समकालीन कविता

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शैलेन्द्र चौहान

 

बिहार

 

जब नहीं गया था बिहार
तब भी विचरता था बिहार में

इलाहबाद और बनारस के आगे
नहीं बढ़े थे कदम
पर मौजूद थे दर्जनों लेखक
‘धरती’ के पृष्ठों पर

नागार्जुन, कुमारेन्द्र, हरिहर प्रसाद, मधुकर सिंह,
जितेन्द्र राठौर, राम निहाल गुंजन, चंद्रेश्वर कर्ण, कर्मेंदु शिशिर
और अनेकों कवि उस धरती की सुगंध बिखेरते थे
हिंदी जगत में

सुनता था सुंदर संगीत
अरुण कमल, आलोक धन्वा, मदन कश्यप, नचिकेता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में

अनगिनत पोस्टकार्ड, रचनाएं और पत्रिकाएं मिलती दर रोज
पहुंचते कभी-कभी लेखक मित्र इलाहबाद
उनकी ऊर्जा, विश्वास और मित्रता उष्म और सुखद
बिहार पैठता गया मुझमें और मैं बिहार में

कितनी उर्वरा है बिहार की धरती
‘धरती’ के पृष्ठों पर फैली हुई
बिखेरती कई रंग
स्नेह और अपनत्व से सराबोर

 

दिल्‍ली

 

दुर्गंध है कोहरा है
गंदगी के ऊंचे पहाड़ हैं यहां
जल्दबाजी में हर शख्स है
किसी को ठहरने की फुरसत कहां

बेहिसाब गाड़ियां हैं
रेहड़ी-पटरियां हैं
माल हैं दफ्तर-दुकानें हैं
गजब की भीड़-भाड़ है यहां

गरीब-गुरबे हैं, बनिये-वक्काल हैं
नौकरीपेशा मुलाजिम हैं
हाकिम-हुक्काम हैं
जरायमपेशा हैं
हर जुगाड़ है यहां

खुले घूमते हैं चोर, डकैत, हत्यारे, बलात्कारी
कहने को एक तिहाड़ है यहां

कहते हैं दिल्‍ली दिलवालों की है
होगी!
दिखता ज्यादातर कबाड़ है यहां

 

मृत्यु

 

निस्पंद निर्जीव देह
मुख खुला
पुतलियां स्थिर
सांसें बंद
भूमि पर पड़ा सीधा

वह अब
न चलेगा
न बोलेगा
न कुछ खा-पी सकेगा

बोलता था अब तक खूब
हंसता था हंसाता था गाता था सितार बजाता था
साथ चलता था
गाड़ी में घुमाता था
व्यंजन खिलाता था

जड़ हो गया
हो गया निश्चेष्ट
कुछ ही देर में रख दिया गया अर्थी पर
पहुंचा दिया श्मशान
हुए कुछ कर्मकांड
चिता में लगाई आग
बची सिर्फ राख थी

लौट लिए लोग
आंखें सूनी थीं
रिक्त हुआ पृथ्वी का एक अंश
सूना है मन का कोई कोना

कभी-कभी छाया डोलती है बोलती है
बात तौलती है
साथ होती है
ताजा होती हैं यादें

धीरे-धीरे सिमट जाएगी छाया
बिछड़ते हैं सभी
कभी न कभी
यही है जीवन चक्र
कौन किसके साथ जाता है !

 

मारण मोहन उच्चाटन

 

कविताओं ने विराम ले लिया है
हर तरफ अपराध कथाएं लहलहा रही हैं

अंकुरित होते बीज को देखकर हर्षमिश्रित उत्तेजना हो रही हैं
किसान मुरझाए चेहरे लिए लौट रहे हैं गल्ला मंडी से
कितनी कीमत रही फसल की दूनी या आधी
खिला चेहरा होता तो …..

मकड़ी ने जाल बुना है
छोटे-छोटे दो एक कीड़े गिरफ्त में हैं
बहुत कुछ हो रहा है विकास के बाड़े में
झूठ जलेबी की तरह रसीला और गोल है
अचार की तरह बढ़ाता है खाने का स्वाद भी

जंतर मंतर पर बैठे धरने वालों की खबर कहीं नहीं है
उनके मंसूबों पर पानी फिर चुका है
लोकतंत्र और संविधान हो चुके हैं जुमलों में परिवर्तित
तिलिस्म गहरा रहा है
जादूगर ने सूरज पर पानी डाल दिया है

भाप ही भाप
कुहासा हर तरफ
धरती कांप रही है
कैसा विरोधाभास है ?

