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राघवन अत्तोळी मलयालम भाषा के दलित कवि हैं, वे काष्ठ मूर्तिकार भी हैं। भूमि पुत्र होने के कारण उनकी कविता यथार्थ का अनुभव है। मां नामक कविता विशेष रूप से प्रसिद्ध रही है। इस कविता का अनुवाद रति सक्सेना ने किया है।
राघवन अत्तोऴी
कण्डति
गली में कूड़े के ढेर पर
गन्दे लूगड़ों में
जलती भूख से
पसीना पसीना हुई वह,
रात के ब्यालू को
कुछ चीजें समेटे
बुझे दिये वाली कोठरी में
अकेली बैठी वह,
दिन की सफेदी खींचते
कालिख छोड़ते
सूरज को सरापती
दिशाओं के चेहरे करिया जाने तक
ठहराई मजूरी के बदले
घास खोदती वह ।
पत्थर कूटकूट कर
हाथ बटाती वह
बीज बिखेर
आंसुओं से सींचती वह,
जुए से जुते बैलों से
खिंची गाड़ियां
हाँफते सिसकते जनम
आवारा भटकते बच्चे
मरे गोत्र
कुचले लक्ष्य ;
खिले लहराते खेतों में
उगे नाज से
भरता किसी और का भण्डार ,
अधभरे पेट पर
कसी लंगोटी बाँधे
कमर झुकी बुढ़िया सी
झुकी रहती वह
खेत के किनारे
भूख से बिलबिलाते
बच्चे के चेहरे को धोती
आंसू बहाती वह ।
आधे निमिष को
स्तनपान कर
आंसुओं को
पसीने में बदलती वह,
निषेध सूक्तों को
लगातार उलीच
कविता रच सजाती वह,
नारियल के रेशों सी
बिखरी बिखरी ज़िन्दगी
कुचले खोपरे सी
फैली जीर्णताएँ ।
भीड़ भड़क्कर में
मंडराती भीख मांगती
भीख में मिले नाज सी
कुचली वह
प्यास से जब गला तड़कता
तो छुआछात की राक्षस लीला में
फटे फूटे कण्ठ वाली वह
वही है मेंरी जन्मदात्री
उसे चाहिये रोशनी
जो बुझ गई
और गरमागरम तेल,
इसे चाहिए नहीं कपड़े
जो पाप में डूबे हों
इसे तो चाहिए बस
मुट्ठी भर रेत
जिसमें पाप के दाग न हों
ज़रा सा धान
जिसमें खून के दाग न हो,
यही है मेरी
जन्मदात्री माँ । ।……..