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कविता के बारे में
अरुण कोलटकर की कविताएं: रूप अरूप
कुमार सुशान्त
हमारे लिए हमेशा ही यह दिक्कत रही है कि किसी भी निबन्ध की शुरुआत कहां से करूं। बहुत सोच-विचार के बाद तय किया कि इस निबन्ध की शुरुआत उस प्रश्न से करूं जिस प्रश्न को चन्द्रकान्त पाटिल ने ‘आवेग’ के ‘अरूण कोलटकर’ विशेषांक के सम्पादकीय में पाठकों के लिए छोड़ा है। उनका प्रश्न है कि -“कोलटकर या कोलटकर – जैसे अंग्रेजी में कविताएं लिखने वाले भारतीय कवि (उदाहरण के तौर पर ए. के. रामानुजन, जयंत महापात्र, दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे, अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा, प्रीतीश नंदी, विष्णु खरे, लासवि-सारंग आदि के नाम लिए जा सकते हैं।) अपनी मातृभाषा के अलावा या अपनी मातृभाषा को छोड़कर क्योंकर अंग्रेजी में भी कविताएं लिखते हैं। इन कविताओं के पीछे उनकी कौन सी सृजनशील भूमिका है? कौन से साहित्यिक और सांस्कृतिक मानदंड उन्हें अंग्रेजी की ओर ले जाते हैं? किन उद्दीष्टों के साथ उनकी अंग्रेजी रचनात्मकता जुड़ी हुई है?”1 इसके आगे वे लिखते हैं -“इन तमाम समस्याओं को लेकर गहराई के साथ चिंतन होना आवश्यक है। आवेग का यह अरुण कोलटकर विशेषांक हिंदी के संवेदनशील आलोचक और पाठकों को इन समस्याओं के संदर्भ में सोचने के लिए उत्तेजित करें तो ‘आवेग’ को काफी हद तक सफलता प्राप्त होगी।”2
अब उपर्युक्त प्रश्नों पर एक-एक कर विचार करते हैं। सभी की इच्छा होती है कि उसकी रचना को अधिक से अधिक लोग पढ़ें इसलिए अधिक पाठकों तक अपनी रचना पहुंचाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी में लिखा। अंग्रेजी वैश्विक भाषा है। कम समय में अपनी रचना को वैश्विक पटल पर लाने की चाह किसी भी लेखक को अंग्रेजी में लिखने के लिए बाध्य करती है। मेरे विचार से अरूण कोलटकर और उनके जैसे अन्य कवि इसी कारण अपनी मातृभाषा छोड़कर अंग्रेजी में कविता लिखते हैं। भारतीय भाषाओं में अनुवाद की स्थिति बहुत ही खराब है इसलिए भी उन्होंने अंग्रेजी में कविता लिखी। भारत में लोग अपनी क्षेत्रीय भाषा के अलावा अंग्रेजी सीखना या पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं। अंग्रेजी में लिखने से भारत ही नहीं बल्कि विश्व की किसी भी भाषा में उसके अनुवाद की संभावना बढ़ जाती है। वैश्विक स्तर पर अनुवाद के सहारे उनकी रचना को लोग पढ़ें और अन्य भाषा के पाठकों तक उनकी रचना की पहुंच बने इसलिए भी अपनी मातृभाषा को छोड़कर लेखक दूसरी भाषा में लिखता है। मेरे विचार से अगर भाषा पर अच्छी पकड़ हो तो किसी भी भाषा में कोई भी लेखक लिख सकता है। इस पर ज़्यादा दिमाग लगाने की ज़रूरत नहीं है। अपनी संस्कृति को विश्व पटल पर लाने या फैलाने के लिए भी लेखक अंग्रेजी में लिखता है। जहां तक सृजनशील भूमिका का सवाल है तो अपनी मातृभाषा में लिखने पर लेखक की जो सृजनशील भूमिका होती है वही मातृभाषा से इतर भाषा में लिखने पर होती है। लेखक की सृजनशील भूमिका भाषा के बदलने से नहीं बदलती।
