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युद्ध शब्द से जितना हम भयभीत होते हैं, उतना ही हम उसे अपने करीब पाते हैं। मानवता के इतिहास में शान्ति से पहले युद्ध प्रधान रहा है, सर्वप्रथम प्रकृति की दुर्गमता से युद्ध, फिर सहजीवों से युद्ध, और फिर समूहों और उन समूहों के कबीलों में युद्ध। यहां तक युद्ध स्व अस्तित्व को बचाये रखने के लिए था, लेकिन इसके उपरान्त जब मानवीय समाज में स्थिरता आई, सुरक्षित स्थान पर बसेरा बनने लगा तो युद्ध के कारण लालच अथवा घृणा हो गए। ये भावनाएं मानव के मन मे स्वतः उपजी थीं, इनमें प्रकृति का हाथ नहीं था। अन्य जीवों में इन भावनाओं का अतिरेक नहीं था। प्राचीनतम इतिहास युद्धकालीन स्थिति का गवाह है़।
ऋग्वेद के बीस प्रतिशत से अधिक सूक्त युद्ध गीत हैं, जिनमें या तो इन्द्र का यौद्धा के रूप में महिमा गान है, अथवा युद्धों में देव शक्तियों के सहयोग की कामना है। यूरोप महाद्वीप का इतिहास तो लम्बे काल तक युद्धप्रधान रहा है। युद्ध के कभी कारण रहे हैं तो कभी बिना कारण मात्र अहंकार के लिए लिए भी युद्ध किया जाता रहा है। सिकन्दर को युद्ध की जरूरत सिर्फ अपने अहंकार की पुष्टि के लिए थी। चिंगेज खां के लिए युद्ध विजेता की अहंकार के अतिरिक्त अपने कबीलों को बांधे रखने के लिए था। मानव जितनी उन्नति करता गया उतना ही युद्ध से जुड़ता गया। यहां तक ही लगभग हरेक देश ने युद्ध के साजो सामान का जखीरा खड़ा कर लिया।
कहा जाता है कि इस वक्त विभिन्न देशों में इतना विस्फोटक सामग्री है कि कुछ मिनिटों में दुनिया खत्म हो जाए। हम सब यह जानते हैं, फिर भी दुनिया में युद्ध खत्म नहीं हुआ है। यहां तक जब दुनिया भयानक वायरस से जूझ रही थी, युद्ध की छाया बनी रही, उक्रेन का युद्ध साल भर से खत्म नहीं हुआ कि फिलिस्तीन इजराइल का युद्ध आरंभ हो गया।
जो युद्ध में लिप्त होता है, वह किसी न किसी पक्ष में होता है, अर्थात् युद्ध विरोधी स्थिति में कदापि नहीं होता है, और जो दूर से देखता है, वह कभी मात्र दर्शक होता है, अथवा कभी भागीदार भी। युद्ध का विरोध पूर्णतया तभी संभव है जब युद्ध की विद्रूपता को रेखांकित कर समझा जाए। युद्ध की त्रासदी आगामी बहुत बड़ी पीढ़ी को बुरी तरह से प्रभावित करेगी। यानी कि युद्ध आने वाली दुनिया को गलत सीख दे कर जाता है, जख्मों के साथ मन को भी सालता है।
यही कारण है कि युद्ध जिसमें तानाशाही साम्राज्य की मनमानी हो, दुखदायी है।
युद्ध के विरोध में आवाज़ उठाते हुए
रति सक्सेना