
मेरी बात
कविता क्या है? या क्या है कविता का सच ? इस मुद्दे पर चर्चा होना नई बात नहीं है। हर काल और समाज का अपना मन्तव्य होता है। आज के दौर में जहाँ बुद्धिजीवी समाज कविता को समाज के आसपास देखना चाहता है तो वहीं समाज का जनसामान्य हिस्सा फिल्मी रोमान्टिक कविता से प्रभावित दिखता है। आलोचक कहता है कि वह कविता अच्छी है जिसमें पसीने की गंन्ध आती हो, कोई सन्देह नहीं जमीन से जुड़े लोगों के साथ जुड़ी कविता की अपनी अहमीयत है, लेकिन जमीन से क्या आदमी ही जुड़ा है? जमीन जितनी आदमी की है, उतनी ही पेड़- पौधों, कीड़ों- मकोड़ों की है, उतनी ही चींटी- चिड़िया और चील की है। ऐसा नहीं कि आदमी ने इन को विषय नहीं बनाया, तितली, चिड़िया, फूल- पत्ते तो शुरु से कविता का विषय रहे हैं, हाँ कीड़ों- मकोड़ो को सकारात्मक स्थान नहीं मिल पाया। लेकिन आज की कविता में से धीरे- धीरे फूल- पत्ती, चिड़िया बादल अलग हो रहे हैं, होना भी चाहिये, हमे अपने असली संसार के लिए जगह जो चाहिये। वह संसार जहाँ हम रहते हैं, कितने पेड़ बचे हैं जो शहरों में चिड़ियाँ चहचहाएंगी। कितने फूल हैं जो तितलियाँ मंडराएगी। यदि कुछ है भी तो वह इतना दिखावटी कि चिड़िया की चहचहाहट भी नकली बन जाए।
जब मैं कालडि विश्वविद्यालय में थी, मैंने यह महसूस किया कि काफी कुछ था जिसे मैं भूल चुकी थी, या फिर मैं जानती ही नहीं थीं। जैसे कि दरख्तो का एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर खड़ा होना, कभी- कभी बतियाना, या फिर चिड़ियों का हवा में वैसी ही अठखेली करना जैसा कि पानी में मछलियाँ करती हैं,पहले पंखो॓ को पटकते हुए ऊपर उठना, फिर पंख पूरे फैला कर तैरते हुए से लम्बी उड़ान भरना, फिर अचानक बीच रास्ते मं पंख सिकोड़ धप्प से किसी डाली पर कूद पड़ना।
कबूतरों को ज्यामित्री का इतना ज्ञान कि वे सब जब एक साथ उड़ान भरते हैं तो लगता है कि नाप-तौल कर उड़ रहे हों। शाम को जब सारी चिड़ियाँ किसी एक दरख्त पर बैठ जोंर जोर से गला फाड़ टिटयाती हैं, तो लगता है कि ना जाने कितने मंजीरे एक साथ बज रहे हों, और भी न जाने कितने नजारे जो मैं भूल चुकी थी, या जानती ही नहीं थी। तभी मुझे महसूस हुआ कि ये सब नजारे उतने ही सच हैं, जितनी सड़क पर एक दुर्घटना, या फिर ऐसी ही कोई कड़वाहट, लेकिन चिड़िया, फूल, बादल पर कविता न करना मेरी बाध्यता बन गई है। क्यों कि यदि मैंने इन सब पर लिखा तो मुझे कवियों की जमात से देश निकाला मिलने में वक्त नहीं लगेगा, मुझे परम्परावादी या ना जाने कितने आभूषण मिल सकते हैं। मुझे याद है कि एक नामी कवि, सम्पादक ने मुझ से कहा था कि आपकी कविता का विषय मछुआरिने, या ऐसे ही गरीब तबके की स्त्रियाँ और उनके दुख- दर्द होने चाहिए,मध्यमवर्गी औरते नहीं। तब मैंने उन्हे जवाब दिया था कि, मैं मछुआरिनों को सलाम करती हू , क्यों कि जैसी निर्भीकता हम मध्यमवर्गी औरतों में कहाँ, किन्तु मैं उसी दर्द को ही तो ईमानदारी से प्रकट कर सकती हूँ जिसे मैंने किसी ना किसी रूप में अनुभूत किया है। जिसके बीच में से मैं गुजरी हूँ, मुझे याद है, तब से उन महान कवि, सम्पादक से मेरा सम्वाद टूट गया।
अब मैं फिर सोच रही हूँ.. आखिरकार कविता है क्या?, क्या कविता का सच?
यह सवाल मेरे लिए आज भी उलझा हुआ है, कृत्या शायद इन्हीं सवालों को सुलझाने की कोशिश का नाम है।
रति सक्सेना