कविता के बारे में
विरोध के कवि शमशेर
शम्भु बादल
असंगति और रूढ़ि के विरोध की प्रवृति मनुष्य की बुनियादी प्रवृत्ति है। इसे मानवीय विकास की केन्द्रीय प्रवृति माना जा सकता है। अभिव्यक्ति क्रम में यह मनुष्य की मौलिकता की पहचान है। संस्कृति और सभ्यता के विकास के साथ-साथ इसे अधिक तार्किक, भावनात्मक आधार प्राप्त होते गए। जीवन की तरह ही काव्य क्षेत्र में इसका विशेष महत्व है। व्यापक आधार पर देखा जाए तो नयी सृष्टि के मूल में विरोध की चेतना रहती है। नयी काव्य प्रवृत्तियां, नये काव्य आन्दोलन इसी के परिणाम हैं। शमशेर बहादुर सिंह में यह प्रवृत्ति लगातार और गहरे रूप से दिखायी पड़ती है।
शमशेर ने विरोध की कविताएं पर्याप्त लिखी हैं। ऐसी कविताएं अधिकतर “बात बोलेगी” पुस्तक में संकलित हैं। “काल तुझसे होड़ है मेरी” में भी इनकी अच्छी खासी संख्या है।
शमशेर अपने समाज के किसानों और मजदूरों की विषम स्थिति बदलने के लिए उद्विग्ता का अनुभव करते हैं, जिसके फलस्वरूप वे असहमति और विरोध की कविताएं लिखते हैं। उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता अवसर पर भारत की आरती लिखी जिसमें कहा है –
जन का विश्वास ही हिमालय है
भारत का जन-मन ही गंगा है
भव के अरमानों की भूमि है
मानव इतिहास को संवारती है।
इसी के साथ उन्होंने कहा
यह किसान कमकर की भूमि है
पावन बलिदानों की भूमि है
भव के अरमानों की भूमि है
मानव इतिहास को संवारती है।
इससे स्पष्ट होता है कि शमशेर के राष्ट्रवाद का कितना व्यापक और सार्थक अभिप्राय है। वह जन मूलक राष्ट्रवाद है और अन्ततः मानववाद है। “जमीदारों और पूंजीवादी नौकरशाहों के विरुद्ध” क्रान्तिकारी संघर्ष चलाने वाले किसानों के सन्दर्भ में कवि “बम्बई में वर्ली के 60 किसानों को देखकर” कहता हैः-
ये वे ही बादल घटाटोपी
बिजलियां जिनमें चमकतीं?
खून में जिनके कड़क ऐसी, कि
गोलियां चलतीं?
इनकी आंखों में तड़कती धूप
सख्त बंजर की
इनकी वाणी में हमारी भूल
बोलती धरती।
किन्तु वे किसी तरह का संकीर्ण आग्रह नहीं रखते, वे उन भयावह विकृतियों के सम्बन्ध में भी अनुभूतिशील हैं, जो मनुष्य की स्वाभाविक पहचान को साम्प्रदायिक, जातीय मुखौटों के सहारे छिपाने की कोशिश करती है। “क्या सुना है मैंने”, “हैवां ही सही” “धर्म और मजहब वाले” और “रुबाई” जैसी कविताएं विशेष उल्लेखनीय हैं।-
यह किसने दांत निकाले हैं
यह किसने आंखें ऊपर कीं
यह किसने लट्ठ संभालें हैं
यह किसकी खोपड़िया तड़की?
देखो ये हिन्दु, वो मुस्लिम
ये धर्म और मजहब वाले हैं।
शमशेर यह भ्रान्त धारण नहीं रखते कि आर्थिक विषमता को दूर कर दिया जाए तो साम्प्रदायिक संकीर्ण भावना स्वतः समाप्त हो जाएगी। “आर्थिक क्षेत्र” में अकाल ज्वलन्त समस्या रही है, इस समस्या से देशवासी आज भी ग्रसित हैं। बात बोलेगी की अकाल कविता में उन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है।
क्यों जन्मा था मनुष्य
बींसवी सदी के मध्याह्न में
यों मरने के लिए?
झुलसा सा पतझड़ का पत्र
चिथड़ों का बादल सा
धूमिल संध्याओं में
हवा का निरीह कम्प केवल!