आंदोलन में दोलन है विकट
थरथराहट है
घबराहट है
निराशा है
उपदेश हैं
प्रवचन हैं
सीख है

मैं पत्थर का पुतला हूं
काला ग्रेनाईट
यह अहिल्या की अकथ कथा है
कविता यहीं खो गई है
भेड़िये कहकहे लगा रहे हैं
शार्दूल कांप रहे हैं

 

समदर्शी

 

वे हर पोस्ट लाईक करते हैं
किसी में किंचित भेद नहीं करते

वह इतिहास से संबंधित हो
वर्तमान की दुर्दशा पर हो
या भविष्य की चिंता में लिखी हो

जन्मदिन पर हो
मृत्यु शोक में हो
झरबेरी पर हो, पीपल पर या आम पर हो
हरियाली पर हो या सूखे पर

वह धर्म पर फिदा हो या धर्म से जुदा हो
राजनीति पर हो या अपराध पर

उन्हें न वाम से कुछ लेना है न दक्षिण से
क्या फर्क पड़ता है

वे प्रगतिशील भी हैं और भक्त भी
न विज्ञान से उन्हें कोई परेशानी न अंधविश्वास से

साहित्य हो या नृतत्व शास्त्र
कला हो या किसी औघड़ पर लिखा वाकया
वे सब को समभाव से देखते हैं

किसी के बारे में कोई राय नहीं बनाते
वे किसी को नाराज नहीं करते
किसी बात पर विचार नहीं करते
वे चतुर हैं, परम प्नसन्‍न हैं

सब सुख सुविधाएं हैं
किसी चीज की कोई कमी नहीं
यंत्रवत लाईक पर उंगली रखते हैं
यही है नीर-क्षीर विवेक
अतः सर्वप्रिय हैं

 

शैलेंद्र चौहान

 

कवि-आलोचक शैलेंद्र चौहान ने प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा विदिशा जिले के ग्रामीण भाग में प्राप्त करने के पश्चात बी.ई. (इलेक्ट्रिकल) विदिशा से की। शैलेंद्र जी का लेखन सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता है। शैलेंद्र जी के अब तक ‘नौ रुपये बीस पैसे के लिए’, ‘श्वेतपत्र’, ‘और कितने प्रकाश वर्ष’, ‘ईश्वर की चौखट पर’, ‘सीने में फांस की तरह’ और ‘चयनित कविताएं’ कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आपके कहानी संग्रह ‘नहीं यह कोई कहानी नहीं’, ‘गंगा से कावेरी’ प्रकाशित व कथा, संस्मरणात्मक उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं। कवि शैलेंद्र चौहान ने ‘धरती’ अनियतकालिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन किया जिसके कुछ अंक, यथा गज़ल अंक, समकालीन कविता अंक, त्रिलोचन अंक और शील अंक, कवि शलभ श्रीराम सिंह अंक, कश्मीर अंक, मीडिया अंक, कृषि एवं कृषक, वैज्ञानिक चेतना एवं भारतीय समाज तथा कथेतर गद्य अंक चर्चित रहे। आप वर्तमान में जयपुर में रहते हुए स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता कर रहे हैं।

 

दिव्या श्री

 

कहनी और करनी

 

उसने आत्महत्या की है
यह जानकर दुःख कम घृणा अधिक हुई
एक प्रेमी ही नहीं पिता ने भी आत्महत्या की है
यह जानकर मेरे रोएं खड़े हो गए

उसकी पांच साल की बेटी ने कहा
शराब के नशे में चूर पिता
रस्सियों से झूल गये
और उसकी मोती-सी आंखों से डब-डब मोती झरने लगा

महज़ तेईस साल की लड़की
मेरे साथ ही तो पढ़ती थी
इक रोज अचानक ही पता चला
उसकी शादी हो गई ससुराल बसने लगी
तब उसकी उम्र तकरीबन सत्रह रही होगी

