हमारे अग्रज
‘
मान्योशु’ जापानी कविता
अनुवाद और टिप्पणी-रीतारानी पालीवाल
ये कविताएँ इस अर्थ में आज भी अर्थवान हैं कि अपनी सर्जनात्मकता से ये हमारे संवेगों, संस्कारों और स्मृतियों को प्रभावित करती हैं। इतना ही नहीं इनमें इतिहास के भीतर, समय और समाज के भीतर चलने वाले अनगिनत अंतर्द्वन्द्वों , आशाओं, आकांक्षाओं के साक्षी बनने का अरमान मौजूद है। रचना की चरम उपलब्धि यही है कि वह अपने रचनानुभव से पाठक को समृद्ध करती है। इसी भावना के साथ ये कविताएँ आपके हाथों सौंपना चाहती हूँ। विषय एवं संवेदना की विविधता की दृष्टि से ‘मन्योशु’ का प्रतिनिधित्व हो सके इस बात को ध्यान में रखते हुए यहाँ सभी वर्गों के कवियों की कविताएँ ली गई हैं। मूल कविता के साथ-साथ उसके स्त्रोत, लेखक परिचय, संबद्ध ऐतिहासिक घटना, दंत कथा, प्रथा, विचार आदि संबंधी टिप्पणी का भी अनुवाद किया गया है। प्रत्येक टिप्पणी के पश्चात कोष्ठक में यह भी उल्लेख किया गया है कि कविता किस खंड से ली गई है। इस अनुवाद में कैनेथ यासुदा के अंग्रेजी अनुवाद लैंड आफ दि रीड प्लेन्स को आधार बनाया गया है।
उचित के विस्तृत समतल इलाके में
आगे बढ़ते घोड़ों की कतार
भोर की इस बेला में-
सोचती हूँ वे घोड़े की पीठ पर सवार…
गुजर रहे होंगे तृण-संकुल घास के मैदानों से।
यह कविता सम्राज्ञी कोग्योकु (594-661) की लिखी मानी जाती है। सम्राट जोमेइ सन् 641 में उचि के मैदानों में शिकार-अभियान पर गए थे। उसी अवसर पर सम्राज्ञी ने अपने पति को एक लंबी कविता लिख कर भेजी थी। प्रस्तुत कविता उस लंबी कविता का उपसंहार है।
(1:4)
रंग-बिरंगे झंड़ों की तरह
आकाश में तिरते बादलों पर
दूर समंदर पार,
चमक रहा है अस्त होता संध्या का सूरज…
आज रात चाँद भी स्वच्छ रहेगा शायद।
यह कविता सम्राट तेन्जी (613-671) ने उस समय लिखी थी जब वे युवराज थे। इसे तीन झगड़ालू पर्वतों की दंतकथा पर आधारित एक कविता के दूसरे उपसंहार के रूप में दिखाया गया है। लेकिन यह भी माना जाता है कि संभवतया यह एक स्वतंत्र कविता रही हो।
(1:15)
समय बीतता जाता है
होने को है आधी रात
हंसों के उड़ने की आवाज सुनाई देती है
आकाश-मानो वह सागर हो
जिसमें चाँद अपना जलपोत ले निकल पड़ा है यात्रा पर।
यह कविता ‘होतोमारो संग्रह’ से ली गई है। इस वर्ग की कविताओं के रचनाकारों का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है। हालाँकि इनमें से बहुत-सी कविताएँ फुजिवारा युग के एक निम्न ओहदे के पदाधिकारी काकिनोमोतो हितोमारो द्वारा लिखी गई हैं। वह सर्वश्रेष्ठ मान्यो कवि माने जाते हैं। आगे आने वाली पीढ़ियों में वे ‘कविता के संत’ के नाम से विख्यात हुए। उक्त बहु-प्रशंसित कविता का वैशिष्ट्य किसी भी प्रकार के अलंकरण अथवा उक्ति- कौशल के बगैर अपनी सहजता, ओजस्विता एवं सादगी में है।
(9:1701)
पूरब की हरी पहाड़ियों के पीछे
झाँक उठी प्रभात की अरुणिम आभा
मंद, मधुर, दीप्ति से झलकती
देखता हूँ पीछे मुड़कर आकाश को
जहाँ धुँधला हो ढलता जाता है चाँद।
‘मन्योशु’ की श्रेष्ठतम कविताओं में से एक, यह कविता रचनाकार हितोमारो द्वारा 707 में लिखी गई एक लंबी कविता का उपसंहार है।
(1:48)
हिकुमा के मैदान में
फूल उठे हैं ‘हागिजोकु’
उनके बीच से निकलोगी जब
तुम्हारी यात्रा के प्रमाण-स्वरूप
रंग जाएँगे तुम्हारे वस्त्र सुगंध भरे उन फूलों के रंग में।
अवकाश-प्राप्त सम्राज्ञी जितो की सन् 702 में मिकावा प्रांत के लिए शाही यात्रा के अवसर पर राजकुमार नागा ओकिमारो द्वारा रचित। ‘हागिजोकु’ लेस्पेदेजा नामक फूल का जापानी नाम है।
(1:57)
काश! जानती मैं
तुम्हारी इस यात्रा से पहले मेरे स्वामी!
