समकालीन कविता
एलिसा बैगिनि Elisa biagini
एलिसा बैगिनि Elisa biagini इतालवी मूल की कवि हैं, जो अंग्रेजी और इतालवी दोनों भाषाओं में कविता लिखती है, उनकी कविताओं में जीवन की सहज क्रियाएं अभूतपूर्व रूप लेती दिखाई देती हैं।
इन कविताओं का अनुवाद रति सक्सेना ने किया है।
मैं
पत्थर, तने,
हड्डी, एक पत्ती
की तरह
चक्कर खाती हूं
मेरी मुट्ठी बन्द
हो जाती है
फिर कभी ना खुलने के लिए
*
मेरी रोटी
सख्त हो गई है
पत्थर की तरह,
आंखों में सुलगती लकड़ियां
लालिमा में
प्रतिबिम्ब
हो रही हैं
*
एप्रोन के भीतर
रोटी और पत्थर
मेरी कलाई ने
धरती को सूंघा
घंटी की तरह घनघनाते हुए
बर्तनों ने मुझे पुकारा
*
मैंने डोरी से नापा
घर से घर तक
देह से देह तक
पानी से बतियाते हुए
पत्थर को निहारते हुए
(मेरे मुंह की गोलाई
चौराहे की तरह है)
*
भूखी हवा
टहनियों को चूसती है
हड्डी की तरह, फिर
थूक देती है, यहां
आदमी के कदम
कुल्हाड़ी की तरह
*
भूखे चिकने भेड़िये की तरह
मैं खिसक जाती हूँ
लकड़ियों के बीच में
खोजती हूं पत्तियों के
फिंगर बेल्स को
अनुवाद-रति सक्सेना
हेलेन दावर की कविता
(HELEN DWYER)
हेलन दावर आइरिश कवि हैं। उनकी प्रस्तुत कविताएँ आत्मिक वेदना और सम्बन्धों के सत्यों को दर्शाती हैं।
तुम्हारे दफ़नाए जाने के बाद
अगली सुबह जब मैं उठी
पहली चीज जो मैने देखी
वे मेरे जूते थे
बरसात ने कब्र खोदने वालों का काम
आसान कर दिया था, तुम किसी को
परेशान करना ही कहां चाहते हो
शायद मैं भी उन्हे जल्द माफ कर दूं
काम पाने के लिए गिद्ध की तरह
ताक लगाए उन लोगों को
कुछ औरते मुझे कब्र से दूर ले गईं
लेकिन कहां दूर कर पाईं पीड़ा से
मै्ने अविश्वास से चुप रहना चाहा
सच पर अविश्वास, लेकिन
वह मिट्टी, तुम्हारी मिट्टी
आज भी मेरे जूतों पर चिपकी है।
यह कमरा
इस कमरे से कुछ दिखाई नहीं देता
रातें बीते हुए दिनों सी लगती हैं
वे युद्ध से लौटे हुए घायल सैनिकों की तरह
दीमाग की ओर मार्च करती आती हैं
थकी, खून से लथपथ, परेशान सी
इस अंधेरे बन्द कमरे में
बीता वक्त पास लेटा है
भविष्य किसी ओर के लिए है
हर दिन भूखे कुत्ते सा
तुम्हारी हड्डिया चिंचोड़ता है।
इस बन्द कमरे में
शर्म अपने आप का हवाला देती है
घबराए कदमों से
बदनामी प्रवेश करती है
उस हर चीज के साथ, जो तुम कर नहीं सकते
बाहर, वे बरसात में चहलकदमी कर रहे हैं
होमवार्ड बसों में ऊंघ रहे हैं
बिना यह जानते हुए कि
वे कितने भाग्यशाली हैं।
स्रेब्रेनिका के बाद
वे अपनी बन्दूकें तुम्हारी ओर तानते हैं
और तुम्हे जाने को कहते हैं
तुम्हारी देह कहना मानती है
लेकिन दीमाग चिल्ला उठता है
नहीं, मेरी कोई गल्ती नहीं
मैंने कुछ नहीं किया
मैं सोलह बरस का हूं
और यह मेरा घर है
तुम्हारे पास कोई हथियार नहीं
छिपाने के लिए कोई जगह भी नहीं
तुम जबरदस्ती उस खेत की ओर
हाँके जाते हो, जहाँ कभी तुम खेले थे
सारे कि सारे गांव के लड़के, मर्द
संयुक्त कब्र में चले गए
अब यू एन के पुरातत्वियों ने
तुम लोगो का डी एन ए खोज निकाला
जिससे अलग कब्र में रखे जा सको
इतने बरसों के इंतजार के बाद
अब तुम्हारी मां समझ पाती है कि
तुम फिर कभी उसकी बाहों में
नही लौट कर आओगे
धूप से फीके लिए बालों और
त्वचा में गरमी की खुशबू लिए
हमेशा के लिए चले गए
गांव के बच्चों और मर्दों की तरह
रात को जब वह पीड़ा के मारे सो नहीं पाती
वह आसमान की ओर तुम्हारा नाम पुकारती है
और महसूस करती है, जो तुम्हारी निर्दोष आंखों ने
बन्द होने से पहले आखिरी बार देखा था
क्या मरते वक्त
उसका नाम तुम्हारे होठों पर था?
