मेरी बात.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कविता को लेकर इन दिनो मुझे अजीब अनुभव हो रहे हैं, एक और तो मुझे समकालीन कहानी में भी कविता दिखाई दे रही है, दूसरी और साहित्य से जुड़े लोग भी कविता से जुड़े दिखाई नहीं दे रहे हैं। एक दो बार स्पष्ट रूप से सुनाई दिया, “नहीं मैं कविता नहीं पढ़ता”, कहने वाले साहित्य के लेखक और पाठक थे।
मुझे सोचना पड़ता है कि कविता से जुड़ाव कम हो रहा है, या फिर लोगों में कविता की समझ कम हो रही है?

 

घनत्व की बात करें तो कविता का लिखना बन्द नहीं हुआ, अच्छी बुरी किसी भी तरह की कविताएं लगातार लिखी जा रही हैं। तो पढ़ी क्यों नहीं जा रही हैं?

 

कविता का ज्यादा लिखा जाना हर काल में रहा है। कमजोर कविता हर काल में लिखी जाती रही हैं, वे अपने आप खर पतवार की तरह खत्म भी हो जाती हैं, लेकिन कविता हमेशा साहित्य की मुख्य धारा में रही है, या यह कहा कि कविता साहित्य की भाषा ही कविता रही है। इसलिए समकाल में कविता के प्रति उदासीनता अचम्भित तो नहीं लगती, लेकिन तकलीफदायक अवश्य लगती है।

 

एक कारण यह माना जा सकता है कि आज के तकनीक प्रधान काल में मनोरंजन के लिए बेहद सहज माध्यम सरलता से उपलब्ध हैं। कविता मानसिक व्यायाम मांगती है, और सरलता मानसिक रूप से पंगु बनाती है।

 

यह भी हो सकता है कि हमने कविता पर बड़े दायित्व लाद दिए हैं, यानी कि कविता में विरोध की भावना प्रबल हो, अथवा कविता में प्रकृति हो, या फिर कुछ अन्य नियम। बहुत से नियम से बंध कर कविता की गति मंथर बन जाती है, और कभी-कभी प्रमुख तत्व खो जाते हैं। कविता का सबसे प्रमुख तत्व है कि वह हृदय से उपजी हो, उसमें वैचारिकता हो, लेकिन बोझिल शब्दों से भरी नहीं, अपितु वैचारिकता हृदय के भावों में घुलने के बाद प्रस्तुत हो तो

पाठक के भी दिल में उतरेगी।

हो सकता है कि यह विषय ऐसा हो, जिस पर संवाद की अपेक्षा हो, यह समझना भी जरूरी है कि स्थान और काल के अनुरूप कविता में कौन से परिवर्तन अपेक्षित है, ये परिवर्तन किस तरह से लाए जाए।

 

कविता फिलहाल चिन्तन की अपेक्षा रखती है।

रति सक्सेना

 

 

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