भाषा किसी भी रचना की श्रेष्ठता को मापने का मानदंड होती है। किसी रचना की सफलता-असफलता भाषा पर निर्भर करती है । इस अर्थ में वह रचना की प्राणशक्ति है। भाषा की दुरूहता रचना को पाठक तक पहुंचाने में बाधक होती है। इसी कारण प्रत्येक रचनाकार अपने सामर्थ्य के अनुसार अपनी रचना में भाषा का सार्थक प्रयोग करता है।
अरूण कोलटकर की काव्य भाषा अद्भुत है। उसमें शब्दों में उत्तेजना के बदले प्रशांत तरीके से आहिस्ता-आहिस्ता मर्म को उद्धाटित करने की क्षमता है। अरुण कोलटकर अपनी उबलती अनुभूतियों को अंगारे की तरह कविता में ही नहीं फेंकते बल्कि धीरे-धीरे ऊष्मा भरते हैं। उनमें एक लय का विधान रहता है। उदाहरण स्वरूप उनकी पहाड़ कविता को देखा जा सकता है-
पहाड़
राक्षस
खुरदरे कंधे
प्रस्तर के फरसे
राक्षस
पहाड़
नागफनी धंसी हुई
चट्टान की पसलियों के आर-पार
पहाड़
राक्षस
स्फटिक-घुटने
कमर चूनपाथर
राक्षस
पहाड़
आकाश गोश्त में
नागफनी दांत
पहाड़
राक्षस
रीड की हड्डी वाले
चट्टान कटे डग जिनके
राक्षस
पहाड़
बलुवे पत्थर की
लू लगी जांघे
पहाड़
राक्षस
कूल्हे पाषाण
मंड़वे गिरे हुए
राक्षस”3
उपर्युक्त कविता में कवि ने पहाड़ को राक्षस के रूप में देखा है। कविता में वे एक बार पहाड़ और राक्षस का प्रयोग करते हैं तो दूसरी बार राक्षस और पहाड़ का। कवि इस प्रयोग द्वारा कविता में अद्भुत लय का संचार करते हैं। उनका यह प्रयोग यह भी बतलाता है कि वे निर्जीव को सजीव रूप देने में माहिर है।
एक अन्य कविता ‘पुजारी का बेटा’ में भी वे पहाड़ को राक्षस रूप में देखते हैं। इस कविता में भाषा को वस्तु रूप में प्रयोग करने की उनकी अद्भुत क्षमता दिखाई देती है जिसके कारण लाक्षणिकता की नवीन चेतना का संचार इस कविता में होता है। अब कविता देखते हैं –
“पुजारी का बेटा
ये पांच पहाड़
पांच राक्षस हैं
खंडोबा ने जिन्हें मार डाला है
कहता है पुजारी का बेटा
बच्चा छोटा
साथ आता है हमारा गाइड बन
स्कूलों को हैं छुट्टियां
तुम्हारा विश्वास है इस कहानी पर
हम उसे पूछते हैं
वह जवाब नहीं देता
पर वैसे बेचैन नजर आता है
कंधे झटक दूर देखता है
और सहसा उसका ध्यान जाता है
धूप से जलकर पीले पड़े
रूखे-सूखे घ्रास के विरल अंचल में
गति की एक चपल झपक और कहता है
देखो उधर तितली है
उधर”4
उपर्युक्त कविता में पुजारी का पुत्र लेखक की वैज्ञानिक सोच वाले प्रश्न से घबड़ा जाता है। वह पढ़ा-लिखा होने के कारण जानता है कि पांच पहाड़ कभी भी पांच राक्षस नहीं हो सकते। पहाड़ हमेशा पहाड़ ही रहेगा। गाइड के रूप में उसका धंधा चलता रहे इसलिए चालाकी से लेखक का ध्यान तितली की ओर भटकाता है। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है कि जब उसे उत्तर नहीं सूझता है तो उस विषय से इतर विषय पर बात करने लगता है। इस कविता में यही देखने को मिलता है।
जीवन में अर्थ पहले होते हैं, शब्द बाद में। दरअसल कविता शब्दों से अर्थों को मुक्त करने की कला है। अरुण कोलटकर भाषा को लिरिकल बनाते हुए उसे संगीत तक ले जाते हैं, जहां से अर्थों की उड़ान शुरू होती है। यही काव्य कौशल, यही लिरिक तत्व, पाठक को पाठ में शामिल करने की यही डायनामिक्स अरूण की कविता ‘मकरंद’ में मिलती है-
मकरंद
अपनी कमीज उतारकर
यहां पूजा करने बैठ जाऊं?