स्वर्ग भी उसकी मदद नहीं कर सकता
ना ही स्रेब्रेनिका की सारी औरते या लड़कियां
जो अभी तक अपने आंसुओं के संसार में डूबीं हैं।
अंग्रेजी से अनुवाद – रति सक्सेना
हरिहर झा
कवि लेखक , मूलतः हिन्दी में लिखते हैं
घोड़े
घोड़े महत्वाकांक्षाओं के
उंची उंची लालसाओं के
भागते हुये
सरपट मैदान की बात ही क्या
चढ़ भी जाते हैं सीडि़यों पर
भले ही पैर लहूलुहान
कभी तो दुनियावी बोझे से लदा तांगा
कंधो पर उठाये
आकाश मे उड़ते हुये
भावना के परिन्दो को
नीचा दिखाते हुये¦
ये घोड़े दे गये मुझे
अथाह शक्ति, धन दौलत
ईर्ष्या मित्रो की
गालियां दुश्मनों की
अजनबियों की व्यंग्यमय मुस्कान
सब कुछ पा लिया
अपने ही बलबूते पर याने
बलपूर्वक इस घोड़े के बूते पर
सब कुछ पा लिया
अपने स्वयं की पूर्णाहूति देकर
मेंने
अश्व नहीं
नरमेध यज्ञ मे
घोड़े को किया
यशस्वी विजयी कीर्तिमान।
दर्द का दर्द
मै जब खाली पेट था
भूखा ! सिर्फ भूखा !
नहीं जानता था
क्या होता है सिर दर्द
दिल मे लिये फिरता था
सिर्फ प्यार का दर्द
हाँ अब, जब खट्टी डकारे लेता हूं
कल का भोजऩ कोई छीन न ले
इस चिन्ता मे व्यस्त रहता हूं
तब चुभ रहा है तीर
दर्द से फटा जाता है सिर ।
पर कहते हैं इस युग में
दर्द को संवेदना नहीं
अनुभूति नहीं
बिल्कुल जड़ समझो ।
किसी सड़े हुये सेव की तरह
या गले मे अटकी गोटी की तरह
वस्तु समझो और
गोली खाकर
गोटी को निकाल फेको ।
तो गुब्बारा हुये इस पेट का दर्द
लगता है सड़ा हुआ सेव
न्यूटन से पुछ कर
सिर से गिर कर
पेट मे उतर आया
सेव फट कर
ज्यों मिट्टी मे मिला
शुरू हुआ बदन दर्द ।
आखिर यह दर्द है क्या !
बस, काया से मस्तिष्क तक
न्यूरोन से गुजरती यात्रा ।
न्युरोन को पकड़ा पर
दर्द कहां पिट पाया
बिजली को धूल माना
पर दर्द कहां मिट पाया ।
चलो फिर
चलो फिर
इस दिखावे के
यंत्रवत् जीवन से दूर
पिकनिक पर
संगी साथियों की टोली ले कर
समस्त औपचारिक वेशभूषा को तिलांजलि देकर
हंसी ठिठोली करते हुये
गुपचुप ही वहां पूरे लंचडिनर की व्यवस्था के बाद भी
चना चबेना ढुंढने का स्वांग रचते हुये ।
चलो फिर
फिल्मी र्तज पर गीतों से गला फाड़ते हुये
आदिवासी लोकगीतों की तरह
या फिर आर्यों द्वारा गाई
वैदिक ऋचाओं की तरह
सामुहिक अंतर्मन को सुरों में
अभिव्यक्त करते हुये
कुछ दुर बुशवाक पर निकल कर
राह भटकने का ढोंग कर लेने के बाद
मोबाइल पर संपर्क करते हुये ।
चलो फिर
कड़कती ठन्ड मे
गरम आंच का लुत्फ लेने
कोयले की
अंगीठी पर हाथ सेंकने के लिये
अंगीठी मे छुपे हीटर का
स्वीच आन करते हुये।