कि तुम आओगे-
तट की लाल मिट्टी से तुम्हारे लिए
रँग कर रखती वस्त्रों का एक जोड़ा!
‘सुमिनोए की एक लड़की द्बारा’ सन् 699 में राजकुमार नागा को भेंट की गई कविता। अनुमानतः राजकुमार नागा सम्राट तेम्मु के चौथे पुत्र थे। यह लड़की अति-साधारण वर्ग की थी, यद्यपि कविता के शब्द दोनों के बीच काफी घनिष्ठता प्रकट करते हैं।
(1:69)
ओ मेरे प्रिय,
बीत चुके हैं कितने दिन
तुम्हारे चले जाने के बाद
सोचती हूँ मैं ही चल कर खोजूँ तुम्हें
नहीं रह सकती और अकेली अब मैं!
सम्राज्ञी इवा-नो-हिमे द्वारा रचिता। सम्राज्ञी इवा-नो-हिमे परोपकारी सम्राट निन्तोकु की पटरानी थीं। प्रिय के विरह में सम्राज्ञी द्बावा मिलन की आकांक्षा व्यक्त करते हुए लिखी गई चार कविताओं में से एक यह कविता मन्योशु कि प्राचीनतम कविताओं में से एक है।
(2:90)
कह देना प्रियतमा से
लालायित हूँ मिलने को मैं
सड़क किनारे घास पर टहलता हुआ हर रोज
जब तक धुंधलाकर शाम
स्याहं नहीं हो जाती शीत के झुलसे मैदान-सी।
यह कविता ‘कोकाशु’ से ली गई है। इस कविता में प्रतीक्षारत प्रेमी के उद्गा व्यक्त हुए हैं। ऐसे मनोभावों की कविताएँ विरल ही हैं क्योंकि पारंपरिक जापानी पौरुष, या कहना चाहिए कि एशियाई पौरुष की दृष्टि से प्रेम की विकलता की अभिव्यक्ति एक तरह की कमजोरी हैं।
(11:2776)
कुदारा के मैदान में
होगिजोकु की
मुरझाई डालों पर
वसंत के आगमन की प्रतीक्षा में-
उगुइसु ने गीत गाया है क्या?
यामाबे अकाहितो द्बारा लिखित। हितोमारो के साथ अकाहितो को भी ‘कविता का संत’ कहा जाता है, उनकी प्रसिद्धि सुस्पष्ट, चारु, लययुक्त प्रकृति संबंधी कविता के लिए है। उगुइसु जापान की बहुत सुरीली आवाज वाली चिड़िया है। अंग्रेजी मे इसे ‘नाइटिंगेल’ अनूदित किया जाता है। हिन्दी में हम इसे ‘कोयल’ भी कह सकते हैं।
(8:1431)
पीले गुलाब
फिर से खिलेंगे जल्दी ही,
खिले फूलों की परछाई दिखेगी
कामुनाबि झरने की धारा में
सुनाई देती है जहाँ मेढकों की सुरीली तान अभी।
राजकुमार आत्सुमि (उत्तर नारा युग) द्बारा लिखित। जापानी लोग मेढक की आवाज को सुरीला मानते हैं क्योंकि पश्च कंठ्य ध्वनियों (-guttural sounds) का जापानी सौन्दर्य- बोध में विशेष महत्व है। क्लासिक जापानी नाटकों (नोह, काबुकी, बुनराकु आदि) में कथा गायन एवं संवाद प्रस्तुति भी आवाज के पश्च कंठ्य स्वर में की जाती है।
(8:1435)
पहाड़ी नदी की प्रबल वेगवती धारा
उछलती-गरजती-थिरकती-बहती…
युत्सुकि पर्वत के
उच्च शिखरों के पीछे आकाश में खेलते
उठते-घुमड़ते बादलों के टुकड़े।
हितोमारो द्वारा रचिता उनकी कविता की प्रधान विशेषताएँ- ओज, औदात्य, भव्य, गाम्भीर्य- यहाँ मौजूद हैं।
(7:1088)
सुनाई पड़ती हैं आवाजें
सैनिक यौद्धाओं के अस्त्रों के टकराने,
भुजा कवचों के तड़कने की,
सेनादलों के महानायक शायद
व्यवस्थित कर रहे हैं रणभूमि में ढालों को…!
सम्राज्ञी गोम्यो (661-721) द्वारा 708 में रचिता इस कविता में संभवतया 709 में एइनु आदिवासियों से संघर्ष के लिए भेजे गए सैन्य अभियान की तैयारी का संदर्भ है।
(1:76)
हे महाबलशाली पराक्रमी सम्राट!