नहीं, धन्यवाद ।
मैं नहीं ।
पर तुम सीधे आगे बढ़ सकते हो
अगर यही तुम करना चाहते हो।
मुझे दियासलाई दे दो
जाने से पहले,
दोगे ना?
मैं जाऊंगा बाहर आंगन में
जहां कोई बुरा नहीं मानेगा
अगर मैं धूम्रपान करूं तो।”5
कोलटकर ने ज्यादातर बोलचाल की शब्दावली का इस्तेमाल किया है जो उनकी उपर्युक्त कविता में भी देखने को मिलता है।
उनकी कई कविताओं में कथा कहने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। ऐसी कविताएं अपने समय की कथा कहती हैं। ‘अजामिल और बाघ’ कविता का एक अंश देखें –
“अजामिल ने जब प्रस्ताव रखा
दीर्घकालीन मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर करने का
तब सब बाघों ने गरज कर कहा
‘इसके आगे चलकर और क्या चाहिए!
कसम खाई है ज़िंदगी भर अच्छे दोस्त बनकर रहने की
कांटो को और छुरों को नीचे रखते हुए।
अजामिल ने समझौता कबूल कर लिया
व्याघ्रजनों के साथ और उन्हें विदा कर दिया
भेड़े, चमड़ी के जाकिट और ऊन के गोले नजराने में दे दिए।
अजामिल मूर्ख नहीं था
सभी अच्छे गड़रियों की तरह जानता था वह
बाघों को भी कभी ना कभी कुछ खाना पड़ता है।
अच्छा गड़रिया उनको अवसर देता है।
वह आजाद फिर दिनभर बांसुरी बजाने को
जब भरे पेट एक रिश्ते में बंधे
तगड़े बाघ और मोटी भेड़े एक ही तालाब का पीते हैं पानी।”6
उपर्युक्त कविता में वैश्विक कूटनीति का मुज़ाहिरा किया गया है। अजामिल और बाघ सुपरपावर देश और कमजोर देश के प्रतीक हैं। कविता में दिखाया गया है कि शक्तिशाली देश किस तरह कमजोर देश को दबाते हैं। कविता के भीतर कहानी कहने की जो विशेष कला अरूण कोलटकर में है उसका इस्तेमाल वो बखूबी करते हैं। अलग-अलग तरह के दृश्य और घटना के बीच अपने शब्दों और वर्णन को फैला देते हैं और उन्हें एक दूसरे से भिड़ा देते हैं।
बिंब कविता की आत्मा है। हर कवि का बिम्ब को बरतने का ढंग अलहदा होता है। अरुण कोलटकर बिम्ब के साथ अपना जीवनानुभव पिरोते हैं और फिर कविता रूपी माला तैयार करते हैं। कविता को एक व्यापक और विशाल चेतना से संपृक्त करने के लिए भी वे बिंब को अपनाते हैं। नए बिंब का प्रयोग उनकी कविता की खासियत है। नए बिम्बों के प्रयोग की दृष्टि से उनकी कविता उत्कृष्ट है। ‘बस’ कविता के एक बिम्ब को देखिए-
“हमारा अपना ही विभाजित चेहरा चश्मे के कांचों में
जो एक बूढ़े आदमी की नाक पर है
यही अंचल प्रदेश है जो हमें देखने को मिलता है।”7
इसी कविता में एक अन्य जगह वे लिखते हैं –
“तराशी हुई सूरज की किरण विश्राम करती है
हल्के से ड्राइवर की दाहिनी कनपटी के सामने
लगता है बस दिशा बदलती है।”8
कहीं-कहीं उनका ज्यादा बिम्ब प्रयोग उनकी कविता को दुरूह बनाती है। ‘मोमबत्ती’ और ‘विजय के सायबान पर…’ ऐसी ही कविता है। इस संदर्भ में ‘बुढ़िया’ कविता के बिम्ब को देखें-
“सुराख है बंदूक की गोलियों के
जिन आंखों के आर-पार, साफ़
आकाश की ओर सीधे देख लेते हैं हम।
और जैसे ही देखते हैं हम
उसकी आंखों के आस-पास शुरू होने वाली दरारें
उसकी चमड़ी से परे फैल जाती हैं
