हमारे अग्रज
शंख घोष (बांग्ला )
अनुवाद — मीता दास
शिशुओं ने भी जान लिया है
वह दिन कितना अभागा दिन था
जिस दिन शिशुओं ने जान लिया कि
पेड़ कभी बोल ही नहीं सकते
और सात भाई चंपा को पुकार भी नहीं दे सकते
और कह भी नहीं सकते पारुल बहन वाली परिकथा
वह दिन कितना अभागा दिन था
जब सीने के भीतर भागता फिरता है टूटे बाँध का पानी
पर आँख उसे लौटकर आने को पुकारती तक नहीं
सिर्फ हजारों आतिशबाजियों की शोभा बनते रह जाते हैं
और शून्य के गव्हर में टूटकर अंधे बन देख रहे हैं
पत्थर के चेहरे की कोई तस्वीर नहीं होती पर
पत्थर में चेहरे की तस्वीर खुदी होती है
वह दिन कितना अभागा दिन था
उस दिन जब गर्जन*१ वृक्ष के नीचे
भूलवश सूखे ही खड़े थे निःस्वप्न से
प्रतिमा और पेड़ बोल नहीं सकते
कोई बोल नहीं सकता आपस में
इस बर्फीले घर में
वह दिन कितना अभागा दिन था
उस दिन जब चंपा को सीने से लगा कर
पुकार भी नहीं सकी थी कोई पारुल
और शिशुओं ने भी जान लिया था
वह सभी बातें | |
०००००००
बंदी जीवन
अनुवाद — मीता दास
सोचते हो करुणा माँगा है ? तुम सब का समर्थन माँगा है ? गलत ।
ह्रदय में अनुमोदन के लिए अब कोई इंतज़ार नही
उसे पता है गलतियों की सीमा , उसे विध्वंश की सूची भी पता है,
वह चेहरा हो जायेगा भस्म जान लेता है वह इन हाथों से छू कर ।
तब होगी बातें किसकी ? किसी के संग नही । यह केवल
जिस तरह बंदी जीवन को सीने में दबा कर
एक कोठरी में बैठा रहता है ।
दिनों और रातों के चिन्ह अंकित कर रख छोड़ता है दीवार पर
उसी तरह ही दिनों को गिनकर जाएगी रातों में नोच खाना दिमाग
लोहे में लोहे की ध्वनि जगाना और बजाना विफलता को ।
जो देखता है वही देखता है सिर्फ एक ही है जो अपने सिर के बालों को खुला छोड़कर
सभी के पिंजर को दबाकर खड़ा है योग्य रस लिए
यह केवल उसी का नाच है वलय में वलय की तरह बुनता
——— यदि , कह सको इसे ही अच्छा तो अच्छा है नही तो नही ।
००००००००
कठपुतली नाच
अनुवाद — मीता दास
तब क्या यह निश्चित हो गया कि दसों उँगलियों से तुम
धागों के सहारे मुझे लटकाओगे
और मुझे गाना पड़ेगा हुकमानुसार गीत ?
तब क्या यह निश्चित हो गया कि बरसते पानी में भी रथ के मेले में
तुम सब के सामने बुलाओगे मुझे , ” आओ
मौत के कुएं में कूद जाओ ? ”
मेरे कदम – कदम पर थी मुक्ति , और सहज ही थी मेरी आवाजाही
इस गली से उस गली
मेरा चलना था मेरा निजी , इसलिए किसी में मुझे कभी नही लिया मोल { खरीद }
ऐसे वक़्त में तुम दूषित हाथ बढाकर जो चाहो वह स्वाधीनता से
खैंच रहे हो अदृश्य से
तब क्या यह निश्चित हो गया कि मेरे ही मुँह में ठूँस दोगे
आदिमाता व नग्नता के प्रतिमान ?
००००००
पत्थर
अनुवाद — मीता दास
पत्थर , दिन पर दिन उठायें हैं मैंने सीने पर
पर आज उन्हें उतार नही सकता !
