बन्दर किसी आदमी के सिर से जुए बीन रहा था। वह बताने लगी कि उन दिनों यहाँ पानी की बेहद किल्लत थी, नहाने के लिए पानी ही नहीं होता तो लोगों के सिर पे जुएं पड़ जाते थे, तो कुछ बन्दर पालने वाले लोगों के सिरों से जुए बिनवाने का काम भी करते थे। जिस लहजे में गाइड ने बात की थी, वह बड़ा मजाकिया था, इसलिए में पीछे की कथा नहीं जानती, लेकिन यह जरूर है कि इस वक्त वियेना झीलों से अटा पड़ा है, शहर के किसी कोने में जाओं , किसी ना किसी झील का अक्स दिखाई देता है। और हम, सिन्धु सरस्वती की संस्कृति वाले जन बून्द को तरस रहे हैं।

 

सबसे बड़े आश्चर्य की बात है कि इस भयंकर असमानता वाले समय में हमारे पास कोई मुद्दा ही नहीं?

न लेखन के लिए, ना ही कर्तव्य के लिए।

कितना लिप्त हो गए हैं हम लोग अपने आप में?

 

२००५ से कृत्या हर महिने कुछ कविताओं को, कुछ विचारों और मुद्दों को लेकर आती रही है, सच कोई तीर नहीं मार रही, कविता से आन्दोलन नहीं होते, लेकिन आन्दोलनों को शब्द तो मिल जाते हैं।

 

हम इस अकविता के समय में बेहद लिख रहे हैं, काफी कुछ सोने जैसा है, जो चमकदार है लेकिन समय की अंधेरी तिजोरी में बन्द हो जाने वाला लेकिन बहुत कम ऐसा है जो पानी सा बहुमूल्य है, बुल्लै शाह की आवाज सा पानीदार।

 

फिर भी हम लिख रहे हैं, इतना काफी नहीं?
नहीं लिख पा रहे हैं, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं!

 

शुभकामना सहित

 

रति सक्सेना

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