
समकालीन कविता
सुशांत सुप्रिय
इंस्पेक्टर मातादीन के राज में
( हरिशंकर परसाई को समर्पित )
जिस दसवें व्यक्ति को फाँसी हुई
वह निर्दोष था
उसका नाम उस नौवें व्यक्ति से मिलता था
जिस पर मुक़दमा चला था
निर्दोष तो वह नौवाँ व्यक्ति भी था
जिसे आठवें की शिनाख़्त पर
पकड़ा गया था
उसे सातवें ने फँसाया था
जो ख़ुद छठे की गवाही की वजह से
मुसीबत में आया था
छठा भी क्या करता
उसके ऊपर उस पाँचवें का दबाव था
जो ख़ुद चौथे का मित्र था
चौथा भी निर्दोष था
तीसरा उसका रिश्तेदार था
जिसकी बात वह टाल नहीं पाया था
दूसरा तीसरे का बॉस था
लिहाज़ा वह भी उसे ‘ना’ नहीं कह सका था
निर्दोष तो दूसरा भी था
वह उस हत्या का चश्मदीद गवाह था
किंतु उसे पहले ने धमकाया था
पहला व्यक्ति ही असल हत्यारा था
किंतु पहले के विरुद्ध
न कोई गवाह था , न सबूत
इसलिए वह कांड करने के बाद भी
मदमस्त साँड़-सा
खुला घूम रहा था
स्वतंत्र भारत में …
कैसा समय है यह
कैसा समय है यह
जब हल कोई चला रहा है
अन्न और खेत किसी का है
ईंट-गारा कोई ढो रहा है
इमारत किसी की है
काम कोई कर रहा है
नाम किसी का है
कैसा समय है यह
जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं
सारी मशालें
और हम
निहत्थे खड़े हैं
कैसा समय है यह
जब भरी दुपहरी में अँधेरा है
जब भीतर भरा है
एक अकुलाया शोर
जब अयोध्या से बामियान तक
ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक
बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ
कबीर
एक दिन आप
घर से बाहर निकलेंगे
और सड़क किनारे
फुटपाथ पर
चिथडों में लिपटा
बैठा होगा कबीर
‘ भाईजान ,
आप इस युग में
कैसे ? ‘ —
यदि आप उसे
पहचान कर
पूछेंगे उससे
तो वह शायद
मध्य-काल में
पाई जाने वाली
आज-कल खो गई
उजली हँसी हँसेगा
उसके हाथों में
पड़ा होगा
किसी फटे हुए
अख़बार का टुकड़ा
जिस में बची हुई होगी
एक बासी रोटी
जिसे निगलने के बाद
वह अख़बार के
उसी टुकड़े पर छपी
दंगे-फ़सादों की
दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा
और बिलख-बिलख कर
रो देगा
कामगार औरतें
कामगार औरतों के
स्तनों में
पर्याप्त दूध नहीं उतरता
मुरझाए फूल-से
मिट्टी में लोटते रहते हैं
उनके नंगे बच्चे
उनके पूनम का चाँद
झुलसी रोटी-सा होता है
उनकी दिशाओं में
भरा होता है
एक मूक हाहाकार
उनके सारे भगवान
पत्थर हो गए होते हैं
ख़ामोश दीये-सा जलता है
उनका प्रवासी तन-मन
फ़्लाइ-ओवरों से लेकर
गगनचुम्बी इमारतों तक के
बनने में लगा होता है
उनकी मेहनत का
हरा अंकुर
उपले-सा दमकती हैं वे
स्वयं विस्थापित होकर
हालाँकि टी. वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल विश्व-सुंदरियों की
कैट-वाक का
पर उस से भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल
मासूमियत
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई
हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है
—
सुशांत सुप्रिय