पिछले बारह दिनों में
एक दिन भी ऐसा नहीं जब मुझे याद न आई वह
हमेशा हंसने-खिलखिलाने वाली लड़की
अब अपने उम्र से बहुत ज्यादा बड़ी लगने लगी है

सोचती हूं कुछ बातें करूं
मेरे शब्द होंठों तक आते-आते दम तोड़ देते हैं
मेरा चुप रहना भी एक प्रश्न है
सामने उसका दस माह का बच्चा सोया है

आज उसके पति की तेरहवीं है
वह बेसाख़्ता रोई जा रही है
उसकी बिटिया तुतलाहट भरी आवाज़ में कहती है
बहुत बुरे थे पापा अब कभी नहीं आएंगे
अब वह अपने उम्र से बहुत बड़ी हो गई है-चकित हूं मैं

मैं पूछती हूं अपनी माँ से
क्यों करी थी उसके माँ-बाबा ने
उसकी शादी सत्रह की उम्र में
कानून तो अठारह वर्ष बाद कहता है

माँ चुप हैं, उनकी आंखों में आंसू है
जिसमें तैर रही है उसकी छवि
जो कभी घर आते ही चाची-चाची कहकर
घर को माथे पर उठा लिया करती थी

अंततः माँ कहती हैं कहनी और करनी में फ़र्क़ होता है बेटा!

 

सुख की तलाश में

 

हमने सुख की तलाश में
शहरों का रुख किया

महानगरों में बसे
दस मंजिला इमारत के आखरी माले पर
रहने को आतुर दिखे

बिल्डिंग-दर-बिल्डिंग सटे होने के बावजूद
हम स्वच्छ हवा की खातिर
खिड़कियां खोले परदे सरकाये
और जहरीली हवा लेते हुए

कुछ दिनों तक खुश रहे

जबकि वो प्रदूषित हवा
हमें हर पल नुकसान पहुंचा रही थी

पर विडंबना यह है कि
हमने उस शहर को पहचान लिया
पर शहर मुझे अब तक नहीं पहचानता

अपने गांव को छोड़कर जाने वाले
तुम्हें इसकी पगडंडी अब भी बुलाती है

वर्षों तुमने बहुत धन अर्जित किया
लेकिन तमाम शहरों में रहकर
किसी एक के नहीं हो सके।

यह शिकायत
तुम्हें खुद से
और अपने शहर से हमेशा रहेगी।

 

आंसुओं को भी शब्दों का साथ चाहिए

 

दुःख, सुख की वह कली है
जो खिलने से पहले ही मुरझा गया
दुःख वह अभिव्यक्ति है
जो शब्दों से व्यक्त नहीं हो पाया है

उस परिंदे को देखो
जो धरती की छाती पर चित्त छटपटा रहा है
दुःख नहीं है कि उसके पंख काट दिये गये हैं
दुःख यह है कि क्या मानवों के शरीर में खून का संचार बंद हो गया है

दुःख वह आंसू है
जो आंखों से नहीं निकलता
हृदय के कोने में सिमट जाता है नमक बनकर
रोएं- रोएं से रिसने के लिए

और दुःख की बात यह भी है कि
अब तक कोई लिपि क्यों नहीं बनी
दुःख को अभिव्यक्त करने के लिए
क्योंकि अब इन आंसुओं को भी शब्दों का साथ चाहिए।

 

शिकन

 

जब सारे प्रेमी लिख रहे होंगे
अपने प्रेमियों के नाम खत
मैं लिखूंगी तुम्हारे लिए कविता

जब वे एक-दूसरे से कह रहे होंगे
सिर्फ प्रेम की बातें
मैं कहूंगी सुनो पक्षियों की मधुर आवाज

जब वे बिंदास घूम रहे होंगे
अपने प्रेमियों के साथ बगिया में
मैं कहूंगी बैठो मेरे साथ, देखो सुनहरी तितलियों को

जब वे दे रहे होंगे
एक- दूसरे को लाल गुलाब
मैं मांग लूंगी तुमसे उसकी टहनियां

जब वे सारे प्रेमी
नींद की आगोश में होंगे
मैं देख रही होऊंगी तुम्हारे माथे की सिलवटें/शिकन।

 

 

दिव्या श्री

 