और पहाड़ों में दरारें पड़ जाती हैं
और मंदिरों में दरारें पड़ जाती हैं ।
और आकाश गिर पड़ता है नीचे”9
कोलटकर के बिम्बों की सबसे बड़ी खासियत है – दुरूहता के साथ मानव जीवन में संपृक्ति।
अरूण कोलटकर अपनी धारणा को रूपक में ढालकर अंगूर, तितली, पहाड़, बाघ, भेड़, कुत्ता, मूषक, घोड़ा, आदि को भी अर्थवान बना देते हैं। उनके यहां रूपक आख्यान की तरह पेश होता है। कथानक को आख्यान में बदलना कवि का स्वभाव है। स्वप्न कथा, जागृत कथा/लोक कथाएं इसमें मदद करती हैं। प्रायः अरुण एकालाप से बचते हैं। उनकी बहुत सारी कविताएं संवादी होती हैं, जिनमें सम-विषम दोनों स्वर रहते हैं। ‘चाय की दुकान’ कविता में वे लिखते हैं –
“चाय की दुकान के नौसिखिये बच्चे ने
मौन का व्रत धारण कर लिया है
हम जब उससे सवाल करते हैं
तो वह हमारा भूत भगाता है
हमारे चेहरे पर थालियों का पानी छिड़क कर
और अपना तर्पण जारी रखता है सिंक में
और इसी से सम्बन्धित कुछ अनुष्ठान
कप और तश्तरियों को धोते हुए”10
उपर्युक्त पंक्तियों में भी रूपक मौजूद है। भूत भगाना, थालियों का पानी छिड़कना, तर्पण जारी रखना, कप और तश्तरियों को धोना आदि रूपक हैं। यहां नौसिखिये बच्चे को मशीन के समान काम में रत दिखाया गया है।
अरूण कोलटकर की लेखनी की सबसे बड़ी ख़ासियत है अपने समय को सजग रूप में पहचानना और उसके परिणाम के रूप में बदले हुए समाज को दिखाना। अरूण आम आदमी के साथ खड़े होकर वहां से चीजों को देखते हैं, इसलिए उन्हें वहां से चीजें ज्यादा साफ़ और स्पष्ट दिखती है। कविता में सपाटबयानी का इस्तेमाल किया जाना और रोजमर्रा में उपयोग किये जाने वाले शब्दों का इस्तेमाल किया जाना कहीं न कहीं यह भी साफ़ करता है कि यह कविता किनके बारे में और किनके लिए लिखी गई है। अरूण कोलटकर की सपाटबयानी उनकी अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाती है और अपने समकालीन कवियों से उन्हें अलगाती है। चूंकि कविता एकदम सरल अंदाज़ में लिखी गई है इसलिए उसे पढ़कर कोई भी आसानी से समझ सकता है। लेकिन यह ध्यान रखने योग्य है कि अरूण कोलटकर की कविताएं अपनी सपाटबयानी में ही उस संत्रास को साफ़-साफ़ दिखा जाती है जिसको दिखाने के लिए दूसरे कवि कठिन शब्द और कठिन शिल्प का इस्तेमाल करते हैं। ध्यान से पढ़े तो अरूण कोलटकर कविता में चमकदार, कलात्मक और भाषा के खेल वाले टोटकों से बचते हैं। वे अपनी भाषा में मुहावरों की तलाश करते जरूर दिखाई देते हैं लेकिन उसे ईजाद और स्थाई करने की खतरों के प्रति सचेत हैं।
अरूण कोलटकर अपने समय के प्रतिबद्ध कवि हैं इसीलिए उन्होंने तय किया कि कविता के सिवा अन्य विधा में वे कुछ नहीं लिखेंगे। वस्तुतः अरूण मराठी लघु पत्रिका आंदोलन के दौर के कवि हैं। अपनी प्रयोगशील कविता से उन्होंने एक ढर्रे पर लिखी जा रही मराठी कविता में जान फूंक दी। उन्होंने मराठी कविता में अपनी प्रयोगात्मक कविता से नई संवेदना का संचार किया। साठोत्तरी मराठी लघु पत्रिका आंदोलन के दौर से ही उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं में कविता लिखनी शुरू कर दी। उनका पहला कविता संग्रह 1977 में ‘अरूण कोलटकरच्या कविता’ प्रकाशित हुआ। इस संग्रह के बाद लोग उनकी कविता से सही माने में परिचित हुए।