हिंदी के प्रतिष्ठित कथाकार , कवि तथा साहित्यिक अनुवादक । इनके नौ कथा-संग्रह , पाँच काव्य-संग्रह तथा विश्व की अनूदित कहानियों के नौ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । इनकी कहानियाँ और कविताएँ पुरस्कृत हैं और कई राज्यों के स्कूल-कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में बच्चों को पढ़ाई जाती हैं । कई भाषाओं में अनूदित इनकी रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोधार्थी शोध-कार्य कर रहे हैं । इनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन हुए हैं तथा इनकी एक कहानी “ दुमदार जी की दुम “ पर फ़िल्म भी बन रही है । हिंदी के अलावा अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व रचनाओं का प्रकाशन । साहित्य व संगीत के प्रति जुनून ।सुशांत सरकारी संस्थान , नई दिल्ली में अधिकारी हैं और इंदिरापुरम् , ग़ाज़ियाबाद में रहते हैं ।
ज्योति रीता
आख़िरी निशानी
कितना कुछ सहेजा जाना बाक़ी था
हमने किया प्रेम
आरंभ से अंत तक प्रेम
कितने चित्र उकेरे जाने बाक़ी थे
हमने छुआ तुम्हारा चेहरा
बनने लगे थे कई-कई चित्र
एक पूरा समंदर तय करना बाक़ी था
हमने देखी तुम्हारी आंखें
उम्मीद से भरी तुम्हारी ऑंखें
कितने रास्तों पर चलना बाक़ी था
हमने नापी अंगुलियों के पोर से तुम्हारी पीठ
पीठ का नमक
कितनी ही किताबों के पन्नों को चखा जाना बाक़ी था
हमने चखा तुम्हारी छाती का स्वाद
हाथ लिए रही रसीदी टिकट
कितना कुछ लिखा जाना बाक़ी था
पन्नों पर खींचती रही लकीर
गढ़े जाते रहे शब्द
माॅं को कितनी शिकायतें हैं मुझसे
माॅं चाहती है मैं पकाऊं खाना
मैं सिर उठाए घूरती रही आकाश
प्रेमी को चाहिए था
उठती-गिरती सांसों का हिसाब
गले की ज़ंजीर में लटकता लॉकेट उसके प्रेम की आख़िरी निशानी है।
कुल जमा 10 बरस
कुल जमा 10 बरस साथ रहे तुम
कितने बरस साथ थे
यह बात अब भूल जाना चाहती हूॅं
हम कई-कई भाषाओं में जीवन जीते रहे
काम्य भाषा से इतर
तुमने किसी और भाषा में वार्ता कभी नहीं की
ना ही सीखा
ना ही समझना चाहा
वह भाषा चीख रही थी
तुम्हारी नींद गहरी और गहरी होती गई
प्रेम में दिवालियापन की घोषणा उसी वक्त हुई थी
जब समझौता हुआ था
हम अकेले पड़ते जा रहे थे
सब कुछ वैसा ही था
सुबह का होना
शाम का ढल जाना
शाम की बेचैनी मादक द्रव्य की तरह असर कर रही थी
टूट-फूट की क्रिया निरंतर जारी थी
अंदर की दीवार के चटकने की आवाज़ अब साफ़ सुनने लगी थी
बोलती हुई ज़ुबान अनायास चुप हो गई थी
मुस्कुराने की भाषा अबूझ पहेली लगने लगी
तुम्हारे कैलेंडर में ना शीत की छुट्टी थी
ना ही ग्रीष्म की
छुट्टी में भी मेरे कैलेंडर पर कार्य दिवस अंकित था
तुम्हारा कैलेंडर मुझ तक आकर अलसाया रहा
अज़ाब को भूलाने में कई-कई लेप तैयार करने होंगे
लेप की सामग्री का पता तलवों के नीचे है
क़ाज़ी ने मुंह खोला है
परंतु निर्णय अभी उनके पेट में है
दिसंबर का यह दूसरा सप्ताह है
किसी का आगमन किसी के लौट जाने की सूचना है
ज़िंदगी के शब्दकोश से कई शब्द मिटाएं और जोड़े गए
कहानी के पात्र में कई बदलाव होंगे
पात्र इन दिनों यात्रा पर है।।
ज़िंदगी के ककहरे में उलझी लड़की
ज़िंदगी के ककहरे में हमेशा उलझी रही
जिंदगी का पहाड़ा और भी बोझिल था
अंकगणित के हिसाब ने बेतरह उलझाया
सूत्र याद नहीं रख पाई
फॉर्मूलों पर चलना नागवार गुज़रा
कक्षा सातवीं में पढ़ाया गया हृदय कैसे कार्य करता है?