बेगूसराय बिहार से युवा कवयित्री दिव्या श्री, कला संकाय में स्नातक कर रही हैं और कविताएं लिखती हैं। दिव्या श्री की कवितायें देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं जैसे हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, पाखी, कृति बहुमत, समकालीन जनमत, नया पथ, परिंदे, समावर्तन, ककसाड़, कविकुम्भ, उदिता, हिन्दवी, इंद्रधनुष, अमर उजाला, शब्दांकन, जानकीपुल, अनुनाद, समकालीन जनमत, स्त्री दर्पण, पुरवाई, उम्मीदें, पोषम पा, कारवां, साहित्यिक, हिंदी है दिल हमारा, तीखर, हिन्दीनामा, अविसद, सुबह सवेरे ई-पेपर आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। दिव्या श्री की कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी और बंगला में हो चुका है।

 

 

ललन चतुर्वेदी की कविताएं

 

समय – कुछ शब्द चित्र

 

(एक)

 

वह इतने से खुश है कि
उसे देखने की आजादी हासिल है
वह हर वक्त चुप रहता है
उसे मालूम है जिस दिन वह बोलेगा
उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाएगी।

 

(दो)

 

देखते – देखते एक दिन वह सुबकने लगता है
सोचता है अंधा होना बेहतर है
जो नहीं देखना है, उसे देखना पड़ रहा है
इतनी सी पीड़ा बतला कर
वह मुक्त होना चाहता है।

 

(तीन)

 

कुछ लोग चाहते हैं सब चुप रहें
केवल और केवल उन्हें ही सुना जाए
वे कुछ भी नहीं सुनना चाहते
वे चाहते हैं निरंतर बजती रहें तालियां।

 

(चार)

 

उन्होंने मिलने के लिए बुलाया
आमंत्रण पा हम हर्षित हुए
बड़ी बात यह थी कि
बड़े आदमी ने मुझे बुलाया
मैंने हाथ जोड़कर प्रदर्शित किया आभार
एक फोटोशूट रहा आज का हासिल
अलबम में हमें देखेंगे हमारे पोते।

 

(पांच)

 

हमारे सान्निध्य में वे भी कम धन्य नहीं हुए
महान होने का टैग तो लग ही गया उन पर
हमने खून-पसीने से अर्जित की सफलता
और उन्होंने अर्जित कर ली महानता।

 

कुछ तो बोलो

 

कुछ तो बोलो धर्मराज!
कुछ तो बोलो अद्वितीय धनुर्धर!
चुप क्यों हो महाबली गदाधारी!
नकुल,सहदेव!
क्यों बैठे हो सिर झुकाए
पितामह! गुरुदेव!
आप भी मौन हैं
मैं हूं, आपकी ही पांचाली
कह भी दीजिए न कि तू कौन है

देखो, देखो, सभासदों!
दु:शासन कितना निकट आ गया
हे भगवान! अब क्या बचा ?
अब साड़ी का आखिरी सिरा भी सरकने को है
ओहह्! सुन दुर्योधन का यह क्रूर अट्टहास!
फटती क्यों नहीं यह धरती?
क्या, मेरे नग्न होने के पहले ही हो ग‌ए सब नग्न!

हे सखा! हे गोवर्धन!
अब न संभल पाएगा
पहुंच रही है न तुम तक मेरी पुकार?
जोह रही हूं तुम्हारी बाट
कहां हो तुम मेरे सखा!

मेरे उठे हुए हाथों को समर्पण समझने की भूल कर रहे हो दुर्योधन!
पूरे ब्रह्माण्ड में गूंजेगा यह अरण्य रोदन
प्रार्थना के ये कातर स्वर
धनुष की टंकार में होंगे परिणत
और एक दिन युद्धभूमि में
नृत्य करेंगे श्रृगाल
उत्सव मनायेंगे काक और श्वान

तुम्हें ज्ञात नहीं
जब नीति और न्याय
करने लगे मूक-बधिर का अभिनय
तब आना निश्चित है प्रलय
व्यर्थ नहीं जाते स्त्री के आंसू और पूरबी बयार

सुनो सभासदों!
यह चुप्पी है बेहद ख़तरनाक
तुम्हारी चुप्पी लिख रही है
महाभारत की पटकथा ।

 

जातियां

 