आज अभिशाप देता हूँ , कहूँ सब भूल थी उतर जा उतर जा
फिर से शुरु करना चाहता हूँ
उठ खड़े होना जिस तरह से उठ खड़ा होता है मनुष्य
दिमाग से गायब हैं दिन और हाथों के कोटर में लिप्त है रात
कैसे आशा कर लेते हो कि बूझ ही लेंगे तुम्हारा मन
पूरे शरीर के अस्तित्व को घेर
नवीनता कभी नही जागी
हर पल सिर्फ जन्म हीन महाशून्य से घिरा रहा
पर यह किसकी थी पूजा इतने दिनों तक ?
हो जाओ अब अकेले निरा अकेले
आज बेहद धीमे स्वर में कह रहा हूँ तू उतर जा उतर जा
पत्थर , देवता समझकर उठाया था सीने में , पर अब
मुझे तेरी सारी बातें पता हैं !
००००००
राह
अनुवाद — मीता दास
राह कोई नही देता , राह खुद बना लीजिये
देख रहा हूँ महाशय बहुत ही शौकीन हैं ——
चश्मा लगाकर उतर आया
टहलते हुए उतर आया
सारा भुवन झुक गया भुवन नैया के चरणों पर
लौट जाऊँ , लौट जाऊँ , पर लौटूं किस तरह ?
एक राह दूसरी राह तीसरी राह कौन सी राह
राह कोई नही देता , राह बना लीजिये ।
तीसरी राह चौथी राह , सब राहें हैं समान
रह बना लीजिये ।
एक राह दूसरी राह
दूसरी राह एक ही राह
कोई राह नही देता , राह बना लीजिये
।
०००००००
शंख घोष (जन्म चित्तप्रिय घोष ; 5 फरवरी 1932 – 21 अप्रैल 2021, वे और साहित्यिक आलोचक थे।,उनका जन्म तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी , वर्तमान बांग्लादेश के चांदपुर जिले में हुआ था। उनका पैतृक घर बरिसाल जिले के बनारीपारा उपजिला में था ।
शंख घोष ने बंगाली कविता की दुनिया में बहुत बड़ा योगदान दिया। ‘दिन और रातें’, ‘बाबर की प्रार्थना’, ‘विज्ञापन में चेहरा ढका हुआ’, ‘गंधर्व कविताएँ’ उनकी उल्लेखनीय कविता पुस्तकें हैं। हालाँकि शंख घोष को शुरू में एक ‘कवि’ के रूप में जाना जाता था, लेकिन उनकी गद्य रचनाएँ बहुत हैं। उन्होंने कविता और गद्य को मिलाया है। वे एक प्रख्यात रवींद्र विशेषज्ञ थे, जिन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के ‘ओकाम्पोरे रवींद्रनाथ’, ‘ए अमीर अवारन’, ‘कलेर मात्रा ओ रवींद्र नाटक’, ‘छंदर बरंडा’ और ‘दामिनी का गीत’ का उल्लेख किया। ‘शब्द और सत्य’, ‘उर्वशीर हसी’, ‘अहान सब अलिक’ उनकी अन्य उल्लेखनीय गद्य रचनाएं। उनके लेखन का बंगाली में वर्षों से अध्ययन और लोकप्रियता रही है। शंख घोष का काव्य मन, उसकी गति दोतरफा है। एक तरफ़, वह मन दिन भर की सभी सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं के नतीजों से हमेशा अवगत रहता है। घोष की संवेदनशील कविताएँ समाज में किसी भी अन्याय के खिलाफ़ दहाड़ती थीं। हम इसकी अभिव्यक्ति कभी-कभी तीखे व्यंग्य, व्यंग्यात्मक भाषा में लिखी कविताओं में देखते हैं। निम्न वर्ग के लोग, गरीब लोग अपने दैनिक दुख-दर्द के साथी के रूप में शंख घोष की कविताएँ पा सकते हैं। शंख घोष अपनी अचूक कविताओं से समाज की हर असमानता, हर न्यायहीनता की पहचान करते हैं।