* All the legal application should be filed in Kerala, India, where the Kritya Trust is registered.
समाज का छद्म भाषा का हिस्सा कैसे बनता है, यह आज भी शोध का विषय हो सकता है। हर काल अपने साथ अपने हिस्से के छद्म को भी भाषा में दर्ज करता जाता है, और इतिहास आंख मून्द उसका अनुसरण करता जाता है। एक वक्त ऐसा आता है जब मुखौटे असली चेहरों का स्थान ले लेते हैं। यह परिवर्तन इतना गुपचुप होता है कि असलियत का पता लगाना लगभग असंभव सा हो जाता है। छद्मता जिन्दगी के हर हिस्से में होती है, लेकिन आश्चर्य तो तब होता है जब यह आध्यात्मिकता के मुखौटे को पहन कर आती है।
इस प्रक्रिया में न जाने कितने सहज भाव और मार्ग लोक से उठ कर, या फिर कहा जाए तो जमीन से उठ कर सभ्य माने वाले छद्म समाज का हिस्सा बनते जाते हैं। लोक या जमीन में इतनी शक्ति होती है कि वह अनायास नव-नवीन भावलोक को स्थान देती जाती है, और भरकस अपने को असहजता या कृत्रिमता से परे रखती जाती है। सांस्कृतिक इतिहास की छात्रा होने के कारण मैं ऐसे कई रूपों को पहचानने की कोशिश करती आ रही हूँ। उच्छिष्ट का गणपति और फिर गणेश के रूप में स्थापित किया जाना, व्रात्य का शिव के रूप में अवतार इसी अध्ययन का विषय है। आजकल मैं अनुभव कर रही हूँ कि जहाँ कहीं भी जाओ, रेल गाड़ी, हवाई जहाज या किसी तथाकथित सभ्य समाज के सम्मेलन में, अनेक जन आध्यात्मिकता की इस तरह बात करते मिल जाएंगे कि लगेगा कि पूरा कि पूरा देश एक विचित्र आध्यात्म के घर में प्रवेश कर रहा है। ये परा आध्यात्मिक जीव बकायदा ब्यूटि पार्लर और योगा (योग नहीं)में एक साथ दीक्षा लेते हैं, हाथ में सुरा का ग्लास लिए घण्टों आत्मा परमात्मा, कर्म- अकर्म पर चर्चा कर सकते हैं। इन जीवों को देख मैं अभिभूत हो रही हूँ, कुछ भयभीत भी…. हालाँकि जानती हूँ कि यह छद्मवाद अगले किसी वाद के आने के बाद गुब्बंरे सा फूट जाएगा। मुझे भय तो बस यह है कि कहीं हमारी कविता की जमीन न भरभरा जाए, कही हम अपने को पहचानना ना भूल जाएँ, कहीं हम अपने से ही बात करने लायक ना रह जाएँ। ऐसा नहीं कि हमारे साहित्य में भक्ति या आध्यात्मिकता का कोई स्थान नहीं है। हमारे बेहद महत्वपूर्ण कवि इसी जमीन पर उगे हैं, लेकिन उनका आध्यात्म एकान्तवासी या दिखावटी नहीं था। वे अपने लिए नहीं समाज के लिए मार्ग खोज रहे थे, उनमें कृत्रिमता नहीं थी। मीरा, हब्बा, अक्का, लल्लेश्वरी , कबीर , निपत निरंजन और मिलारेपा सभी का आध्यात्म समाजिक समर का हिस्सा था।
लेव क्रोपिव्नीत्स्की की ये पंक्तियां मुझे बताती हैं
बेकार है पांडित्य
भविष्यवाणी के लिए प्रसिद्ध
इस प्राचीन मन्दिर में
हर चीज के लिए
हर चीज के विषय में
कठोरता का हताश दर्शन।
फिर पूछा ही क्यों जाता है
प्रतिभाहीन दैत्यों के परम हर्ष का रहस्य?
बेकार, अर्थहीन (ऐसी व्याख्याएँ हुई हैं)-
प्रकट होगी घास
या कुछ और नया
फोन करना कभी भी।
और मैं भी कवि की तरह देखने लगती हूं-
चारों तरफ देखता हूं-
शान्ति और प्रगति की राजधानी।
सर्वाधिक बुद्धिमान विचारों का प्रवाह,
एक पूरी फौज
असैनिक वर्दी में साठ लाख मंदबुद्धि लोग,
उत्पादन का साधन तलवार।
कृत्या के इस अंक से हमे दो युवा साथियों का सहयोग मिलना आरंभ हुआ है, वे हैं संतोष कुमार और कमल मेहता। यही नहीं कमल मेहता हर अंक किसी न किसी युवा कवि के साहित्य कर्म प्रस्तुत करेंगे। वे हिन्दी और हिन्दी इतर भाषा के हो सकते हैं। इस अंक में विहाग वैभव के काव्य कर्म पर लिख रहे हैं। संतोष कुमार अनुवाद के साथ साथ प्रूफ रीडिंग में सहायता कर रहे है। बृजेश कुमार जुड़े ही हैं, आशा है भविष्य में अन्य युवा सहयोगी सहयोग
करेंगे। निसन्देह इस का
ल में कविता एक मानसिक जरूरत थी।
आशा है यह यह अंक सबको पसंद आएगा
शुभकामनाएं
रति सक्सेना