पेड़ ने बीजों से कभी नहीं कहा कि तुम मेरी जाति की हो
जो अल्पज्ञानी थे उन्होंने उनका देसी नाम दिया
जो अपने को विज्ञानी मानते थे उनका वैज्ञानिक नाम दिया
और यह भी जोड़ दिया कि अमुक प्रजाति उन्नत है
कुछ जातियों को आपस में मिलाकर संकर पैदा किए ग‌ए
और इन उपलब्धियों पर तालियां बजा‌यी ग‌ईं
खाते में बड़े – बड़े पुरस्कार भी आ ग‌ए
वनस्पति जगत में इस पर कोई हलचल नहीं हुई
हवाओं ने बीजों को जिन भूखंडों में डाला,
वहीं वे विकसित हो ग‌ये छतनार पेड़ में
और वायुमंडल में आक्सीजन उत्सर्जित करते रहे अनवरत

हम मनुष्य जिन्हें अपनी कुलीनता पर गर्व है
तथाकथित अपने वर्गीकरण पर आज भी झूम रहे हैं नशे में
हम सब अपनी संतानों को सदियों से पढ़ा रहे हैं एक ग़लत पाठ
जबकि हमारे पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है सिवा अपने पिता के मौखिक वक्तव्य का कि हम अमुक जाति के हैं
हम आपस में इसी मुद्दे पर लड़ते रहे, जहर उगलते रहे
सदियों से हम असत्य को सत्य मानकर उलझते रहे
क्या आपने कभी सोचा है कि
हर पिता इस अनर्गल असत्य पाठ के लिए अपने संतान का अपराधी है।
बस पड़ाव पर

एक घंटा से प्रतीक्षारत हूं
बस से उतरती हुई सवारियों पर टकटकी लगी है
बस दूर जा रही है, धूल उड़ाती हुई
कोई मुझमें उतर रहा है धीरे-धीरे

लो, यह दूसरी, तीसरी बस भी गुजर ग‌ई
यह चौथी तो पड़ाव पर रुकी भी नहीं
अब आखिरी बस के आने का समय हो चुका है
वह भी आ ग‌ई, कोई नहीं उतरा

रात और काली हो ग‌ई है
मैं तुम्हें साथ लिये जा रहा हूं सुरक्षित
अच्छा है, कोई देख नहीं रहा है।

 

समन्दर बन न सके तुम!

 

कितनी मिट्टियां मिलती हैं तुममें
बहती हैं कितनी नदियां तुम्हारे भीतर
कितनी जगहों की सर्द, गर्म हवाएं
समाती रहती हैं तुममें बेरोक-टोक
फलती-फूलती रहती हैं तुममें कितनी वनस्पतियां
कितने लोग तुम में जोड़ते हैं अपना-अपना कुछ

बहुत मुश्किल है हिसाब लगा पाना
इतने कुछ जुड़ते-जोड़ते रहते हैं तुममें निरंतर इतने कि तुम ‘तुम’ नहीं रह पाते
इतनी भी ताकत कहां हैं तुममें वो बलशाली!
कि अपने को बचा लेते साबुत
सोचा है कभी इनके बिना तुम होते कितने विपन्न!

उठती रहती हैं तुममें लहरें मौसम-बेमौसम
लेकिन कभी लौट नहीं पाए तुम लय में
कभी तट पर छोड़े नहीं एक भी मोती
सब जुड़ना -जोड़ना सिद्ध हुआ बेकार
बहुत बने मगर समन्दर बन न सके तुम!

 

ललन चतुर्वेदी


कवि और व्यंग्यकार ललन चतुर्वेदी (मूल नाम ललन कुमार चौबे) का जन्म मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में हुआ है। ललन चतुर्वेदी ने एम.ए.(हिन्दी), बी एड.,यूजीसी की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण की है। आपका “प्रश्नकाल का दौर” नाम से एक व्यंग्य संकलन प्रकाशित हुआ है। ललन चतुर्वेदी की कविताएं एवं व्यंग्य साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। वर्तमान में आप भारत सरकार के एक कार्यालय में अनुवाद कार्य से संबद्ध एवं स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं तथा लंबे समय तक रांची में रहने के बाद पिछले तीन वर्षों से बेंगलूर में रहते हैं।

1 Comment

  • Atul Chaturvedi

    सभी कविताएँ प्रभावी हैं और समय के संघर्ष को बेबाक़ी से अभिव्यक्त करती हैं , बधाई

Post a Comment