कविता के बारे में

अदनान काफील दरवेश

कमल मेहता

 

बहुत सारी रातें हैं यहां
जुगनुओं की तरह टिमटिमाती
कब्रिस्तान में
श्मशान में
बहुत सारी रात होगी
मेरी कब्र में
जिसमे छिपा होगा कोई न कोई
दिन का सुराग।

 

देश के साम्प्रदायिक माहौल के बीच एक बैचेन और बेदार कलमकार की भूमिका का निर्वहन करते, खानाबदोश गायक की तरह अपना संगीत साथ लेकर चलते से अदनान नई उम्मीद वाले कई चेहरों में से एक हैं। ऊपर लिखा उनकी एक कविता का हिस्सा निराशा के बीच उम्मीद की रोशनी दिखाता है मगर ऐसा हमेशा नही है कि वह अपनी कविताओं का समापन “हैप्पी एंडिंग” के रूप में करते हों क्योंकि हकीकत हमेशा ऐसी होती भी नही है और वो जिस रूप में हो उसे वैसा ही दिखाया जाना जरूरी है। अदनान अपने इसी तेवर के साथ एक चीज और ऐसी कर रहे है जिसकी भाषाई स्तर पर फिलवक्त बहोत जरूरत महसूस की जा रही थी, वो है हिन्दी-उर्दू के बीच निरंतर आवाजाही। जिसका परिणाम यह है कि
वे एक मिश्रित शब्दावली का इस्तेमाल करते दिखते है इस मामले में वे साहित्य के लिखित-अलिखित नियमो को ताक पर रखते मालूम होते है इसे भले ही हिमाकत कहा जाए या नयापन मगर इतना जरूर है कि यह शब्दावली अटपटी तो कतई नही लगती इसमें भाषायी संतुलन दिखाई पड़ता है।
अदनान कफील दरवेश एक युवा और संवेदनशील लेखक के तौर पर अपनी पहचान को दिनोंदिन पुख्ता करते जा रही है। वे 2018 में भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके है और उनके दो कविता संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके है। उनका पहला संग्रह “ठिठुरते हुए लैम्पपोस्ट” के नाम से प्रकाशित हुआ और दूसरा “नीली बयाज़” के रूप में। दोनों अपनी मिज़ाज़ के किताबे है, एक दूसरे के साथ चलती दिखाई देती है। ठिठुरते हुए लैम्पपोस्ट में प्रतिरोध का स्वर तो है ही मगर मानवीय संवेदनाओं के साथ मध्यमवर्गीय समाज को दर्शाया गया है जो उनके आसपास की पारिस्थितिकी को समेटता दिखाई पड़ता है। अदनान की ‘गमछा’ और ‘ढिबरी जैसी कविताको का विषय कितना साधारण मालूम पड़ता है,
मगर अदनान ने उसे गज़ब की असाधारणता के साथ लिखा है। जैसे-

 

– और मैंने महसूस किया
माँ के हाथ का दबाव
जो वैसे का वैसा ही
अभी भी गमछे में लिपटा पड़ा था
माँ का विदा में उठा हाथ
याद आया मुझे
और पिता का थका कंधा भी
जो अब गमछे के वज़न से भी
अक्सर झुक जाता था

 

इसी कड़ी में उनकी ‘पहचान’ कविता का ज़िक्र किया जाना जरूरी है जहाँ वे माँ को अलग तरीके से लिखते है। वे विस्मित
करते से दिखाई पड़ते है:-
– मेरे लिये जो पिता नही थे
वो ही माँ थी
इस तरह मैंने अंधेरे में
माँ को पहचाना सीखा
यहां पहली नज़र में यह कविता माँ को समर्पित को दिखाई दे सकता है मगर पिता का माँ से अलग और जरूरी अस्तित्व भी अदनान यहां दिखाते हैं।
कई कविताएं ऐसी है जिन्हें पढ़ते हुए लगेगा कि उन्हें केवल अदनान ही लिख सकते है जैसे उन्होंने कुछ वैसा जिया हो और उसे वे शब्द देना चाहते हों-
– दिन एक रोशन कब्र है यहां
और ज़िंदगी एक अफवाह हैं
उनकी कविताओं में ऐसे शब्द है जिनसे सबका परिचय है मगर लगता है उन शब्दों का जो संयोजन अदनान ने बनाया है वो उनके लिए कतई मुश्किल है जिन्होंने वैसा जीने की केवल कल्पना भर की है-
– हमारे कातिल !
हमारे दिलदार !
अब जीने की नही
मरने की रुखसत चाहते हैं
कोई ख्वाहिश नही, कोई शिकवा नही
बस इतनी इल्तिज़ा है आपसे
हमारी कब्रो में ही
अपने खंजर भी दफ्न कर दीजियेगा
अदनान अपनी बहुत से कविताओं में उस हिंदुस्तान का ज़िक्र करते है जहां साम्प्रदायिक ढांचा क्षीण था, एक वास्तविक
सेक्युलर ढांचा मौज़ूद था, मगर अब उसे ढांचे के ढह जाने के आहट सुनाई देती है जो उनकी कविताओं में भी दिखती है।विभाजन का दर्द तो जैसी सह लिया गया हो मगर अब अपने ही वतन में विस्थापितों से महसूस कराया जाना उन्हें लगातार अखरता है एक कवि के रूप में ही नही बल्कि सामान्य नागरिक के रूप में भी और ऐसा लाज़मी भी है। उनकी दो अलग अलग कविताओं के हिस्सों को पढ़िए-