अरूण कोलटकर की कविता प्रथम संग्रह से लेकर अंतिम संग्रह तक लगातार पैनी होती गई है। भाषा का पैनापन बढाने के लिए गालियों और आपत्तिजनक शब्दों का उपयोग करने से भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। उनकी कई कविताओं में गाली और आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग हुआ है। द्वार कविता में वे लिखते हैं –
“कब्जे की ऐसी तैसी और भाड़ में जाये तख्ती साली
द्वार कब का चल दिया होता
बहुत दिन पहले ही
अगर नहीं होता
वह जांघिया
उसके कंधे पर रखा हुआ सूखने के लिए!”11
इसी तरह ‘पुजारी’ कविता की पहली पंक्ति में ही वे लिखते हैं –
“एडी चूतड़ का नैवेद्य
पुलिया की दीवार की ठंडी बलिवेदी
राह देखता है पुजारी।
बस शायद लेट है
सोचता है पुजारी
थाली में पुरणपोली होगी कि नहीं?
ऊबड़-खाबड़ ओस-गीले पत्थर का स्पर्श
आंड को सिकुड़कर
धूप में सिर उठाकर देखता है”12
‘मुरली का गाना’ कविता में ‘बुड़चोर’ और ‘बूढ़े लंगट’, ‘मंदिर का मूषक’ कविता में ‘पाषाण लिंग के ऊपर’, एवं ‘सलीब का एक प्रकार’ कविता में ‘पीतल के चूतड़’ आदि ऐसे ही शब्द हैं।
अरुण कोलटकर को विज्ञापन के क्षेत्र में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उनकी भाषा साधारण आम लोगों की भाषा है जिसका कारण उनका विज्ञापन के क्षेत्र में काम करना है। विज्ञापन की भाषा दुरूह होने पर ठीक से संप्रेषित नहीं होती है। विज्ञापन का उद्देश्य होता है अपनी बात को सहज और सरल भाषा में अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना। सभी लोगों तक पहुंचने के लिए भाषा को सहज और सरल रखना जरूरी है। अरुण विज्ञापन की भाषा की तरह कविता की भाषा को अधिक से अधिक पाठक तक पहुंचाने के लिए सहज, सरल, सुबोध और सुगम्य रखते हैं। वे अपनी कविता में अंग्रेजी, मराठी और संस्कृत के शब्दों का प्रयोग बखूबी करते हैं। उन्होंने एक तरफ पार्टी, to moon someone जैसे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किया तो दूसरी तरफ संतप्त, देवमार्गम दर्शती, मुष्टियुद्ध जैसे संस्कृत के तत्सम शब्दों का। तीसरी तरफ वे हस्बमामूल, मुकम्मिल, सरेआम, मिसाल जैसे उर्दू के शब्दों का प्रयोग करते हैं तो चौथी तरफ परिनिष्ठित मराठी के साथ-साथ अक्खा, सोयला, पीयेला जैसे बोलचाल की मराठी का। कहने का लब्बोलुआब यह कि वे आवश्यकतानुसार भाषा का प्रयोग करते हैं।
अरुण को अपनी कविता में क्या कहना है और कितना कहना है इसका पता तो है ही साथ ही उन्हें यह भी अच्छी तरह पता है कि क्या नहीं कहना। ‘द्रोण’ कविता में सीता मैया के पास जब वानर अपनी समस्या को लेकर जाते हैं तो वे उन्हें द्रोण दे देती हैं। कविता में द्रोण पत्ते के दोने का प्रतीक है। वानरों को कुछ नहीं समझ आता कि वे इसका क्या करें? कविता में अरूण कोलटकर लिखते हैं-
