कविता के बारे में
कविता का भविष्य
अरुण कमल
आज अक्सर सुनने को आता है कि कविता के पाठक नहीं रहे और कविता का भविष्य खतरे में है । लेकिन इसके लिए कोई प्रमाण नहीं दिया जाता है । लोग मान कर चलते हैं कि पहले का युग कविता के लायक था, आज का युग विरोधी है । सच तो यह है कि पिछले पांच सौ वर्षों से स्वयं अंग्रेजी में कविता को लेकर क्षमायाचना का भाव रहा है । दो सौ साल पहले शेली को कहना पड़ा कि कवि दुनिया के मान्यता विहीन विधायक हैं, और वे आज भी हैं । हिन्दी में खड़ी बोली का इतिहास महज सौ साल का है । एक समय था जब निराला,पंत और प्रसाद की पुस्तकें भी बहुत कम छपती और बिकती थीं। कवि सम्मेलनों की परम्परा ने अवश्य कविता को साधारण लोगों से जोड़ा पर वह भी धीरे धीरे फूहड़ हो गई। कुछ लोग कहते हैं कि कबीर और तुलसी आज भी लोकप्रिय हैं लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आज कितने लोग तुलसीदास को काव्यप्रेम के कारण पढ़ते हैं । भक्ति भावना के अन्तर्गत धार्मिक आन्दोलनों के अंग के रूप में इन्हें अधिक प्रसार मिला। बाद में स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान मैथिलीशरणगुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी तथा दिनकर को लोकप्रियता मिली। प्रगतिशील आन्दोलन ने नागार्जुन, शील आदि को कुछ जनप्रियता दी, लेकिन कुल मिलाकर कविता प्रेम के कारण कविता पढ़ने सुनने वाले हमेशा कम ही रहे । इसलिए आज भी यदि कविता के प्रति प्रेम कम है, तो कोई अनहोनी बात नहीं है।
इसी के साथ यह भी सच है कि आज कविता लिखने का शौक रखने वाले बढ़ें हैं। ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ दो चार कवि ना हों । चाहे वे जैसी भी लिखें, लेकिन लिखते तो हैं । कुछ कविता पुस्तकों के कई कई संस्करण आज बिकते हैं । कवि सम्मेलनों के फूहड़पन ने कवि और कविता के प्रति जो मज़ाक का भाव ला दिया था, वह भी अब काफी कम हुआ है । सबसे बड़ी बात यह कि साक्षरता बढ़ने से लोगों में पढ़ने लिखने की संख्या बढ़ी है । प्रकाशक कविता पुस्तकों के न बिकने का रोना तो रोते हैं, पर छापना नहीं छोड़ते । इसलिए शायद यह सही नहीं कि कविता के पाठक खत्म हो रहे हैं। आज से पचास साल से भी अधिक पहले कविवर सियारामगुप्त ने “कवि चर्चा” निबन्ध में कवियों की बहुलता के बारे में लिखा था। आज भी यह सच है। इसलिए यह भी सच है कि कविता समाज में जीवित है।
अगर हम मान लें कि कविता कल नहीं रहेगी तो क्या होगा? वैसे आज तक ऐसा कोई समाज नहीं बना जहाँ कविता न रही हो। जब किताबें जलाने वाले शासकों का राज था, तब भी कविता गाई जा रही थी। ब्रेख्त के शब्दों में, अंधेरे समय में भी गीत गाये जायेंगे, अंधेरे के गीत। क्यों कि कविता मनुष्य की मातृभाषा है। इसलिए सबसे व्यवहारिक, कर्मरत, निष्ठुर, व्यक्ति में भी कविता के प्रति लालसा बनी रहती है। जिस तरह समुद्र या पहाड़ के प्रति लालसा बनी रहती है। हम रोज तो पहाड़ नहीं देखते, शायद रोज फूल भी नहीं देखते, पर यह सन्तोष रहता है कि कहीं कोई पहाड़, समुद्र या फूल है। कविता भी समाज में वैसे उपस्थित रहती है । हम रोज कविता पढ़ें या न पढ़ें, कविता के लिए स्नेह और आदर बना रहता है। यह सही है कि जिनके लिए जीवन का अर्थ केवल पैसा कमाना या मौज लूटना है उनके लिए कविता अथवा कला अथवा शुद्ध ज्ञान या विज्ञान और दर्शन का भी कोई महत्व नहीं। कविता के प्रति यदि उत्साह कम है तो क्या विज्ञान या दर्शन के प्रति उससे अधिक है? शुद्ध विज्ञान और दर्शन की स्थिति तो कविता से भी दरिद्र है। क्योंकि हम जिस समाज में हैं, हमने इतने हजार वर्षों में जो समाज बनाया है, वहाँ सबसे ज्यादा शक्ति, सम्मान और महत्व पैसे को प्राप्त है। कविता उन शक्तियों में है जो पैसे के प्रति हिकारत से जन्म लेती है। इसलिए आज के समाज में कविता मूल्यविहीन है। कविता मनुष्य को मान देती है, मनुष्य के आन्तरिक जगत को, उसके सुख, दुख, संघर्ष, राग, विराग को। महाभारतकार ने कहा था कि मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। लेकिन क्या आज का समाज मनुष्य को श्रेष्ठ मानता है? नहीं । यहां महत्व है धन का । इसलिए कविता गौण है। लेकिन समाज यह नही भूलता कि अन्ततः मनुष्य का मनुष्य होना ही श्रेष्ठ है। इसी आशा के सहारे कविता चलती है और कविता के प्रति प्रेम भी।
अरुण कमल
अरुण कमल – लब्ध प्रसिद्ध कवि एवं आलोचक जिन्होंने वर्तमान कविता में विशेष जगह बनाई है । आपकी कविता की चार पुस्तकें है – अपनी केवल धार, सबूत, नए इलाके, पुतली के संसार। एक आलोचना की पुस्तक है – कविता और समय। आपकी कविताएं समकालीन हिन्दी साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि मानी जाती हैं। आपको अनेक सम्मान मिले हैं जैसे शमशेर सम्मान, सोवियत लैण्ड नेहरु अवार्ड आदि, किन्तु सबसे महत्वपूर्ण सम्मान है – केन्द्र साहित्य अकादमी का पुरस्कार जो “नए इलाके” नामक कविता की पुस्तक के लिए मिला।