 

1) वे अपने मुहल्लों और बस्तियों में भी
विस्थापितों की सी जिंदगियां बसर करने पे
मजबूर किये जाते हैं
उनके घरों को दंगो में सबसे पहले
आग लगाया जाता है

 

और सरकारी बुलडोज़रो से
सबसे पहले नीस्तो-नाबूत किया जा है।

2) अब हिंदुस्तान, एक अनोखा मदफ़न बन चुका है
जिसमे हर रात मैं और मेरे जैसे तमाम लोग
अपनी ही छोटी-छोटी कब्रे खोद रहे है।
इसी क्रम में आगे बढ़ते हुए अदनान उस गंगा-जमुनी तहज़ीब के लापता हो जाने को रेखांकित करते है या इस बात की तस्दीक करते हुए दिखते हैं कि शायद ऐसा कुछ था ही नही। उन्हें आज के माहौल को देखकर लगता है कि ये सब बुजुर्गों की कब्र पर उड़ती धूल थी जो अब बैठ गयी मालूम होती है। वे उस विश्वास के खो जाने का मलाल करते हैं जिसने लंबे खूनी संघर्ष के बाद भी उम्मीद बनाये रखी। वे लिखते है –

 

1) आज एक दोस्त से मुसाफा करते वक़्त
उसकी आस्तीन में छुपा छुरे का सिर चमक उठा
इससे पहले कि पुराने वक़्तों के याद के बाबत
दोस्त शर्मिंदा होता
मैं खुद शर्मिंदा होता
और मुस्कुरा दिया।

 

2) ऐसा नही है कि आप हमारे दोस्त नही रहे
बात बस इतनी है कि छत्तीस का पहाड़ा, छत्तीस का पहाड़ा है
और हमें किसी चीज स्व कोई उम्मीद नही रही

 

ये पंक्तियां अदनान या किसी और की भी होती मगर जो ऐसा माहौल बनाने के लिए जिम्मेदार है उनमें वे सारी खामोश आवाज़े भी बराबर की हिस्सेदार हैं जिन्हें सही समय पर निकल जाना चाहिए था। अपनी सामान्य अवस्था से इतर अगर चिल्लाना भी पड़ता तो भी उन आवाज़ों को बाहर आना ही चाहिए था। विश्वास की यह टूटती डोर अपने आखिरी चरम पर पहुंचने से पहले कोशिशें हों, यह जरूरी है। वे एक कविता में कहते है-
– इस बार लड़ाई शायद देर तक चले
और किसी को एतराज़ भी न हो
शायद कुछ अम्न के पैरोकार
अपनी अपीलों के बीच
लाज़मी तौर पर सिगार के लंबे कश ले
लेकिन अपनी इसी कविता का अंत वे उम्मीद के साथ कुछ इस तरह करते है-
– कि इंकलाबी मुर्दो के पास
वक़्त की कोई कमी नही होती
वे अपनी कब्रो में एक दूसरे से फुसफुसाएंगे

 