स्कूल के बाद माँ समझाने लगी थी
पुरुषों के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से होकर जाता है
खाना बनाना सीख लो
कॉपी के पिछले पेज पर हृदय की तस्वीर बनाकर
नुकीले तीर से चीरते हुए उसे इरादतन कठोर बनाती रही
परंतु
साहित्य को पढ़ते हुए हृदय से नाजुक बनी रही
रसखान, मीरा, जायसी को पढ़ते हुए सूफ़ियाना हुई
विज्ञान की मैडम ने पढ़ाया था रोटी चबाने के बाद मीठा स्वाद छोड़ती है मुँह में
रोटी का मीठापन बचाते हुए ज़िंदगी का पानी खारा होता गया
इतिहास की तारीख़ का पन्ना पलट नहीं पाई
इतिहास की कक्षा में हमेशा सोई रही
कब बाबर आए / कब अकबर गए
कब पानीपत की लड़ाई हुई
मुग़लों ने कब और कहाँ साम्राज्य स्थापित किए
भूल चुकी हूँ
गाॅंधी के बिहार आगमन पर मैं जाग गई थी
गाॅंधी की चंपारण यात्रा बेशक याद है मुझे
राम प्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर और भगत सिंह की ब्लैक एंड वाइट तस्वीर किताबों में रखती हूँ
वह अंतिम गोली
अल्फ्रेड पार्क
जनसैलाब
सब याद है मुझे
जाते हुए कलम की निब का एक टुकड़ा मेरी हथेली पर छोड़ते हुए चंद्रशेखर ने कहा – अगर तुम्हारे लहू में रोष नहीं है तो वह पानी है
उसी निब से अब मैं कविताएँ लिखती हूँ।।
सुनो नाज़िम हिकमत!
सुनो नाज़िम हिकमत!
तुम्हारे लौटाने से लौट आता है घर-आँगन
प्रेम गिरह धीरे-धीरे खुलने लगता है
मृत्यु को प्राप्त मन जीवनातुर होने लगता है
कनेर के बाग़ में खोंस आती हूँ हृदय के उघड़े तंतु
पुलक कर तोड़ लाती हूँ कुछ सफ़ेद फूल
सजाती हूँ केश
लगाती हूँ माहवार
कान के पीछे डालती हूँ सुगंधी की बूंदे
दुनियादारी की बाॅंहों से जब छूटती हूँ
तुम्हारी याद आती है
बंद आँखों से तुम्हें सहेजती हूँ
वह क्षण उत्सव से भर जाता है
जुबान उर्दू
लिपि फ़ारसी
उर आयतों के क़सीदे पढ़ता है
प्रेम में मौन की भाषा सबसे सशक्त भाषा है
प्रेम में चुप रह कर सबसे ज़्यादा सुनी गई आवाज़ें
किए गए कई-कई हज़ार वादे
सुनो नाज़िम!
यह प्रेम का चरस युग है
मैं तुम्हें गाढ़ी काली चाय पर आमंत्रण देती हूँ

श्याम निर्मोही की ग़ज़लें
1.
खुद को भी तो कभी चिट्ठियाॅं लिख
जो की हैं वो सभी गलतियाॅं लिख
इस तल्ख़ धूप में जल रहे हैं ये पाॅंव
छाॅंव के नाम कुछ अर्ज़ियाॅं लिख
तू औरों के मशविरे पर चलता रहा
अपनी भी तो कभी मर्ज़ियाॅं लिख
जिन सवालों से उलझता रहा ताउम्र
उन ज़वाबों की भी गुत्थियाॅं लिख
जो लोग आईने की तरह धुंधला गए
उनकी भी कभी ख़ुदगर्ज़ियाॅं लिख
जब भी पंख के माने पूछे ये ज़माना
तब तू हर्फ़-दर-हर्फ़ लड़कियाँ लिख
जो अरसे से बंद है दिल के कोने में
उन ख़्वाबों की भी खिड़कियाॅं लिख
‘निर्मोही’ मन को बच्चा समझ कर
अपने लिए रंगीन तितलियाॅं लिख
______
2.
तआर्रूफ़ में ज़रा धीमें बोला कर
ओहदे नहीं, किरदार तोला कर
ख़ालिस बातों से तज़ुर्बे कैसे होंगे
हादसों के शहर में तो डोला कर
झूठ बड़ी आसानी से बिकता है
सच भी झूठ की तरह बोला कर
इक रोज़ लूट जाएगी मिल्कियत
आव-ताव देखके राज़ खोला कर
अपनी सोच का पैकर बना पहले
हर सदा पर झट से ना दोला कर
इस राख़ में दबी हैं जो चिंगारियाॅं
कभी उनको भी तो टटोला कर
बरबस ही कहाॅं मिलती है मंज़िले
पत्थरीले रास्तों से पाॅंव छोला कर
न बहक तहरीकी नारों से निर्मोही
ये अफ़ीम लहू में यूॅं ना घोला कर
_____
3.
