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पेरुमाल मुरूगन
कविता संग्रह ‘एक कापुरुष के गीत’ से कुछ कविताएं
अनुवादक: मोहन वर्मा
हर कोई बस अपने लिए
पेट और जीभ के अधीन हो
सहजन की फली तोड़ने
मैं पेड़ की शाख पर जा चढ़ा
वह कड़कड़ाई और
फूल और कोमल फलियों को साथ लिये
नीचे आ गिरी
उसका विलाप क्षणभर के लिए हुआ।
ऊँचे ब्रांड के जूते पहन
जब मैं तेज़ी से चलता हूँ
चींटियाँ और अन्य कीड़े मकोड़े
पाँव तले आकर मसल जाते हैं
ज़रा भी आवाज़ नहीं होती।
देर तलक लोरियाँ सुनाने के बाद
सोये हुए बालक को
आस-पास चलते लोगों की ऊँची आवाजें
हिचकोले मार उठा देती हैं
एक तीव्र चीख निकलती है।
हर कोई अपना-अपना लक्ष्य लिए
अपनी राह चलता है
और कुछ भी तो नहीं किया जा सकता है।
मुझे वर्षा ऋतु पसन्द है
मैं घर लौट आया हूँ
जैसे संगा काल का
ग्रीष्म ऋतु में गया हुआ शूरवीर
वर्षा को साथ लेकर लौट आता है।
मेरी प्रतीक्षा में देहली पर खड़ी
पत्नी के अश्रु पोंछता हूँ
माँ जिसका निधन कुछ दिन पूर्व ही हुआ था
उसके बारे में सोचता हूँ
गर्मियों और मानसून के बीच की अवधि
बच्चों के लिए एक कहानी में रूपित करता हूँ
और सम्बन्धी
बिना रोक टोक आते हैं, चले जाते हैं।
जब बारिश होती है
मैं पर्दे गिरा देता हूँ
और शीतभरी रातों का
आनन्द उठाता हूँ
पनाह माँगने आये कीड़े मकोड़ों को
जहर देकर मार देता हूँ
यह घटनाओं से शून्य दौर है।
चीज़ों को पोंछ कर साफ करता हूँ
फफूँद न लग जाये जोर से रगड़ता हूँ
दीवारों पर पानी टपकने के निशान तलाशता हूँ
और उन्हें भर देता हूँ
ना जाने कितनी दरारें हैं
मैं उनको भरता ही रहता हूँ।
दिन चढ़ते हैं
दिन चुकते हैं।
वर्षा होती है
मैं यदाकदा पर्दा खिसकाकर
बाहर झाँकता हूँ
आकाश में बिजली चमकती है
मैं उसका गरजना सुनता हूँ।
लोग कहते हैं
मौसम बदलेगा
पर मैं उनसे कहता हूँ
मुझे वर्षा ऋतु पसन्द है
जब बारिश हो
तो बस घर के भीतर रहो।
गौरवशील
मैं एक गौरवशील व्यक्ति हूँ
तथा मेरी पत्नी भी
मेरे पिता गौरवशील थे
और उसी तरह मेरी माँ भी
मेरे दादा गौरवशील थे
और मेरी दादी भी
मेरे पर-दादा गौरवशील थे
और मेरी पर-दादी भी
मेरे पर-दादा के पिता के पिता के पिता
वह और उनकी पत्नी गौरवशील थे
ऐसा क्यों है
मेरी सारी पीढ़ियाँ
जिनका एकमात्र ध्येय रहा है
इन्द्रिय-निग्रह करना
वह सब गौरवशील है।
संज्ञा विहीन भाषा
भाषा को पखारते
किसी की झाडू में
मकड़ी के जाल जैसा
जो कुछ आ लिपटा है
वह सब संज्ञाएँ हैं
जब वह
गन्धाते ढेर की सफाई करते-करते
लोगों के नाम छाँट निकाल फेंकता है
कचरे का अम्बार और ऊँचा हो जाता है
लोगों के नामों के साथ-साथ
स्थलों के नाम भी
कचरे के ढेर पर आ जाते हैं
वस्तुओं के लिए संज्ञाएँ
समय के लिए संज्ञाएँ
संज्ञाएँ गुणों के लिए
संज्ञाएँ शरीर के विभिन्न अंगों के लिए
कुछ भी तो नहीं बचता
और अब
शब्दकोश पर
सभी जगह
मात्र क्रियापद उछलकर आ गये हैं
भाषा माता की याचना पर
जो हिम शिला बन खड़ी है
वह तरस खाता है और उदार होकर
कुछ संज्ञाओं को आने की आज्ञा दे देता है
परन्तु वह लोगों के नाम न हों
और न ही उन स्थलों के जहाँ वे रहते हैं
परन्तु भाषा माता की मिन्नतों के दंश को
वह सह नहीं पाता है
सर्वनामों को भी आने की अनुमति दे देता है
और अपनी झाड़ू को
चुपचाप एक कोने में खड़ी कर देता है।
पेरुमाल मुरुग
तमिलनाडु के तिरुचेगोड़े के नजदीक एक गाँव में सन 1966 में जन्में लेखक, विद्वान और साहित्यिकार पेरुमाल मुरुगन का लेखन तमिल भाषा में है, और आप तमिल साहित्य की एक खास अभिव्यक्ति हैं । लेखक पेरुमाल मुरुगन ने 12 उपन्यास, लघु कथाओं के छह संग्रह, कविता के छह संकलन और कई गैर-काल्पनिक पुस्तकों के साथ साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण छाप छोड़ी है । उनके दस उपन्यास, जिनमें ‘सीज़न्स ऑफ़ द पाम’, ‘करंट शो’ और ‘वन पार्ट वुमन’ शामिल हैं, का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है । साहित्य के कई राष्ट्रीय सम्मानों और पुरुस्कारों से सम्मानित पेरुमाल मुरुगन को साहित्य के अंतराष्ट्रीय बुकर पुरुस्कार 2023 के लिए नामित किया गया ।
(नोट : पेरुमाल मुरुगन का उपरोक्त परिचय गूगल पर उपलब्ध सूचना के आधार पर है)
अनुवादक : मोहन वर्मा
मोहन वर्मा हिन्दी के कवि एवं अनुवादक हैं । बूँद से नदी तक : एक कविता यात्रा कविता संग्रह, पेरुमाल मुरुगन के तीन उपन्यास ‘मादोरुबागन’, ‘अर्द्धनारी’ एवं ‘आलवायन’ के हिन्दी अनुवाद ‘नर-नारीश्वर’, ‘पोन्ना का अभिशाप’, ‘पोन्ना की अग्निपरीक्षा’ प्रकाशित हो चुके हैं । इसके अतिरिक्त ‘सामाजिक न्याय एवं चेतना की भारतीय कविताएँ’ संकलन प्रकाशनाधीन है । उन्होंने कन्नड़ की कवि ममता सागर की कविताओं का भी हिन्दी में अनुवाद किया है जो ‘आँखमिचौनी’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है । पिछली शती के साठवें दशक में हिन्दी काव्य के सहज कविता आन्दोलन का सूत्रपात करने में वह रवीन्द्र भ्रमर तथा त्रिवेणी प्रकाश त्रिपाठी के सहयोगी रहे हैं और ई-पत्रिका ‘जागरी’ के कविता सम्पादक भी ।