और यकीन जानिए
आपकी दुनिया मे तूफान उठाएंगे
छद्म प्रगतिशीलता की चादर ओढ़े रचनाकारों से देखा जाए तो पूरे साहित्य जगत को समस्या ही है लेकिन नए रचनाकारों के लिए ऐसे लोगो की पहचान किया जाना बहोत आसान नही है। वे उनसे सीखते है, उनकी शब्दावली से प्रभावित हुए जाते है, उन्हें सम्मान देते है, फिर कुछ यूं होता है उनका हकीकत से सामना-
– मेरे पांव से ज़मीन खिसक गई विश्वास नही हुआ कि कैसे मेरा प्रिय कवि
हत्यारो की ढाल बन सकता है
जी हुआ उसकी कविताएं जला दूँ
जिसे पढ़कर रोया था बार बार
फिर अचानक उसकी एक और कविता पढ़ी
और मन बदल लिया
कोई कवि इतना अदाकार कैसे हो सकता है कविता में
अब भी चकित हूँ।
अब तक इस लेख में जितना लिखा गया है उससे यह लग सकता है कि अदनान प्रेम कविताएं नही लिख पाते होंगे, मगर ऐसा नही है प्रेमी हृदय के बिना संवेदनशीलता का होना नामुमकिन है। ऐसी कुछ कविताओं के नमूने यहां पढ़कर लग सकता है कि जिसे अदनान संबोधित कर रहे हैं, जरूरी नही वो वास्तविकता में भी है, वह कल्पना में भी हो सकता है।
जैसे –

1) उदासी का मोम पिघलता है
अफ़्सुर्दा दिल बहल जाता है
शाम, जो यूं पहाड़ से लगती है
तुम्हारे साथ,
बहुत जल्द ढल जाती है।

 

2) अपनी बगल में दबाए
एक पवित्र किताब
मैं देखता हूँ तुम्हारी आँखों के
सफेद पठारों को
और सर्दियों की तरह खामोश हो जाता हूँ।

 

3) एक अदृश्य पुल उगता है हमारे बीच
जिस पर दौड़ता हूँ मैं
तुम्हारी शोले-सी लपकती आवाज़ की ओर

 

अदनान अपनी व्यवहारिक समझ को अपनी कविताओं में व्यक्त करते हुए बताते है कि धर्म की दीवारें ही इंसान को बांटने का काम करती है और इसमें सबसे बड़ा कारक है ईश्वर की संकल्पनाएं। जिसे वे बिल्कुल सहज शब्दो मे यूं लिखते है– कविता मेरा मुल्क है
जहां ईश्वरो का प्रवेश वर्जित है

 

कहा जाता है कि जो इतिहास के पन्ने दर्ज करना भूल जाये उसे कविताएं जगह देती है मगर ऐसा तभी मुमकिन है जबकवियों में उतनी ताकत बची रहे जो उन्हें गुनाहगारो और उनके सरपरस्तों की आंखों में आंखे डालकर खड़े होने लायक साबित हो-
– सहसा एक सामूहिक विलाप में
डूबती चली जायेगी कायनात की हर एक शै
इन सब वारदातों पर
कविता गवाही देंगी
अपनी आंखें मलते हुए

 

समकालीन मुद्दों पर लिखा जाना कितना जरूरी है इस बात को समझना बहोत मुश्किल नही हैं। इतिहास ऐसे असंख्य उदाहरणों से भरी पड़ी है। लेकिन यह हिम्मत के साथ साथ जिम्मेदारी का भी काम है। साफगोई के साथ लिखा जाना कई बार घातक हो सकता है इसलिए कई बार शब्दो को जादूगरी के साथ लिखा जाता है। मगर अदनान इसे बड़ी कलात्मकता और अलग पैटर्न के साथ आईने की तरह लिखते है। किसान आंदोलन के दौरान लखीमपुर घटना पर उनकी एक कविता का अंश पढ़ा का सकता है-

 

– जो लोग गाड़ी के नीचे कुचलकर मार दिए गए
वे नकली पुतले थे
यह सब जिस पर बावेला था
वो लोकतंत्र की कला थी
संत की कल्पना थी
इसे एक और कविता ‘अप्रैल’ के उदाहरण से भी देखा जा सकता है-
– दरमियान में चुनाव का नगाड़ा बजा
और फिर हंगामे और बद ज़बानियां
इस एक ने गुजरात के फसाद की याद दिलाई
हैरत है अब तक दंगे न हुए
बहरकैफ़ हम महफ़ूज़ रहे
कोई दिन और जी लेने की उम्मीद बंधी
अदनान ने अपनी हालिया किताब “नीली बयाज़” का समापन ‘आने वाले कवि से’ कविता के साथ किया है उसी के साथ
इस लेख का आखिरी हिस्सा लिखा जाना मुनासिब होगा –

– तुम्हे सब कुछ चाहिए होगा नए सिरे से
तुम्हे नही लड़नी होगी मेरी अधूरी लड़ाईयां
तुम्हे नही चुकता करने मेरे हिसाब
तुम्हारा दौर कोई और होगा
तुम्हारे मार्के कोई और होंगे

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