डूबो मत इतनी गंभीर चिन्ता में
क्या नहीं भेजा है देवताओं ने मुझे
तुम्हारी सहायता के लिए?
सम्राज्ञी गोम्यो की बड़ी बहन राजकुमारी मिनाबे द्वारा 708 में रचित यह कविता पिछली कविता (1:76) के सामानांतर लिखी गई है।
(1:77)
श्रद्धा से पालन करते हुए
महाराज की आज्ञा
उनके महाबली जहाज पर
हरेक ऊपरी पेरज पर दोनों तरफ से चप्पू चलाते
चलते जाते हैं हम सागर तटों की ओर।
इसोनोकामि (इसो के सामंत) द्वारा रचिता यह संभवतया एचिजेन के राज्यपाल रह चुके इसोनोकामि ओतोमारो थे।
(3:368)
आसाका पहाड़ी की परछाई को
इतनी दूर से अपने जल में
स्पष्ट झलकाता
पर्वतीय सोता उथला है-
पर नहीं है उथला मेरा हृदय!
‘एक पूर्व परिचारिका’ द्वारा रचित एक आशु कविता। यह राजकुमार कात्सुराकि (ताचिबाना मोरोए, 684-757) के क्रोध के उपशमन के लिए सुनाई गई थी। एक प्रांतीय शासक से ठंडा सत्कार पाने के कारण राजकुमार क्रुद्ध हो गए थे। तब इस कविता के माध्यम से उस परिचारिका ने राजकुमार को उपस्थित सभा-जनों में उनके प्रति सम्मान एवं स्वामिभक्ति का आश्वासन दिलाया। सोते के उथलेपन और आसाका पहाड़ी तथा उथले (ओछे) हृदय के द्वारा श्लेष की सृष्टि करके प्रभाव पैदा किया गया है।
(16:3807)
आनंदमयी है शस्य श्यामला
हमारी यह राजधानी नारा-
महिमा संपन्न अपने
सौन्दर्य के चरम शिखर पर
मानो उपवन हो कोई सुगंधित पुष्पों का!
ओनो ओयु द्वारा रचिता नारा पर लिखी गई श्रेष्ठ कविताओं में से एक मूल कविता में मन्योशु की प्रधान विशेषता प्रत्यक्ष, सहज, परिमार्जित किन्तु दृढ़ अकृत्रिम प्रगीतात्मकता से संपन्न है।
(3:328)
आ गया है वसंत
सुंदर किरमिजी खुशबूदार-
अड़ूचे के फूलों से जगमग है बगीचा
सौरभ पराग से आलोकित वीथि में
चहल-कदमी करती एक सुंदरी…!
ओतोमो याकामोचि (718-85) द्वारा रचिता याकामोचि एक प्राचीन शक्तिशाली कुल के वंशज थे। वह एक मेधावी कवि और मन्योशु के अंतिम संग्रहकर्ता थे। उनकी रचनाओं में अद्भुत ओज और कवि व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है। यह मार्च, 750 में लिखी गई दो कविताओं में से एक है। प्रफुल्लता एवं ऐन्द्रिय बिम्बों से दीप्प यह कविता मन्योशु की सुप्रसिद्ध कविताओं में से एक है।
(19:4139)
सेंदुरी, नील लोहित चरागाहों के बीच
रस्सों से बाड़-बंदी किए खेतों के बीच
इधर से उधर तक जाते-आते
पहरेदारों ने देख न लिया होगा क्या?
आह! वह संकेत जो किया था तुमने बाँह हिलाकर मुझे!
राजकुमारी नुकादा द्वारा रचिता नुकाद अपने समय की सर्वश्रेष्ठ कवयित्री मानी जाती हैं। सम्राट तेन्जी उन्हें बहुत पसंद करते थे। 5 मई, 668 को वह उनके साथ शिकार अभियान पर गई थीं। उसी अवसर पर उन्होंने यह कविता लिखी थी। यह कविता सम्राट के भाई को संबोधित है- यह बात इस कविता में संकेतित सावधानी से स्पष्ट हो जाती है। आगे चलकर सम्राट के यह भाई सिंहासन के उत्तराधिकारी हुए। वे सम्राट तेम्मु के नाम से सिंहासनारूढ़ हुए और राजकुमारी नुकादा की पुत्री के पिता बने। कवयित्री निश्चय ही अत्यंत आकर्षण-युक्त एवं प्रतिभाशाली रही होंगी।
(1:20)
चटख और किरमिजी लाल मेरे वस्त्र
लहराते हुए फैले हैं उस पथ पर
जो बना हुआ फासला हमारे बीच
करूँ मैं तय यह फासला तुम तक पहुँचने को-
क्या न करोगे तुम इसे तय मुझ तक आने को?
प्राचीन संग्रह ‘कोकाशु’ से ली गई कविता।