शमशेर समाज के सम्बन्ध में भावुकता से कामना लेकर गहरी समझ और विवेक का परिचय देते हैं उनका विश्वास एक विशिष्ट विचारधारा में है और विचारधारा के लोग जो राजनीति करते हैं, उसके प्रति वे समर्पित लगते हैं, लेकिन वे उनके प्रति भी अनुभूति रखते हैं जो किसी जनसमुदाय की मुक्ति के लिए, राजनीतिक साम्प्रदायिक दमन के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। “जाहाजियों की क्रान्ति” में शहीदों के प्रति कवि की व्यापक आत्मीयता मिली है।
………शहीद
कहीं
हुए हैं लोग
अपने
लोग
सपने रंगे
धूम
रक्त
की फुलझाड़ियों से
गोलियों की
लड़ियों से
मांस मज्जा में
ट्ठ ठ्ठाय.!
शमशेर ने अति भावुकतावादी, पुनुरुत्थानवादी और नस्लवादी प्रवृत्ति का भी विरोध किया है। उनके लिए मनुष्य ऐतिहासिक विकास का सर्वोत्तम रूप है, मनुष्य और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं है। उन्होंने “जीवन की कमान” जैसी कविताओं में फासी वादी प्रवृत्ति की भयावह अमानवीय विकृतियो पर प्रहार करते हुए जन शक्ति में विश्वास प्रकट किया है।
टूटेंगे अरिदल के पहाड़
जब जन बल का सागर
दहाड़कर उट्ठेगा
करता विचूर्ण फासिस्ट हाड़
जनता के बल का महाप्राण
शक्तिस्फुलिंग
जो मध्य युगों का परित्राण
कर छूटेगा
बन नवयुग का जलता प्रमाण
शमशेर की सौन्दर्य और प्रेम सम्बन्धी कविताओं को देखकर कवि के सौन्दर्यवादी होने का सन्देह हो सकता है, किन्तु गहराई से परखने पर यहां भी कवि की सामाजिक मान्यता के असहमति और विरोध के भाव मिलते हैं, जिसमें शमशेर की कविता का सच स्पष्ट हो जाता है। कवि के विद्रोही मन की कठिन परीक्षा वहां होती है जहां वह वैसी कविताएं रचता है जो प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक समस्याओं, आर्थिक समस्याओं से पृथक मालूम पड़ती हैं। प्रचलित सांस्कृतिक मूल्यों के दवाब से संवेदनागत वैषम्य से जूझना अधिक कठिन है। सामान्यतया यह सम्भव है कि कोई कवि सामाजिक विषमता के चित्रण में प्रगतिशील दिखाई दे, किन्तुं संस्कृति के सौन्दर्य, प्रेम जैसे क्षेत्रों में रूढ़िवादी बन जाए। शमशेर ऐसे कवि नहीं है, सौन्दर्य, प्रेम की कविताओं में भी उनका एक तरह का विद्रोही रूप दिखाई देता है। उन्होंने रूप के, प्रेम के पक्षों का भी अंकन किया है जो किसी परम्परावादी नैतिकतावादी के वश में नहीं है। यहां कवि पर उच्छृंखलता का आरोप नहीं लगाया जा सकता, बल्कि स्तरीयता, कलात्मकता श्रेष्ठता देखी जा सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि शमशेर खण्ड में नही् सम्पूर्ण विरोध के कवि हैं।
डॉ. शंभु बादल
हजारीबाग के पास सरौनीखुर्द गांव के रहने वाले हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार और प्रगतिशील कवि डॉ. शंभु बादल देश विदेश के कई कवि सम्मेलनों और साहित्यिक संगोष्ठियों में शिरकत कर चुके हैं। आपकी ‘सपनों से बनते हैं सपने’ एवं ‘पैदल चलने वाले पूछते हैं‘ प्रमुख कृतियाँ हैं। डॉ. बादल परामर्श समिति हिंदी एवं जनरल काउंसिल, राष्ट्रीय साहित्य अकादमी नई दिल्ली के सदस्य रह चुके हैं। आपको राधाकृष्ण पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
(नोट- परिचय गूगल पर उपलब्ध सूचना के आधार पर है)
शम्भु बादल, मो.न. 9931182570
‘क्रित्या’ एक बहुत ही महत्वपूर्ण पत्रिका है. इसके माध्यम से आप कविता के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ा काम कर रही हैं. आलेख के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद रति सक्सेना जी