ठहरे पानी से काइयाॅं निकल आईं
दबी हुई सच्चाइयाॅं निकल आईं
जो आईना दिखाने चले थे सबको
उन्हीं की परछाइयाॅं निकल आईं
अपने ही तो हमें किनारे लगा गए
भीड़ में भी तन्हाइयाॅं निकल आईं
मिट्टी के घरौंदे-से बिखरे हुए ज़ख़्म
हर दर्द से रुसवाइयाॅं निकल आईं
अपनों से उम्मीद थी रोशनाई की
मगर ॲंधेरी खाइयाॅं निकल आईं
मोहल्ले में उसकी कितनी बुराइयाॅं
मगर हरसूॅं अच्छाइयाॅं निकल आईं
छू लिया हमने ज़मीं से आसमाॅं तो
उन चेहरों से हवाइयाॅं निकल आईं
निर्मोही बीमार मर गया बे-इलाज़
उसी घर में दवाइयाॅं निकल आईं
______
4.
चेहरे पर चेहरा मिला है मुझे
दिए तले अंधेरा मिला है मुझे
फूलों की ख़ुशबू महकती थीं
वहाॅं विरान डेरा मिला है मुझे
न दीन धर्म न कोई ईमाँ बचा
सियासती बसेरा मिला है मुझे
जाति के नाम पर फोड़े उगे हैं
रोज़ फूटता सवेरा मिला है मुझे
बदबूओं में सनी खुरदरी शक्लें
आईना डरा ठहरा मिला है मुझे
परिंदों को मालूम है अपने घर
सय्याद का पहरा मिला है मुझे
‘निर्मोही’ खुल न सकीं ये गिरहें
हर ओर गोल घेरा मिला है मुझे
_______
5.
कच्चे धागे पर यूॅं नाचती है ज़िन्दगी
साॅंसों की क़ीमत माॅंगती है ज़िन्दगी
ज़नाब! चंद पैसों के खातिर नहीं
पापी पेट ऐसे ही ढाॅंपती है ज़िन्दगी
जिस दिन न मिले निवाला रात भर
आसमाॅं के तारें ताकती है ज़िन्दगी
कम्बख़्त! हसरतें भी हाॅंफने लग गई
कितनी रफ़्तार से भागती है ज़िन्दगी
हर इक सवाल का ज़वाब पाने को
कैसे लोहे के चन्ने चाबती है ज़िन्दगी
घर में अपना ही वज़ूद ढूॅंढ़ने के लिए
गली-गली ख़ाक छानती है ज़िन्दगी
कैसे उठती गिरती और सॅंभलती है
कच्चे धागों को यूॅं थामती है ज़िन्दगी
हादसों को ये मालूम नहीं है ‘निर्मोही’
मुश्किलों का हल जानती है ज़िन्दगी
©️®️
श्याम निर्मोही
( अकादमिक नाम – श्याम लाल चाॅंगरा )
पुस्तकें :-
1.रेत पर कश्तियाॅं (काव्य संग्रह), राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ग्रंथ उपरांत 2023-24 आंशिक सहयोग योजना के अंतर्गत चयनित कृति।
2. मन के कबीर (काव्य संग्रह)
संपादन :-
1. सुलगते शब्द- दलित काव्य-संकलन (संपादन)
2. सूरजपाल चौहान की प्रतिनिधि कहानियाॅं (संपादन)
प्रसारण/प्रकाशन :- आकाशवाणी प्रसार भारती केंद्र बीकानेर से साहित्यिक वार्ताओं का प्रसारण। देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाऍं प्रकाशित।
सम्मान :-
1. डॉ.भीमराव अम्बेडकर राष्ट्रीय फैलोशिप सम्मान-2017,
2. सूरजपाल चौहान साहित्य सृजन सम्मान -2021
3. केंद्र गीत सृजन पुरस्कार-2022 राष्ट्रीय उष्ट्र अनु. केंद्र बीकानेर।
4. नागरिक अलंकरण (सम्मान पत्र), नगर निगम बीकानेर।
पत्राचार का पत्ता:-
श्याम निर्मोही
सोहनी सदन, सोहन कोठी के पीछे,
अंबेडकर सर्किल के पास,
मारुति गैराज वाली गली,
बीकानेर, राजस्थान-334001