” हम यहां किसलिए आए हैं
इसे ठीक से बतलाने पर भी
शायद इसकी समझ में नहीं आया।
क्या बोले, कुछ समझ न सके वे
लेकिन उनके कुछ कहने से पहले ही
हंस दी वैदेही।
इन द्रोणों का क्या करना है
इसे तुम अपने आप ही समझ जाओगे,
समय आ जाने पर,13
कविता का उपर्युक्त अंश सपाटबयानी (अखबारी भाषा) है। उन्होंने गद्य में लिखी जाने वाली अखबारी भाषा को ऐसा रूप प्रदान किया कि वह सर्वजन के लिए ग्राह्य हो गई। अरूण कोलटकर ऐसे कवि है जो स्टेटमेंट की हद तक जाकर अपनी कविता को बचा ले जाने का गुण जानते हैं। ये विशिष्टताएं ही उन्हें समकालीन कविता में अलग पहचान देती हैं। जहां तक मैंने पढ़ा है हिंदी के दो कवियों रघुवीर सहाय और दूसरे राजेश जोशी में ऐसा गुण दिखाई देता है।
अतः यह कहा जा सकता है कि सपाटबयानी (अखबारी भाषा) के स्तर से कविता को निकाल लाना एक कला है । यह कला अरूण कोलटकर को आती है।
अरुण कोलटकर की कविताओं की भाषा के विविध-स्तर पर जब हम, उन्हें जांचते-परखते हैं तो पाते हैं कि उनमें भाषा का नया समागम मिलता है। हिन्दी के प्रयोगवाद, एवं नई कविता में जिस प्रकार के शब्दों का चयन कवियों ने किया, कोलटकर ने उससे आगे जाकर आधुनिकता के धरातल पर भाषा को गढ़ा है।
(अरुण कोलटकर-फोटो स्रोत गूगल)
संदर्भ: –
1. चन्द्रकांत पाटील – आवेग (पत्रिका) की
सम्पादकीय – अंक -23 – पृ.सं – 6
2.चन्द्रकांत पाटील – आवेग (पत्रिका) की
सम्पादकीय – अंक -23 – पृ.सं – 6
3. चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 21&22
4.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 22&23
5.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 32
6.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 27&28
7.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 11
8.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं – 11
9.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं –20
10.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं –44
11.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं –16
12.चन्द्रकांत पाटील – अनुवाद- आवेग (पत्रिका)
– अंक -23 – पृ.सं –12
13.निशिकान्त ठाकार- अनुवाद- आलोचना (पत्रिका)- जुलाई-सितम्बर 2009-पृ. सं –23
कुमार सुशान्त शोधकर्ता और युवा आलोचक हैं,अनेक पत्र पत्रिकाओं में आपके आलोचना लेख प्रकाशित हुए हैं। अनेक सेमिनारों में आलोचनात्मक टिप्पणियां देते रहते हैं। संपादक के रूप में सम्पादित पुस्तक। नोटनुल डॉट कॉम पर इलेक्ट्रॉनिक बुक के रूप में और प्रलेक प्रकाशन से प्रिंट में प्रकाशित।
गीताश्री का कथा-संसार (आलोचनात्मक आयाम) नोटनुल डॉट कॉम पर इलेक्ट्रॉनिक बुक के रूप में प्रकाशित।
संपर्क : कुमार सुशान्त
17/2; रजनी कुमार सेन लेन
तल – द्वितीय, फ्लैट नम्बर – 203,
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