समकालीन कविता
डॉ. रेखा वशिष्ट
साहित्यक योगदान के लिए चन्द्रधर शर्मा गुलेरी राज्य सम्मान से सम्मानित रेखा वशिष्ट ने पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ से अंग्रेजी में एम.ए. व हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय शिमला से पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की है। आपकी अब तक ‘अपने हिस्से की धूप’, ‘चिंदी – चिंदी सुख’, ‘पिआनो’ एवं ‘विरासत जैसा कुछ’ कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। आपके कविता संग्रह ‘अपने हिस्से की धूप’ व कहानी संग्रह ‘पिआनो’ को भाषा अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया तथा ‘हाथ’ कहानी के लिए 1990 में कथा पुरस्कार मिला है।
औरतें सुख में
पवित्र जल के झरने पर सुहाग-पानी भरने
जा रही हैं औरतें
झिल-मिल रंगीली
ओढ़नियों में
आकाश उतरती
बहुरंगी चिड़ियों जैसी
घर भर की औरतें
औरतें गा-गाकर बुला रही हैं
अपने और अपनों के सुख
जैसे चिड़ियों को चूरी दे
बुलाती हैं पुरखिनें
मंगल बोती और काटती हैं
औरतें मिट्टी भी हैं
फ़सलें भी
छाजों में सुखों को
पछोरती बटोरती हैं
औरतें।
औरतें दुःख में
बिछुड़ गए
आत्मीय की याद के आस-पास
बैठी हैं
घुटनों में सिर रखे
रोती बिसूरती
भूरे-मटयाले
पट्टू और शालों में
छोटी-बड़ी गठड़ियों जैसी
बेहड़े की औरतें
औरतें ताप रही हैं
अपने और अपनों के दुःख
एक साथ
जिसे तापती हैं
उसी में तपती हैं औरतें
छुपाकर चलती हैं
बुक्कड़1 में मौसमों की ठिठुरन और
चूल्हे की आग
अलाव के आस-पास
लय में रो रही हैं या
गा रही हैं औरतें।
(1) कपड़ों के ऊपर ओढ़ा हुआ पट्टू या चादर।
एक दिन अचानक
एक दिन अचानक बहुत जरूरी लगता है
यह काम
अपनी देह को
बरसों बंद पड़े संदूक की तरह खोलूं
अपने खून, हड्डी-मांस सबसे
फिर कायम करूं
अपनी पहचान
सारी धमनियों
में टहल आऊं
फिर से
खोल कर देखूं अपनी कोख़
सुनूं कोई अनुगूंज सांसों की
खोजकर निकालूं कोई नन्हा पिंजर
एक दिन अचानक
याद आता है
अपनी चमड़ी को धूप दिखाऊं
रोम-रोम में लहरा दूं हवा
फिर से
झाड़ूँ, बुहारूं, संवारूं –
सारी अंतड़ियां
चेहरे को
घुटने पर रखे रूमाल की तरह सहेजूं
एक दिन अचानक
चढ़ता है चाव
फिर से ओढ़ूँ अपनी देह
देखूं
क्या वह मुझे आज भी
पहन पाएगी?
तेरा कौन रंग रे
मेरे कामरेड दोस्त ने कहा
तुम क्रांति हो
सब रंगों से सुंदर है
लाल रंग
लहू का रंग
मैंने पहनी लाल साड़ी
मेरे किसान मित्र ने कहा
तुम लहराती हुई फसल हो
सब रंगों से सुंदर है
हरा रंग
कच्ची फसलों का रंग
मैंने पहनी हरी ओढ़नी
मेरे थके-हारे
मज़दूर साथी ने कहा
तुम घनी छांव हो
सब रंगों से सुंदर है
धूप-छांव की बिछलन के रंग
मैंने पहना छींट का घाघरा
मेरे सन्यासी गुरू ने कहा
तुम विरक्ति हो
सबसे सुंदर है गेरूआ रंग
विराग का रंग
मैंने पहना गेरूआ
मेरे गृहस्थ पति ने कहा
तुम सौभाग्य हो
लक्ष्मी हो, श्वेता हो
मैंने वही सब पहना
फिर मैंने ‘मुझ’ से पूछा
कौन हो तुम
कौन रंग है तेरा
हर पहरन उतार
मैंने जब भी मुझको देखा
माटी देखा
सबसे सुंदर है माटी का रंग
एक दुधमुंहा बच्चा आया
बिना कुछ कहे
मेरी छाती से चिपक गया।
ऋतु त्यागी
उत्तर प्रदेश के मेरठ से लेखिका ऋतु त्यागी की प्रकाशित पुस्तकें हैं ‘कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी’, ‘समय की धुन पर, मुझे पतंग हो जाना है’ (काव्य संग्रह) एवं ‘एक स्कर्ट की चाह’ (कहानी संग्रह)। आपकी कविताएं तथा कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
चौंको तो मत!
चौंको तो मत!
दपदपाती…
लकदक…लकदक
रोजमर्रा के व्यापार से बोझिल
उतारती है झट से
किसी अव्यय की तरह एड़ियों से चिपके जूते
गाढ़े अंधेरे में भी
वो
अपने ठौर को खोज लेगी
और फिर गिर जायेगी बिस्तर पर निपात की तरह…
शहर तुम!
शहर तुम कपास हो जाओ!
नर्म…मुलायम…
आंसू भी
सोख सकते हो फिर तुम
हल्के इतने कि
हवा के साथ उठ सको
और तुम्हारी उंगली थामे
कोई बच्चा फ़ाख़्ता को पकड़ सके
इतना तो…
इतना तो हरा रहे जीवन कि
कोई रचनात्मक उम्मीद
फटे जूते में जब
तपती सड़क पर निकले
तो कोई दरख़्त
अपनी कुछ पत्तियां गिराकर
सड़क की तपन को कम कर दे…
या फिर विराट आकाश
बादलों को सड़क को ढंकने का व्यक्तिशः आदेश पारित कर दे।
तरल-सी
नुकीली चीज़ों को उन हाथों से दूर रखना
जिनकी त्वचा पर
बालों के स्थान पर उग आते हैं नाख़ून
निर्वस्त्र ताक़त सरेआम
खटखटाती हो उनका द्वार
वहां कांपते स्पर्शों के बीच
बहती ना हो कोई नदी
ईर्ष्या और नफ़रत के पत्थरों पर बैठकर
ये खुरच देते हो पुल पर लिखी
तरल-सी कोई इबारत
*इनकी असलियत शुरुआती कुतूहल के साथ अपनी भंगिमाओं से रचती हैं असंख्य विद्रूप।
भविष्य का अनूठा स्वाद
उसकी आंखों में एक तारीख़
मुद्दतों से बंधी है
जिस दिन वह भरभराकर गिरी थी
और उसके आसपास की
कर्कश ध्वनियों ने ठान लिया था हथौड़ा बनना
पर फिर भी ख़ारिज नहीं हुई थी वह
अपनी फड़फड़ाती ज़िद से
बचा लिया था
उसने भविष्य का अनूठा स्वाद।
वह बस
उसके पीछे
घसीटने ही हैं उसे
सांसारिक कृत्य
कपास-सा दुःख उड़ता है
वह पंजों को उचकाकर
सफ़ेद स्वेटर बुनने के लिए पकड़ती है उसे
आह! कितना तो दर्द है उंगलियों में
सलाई में वह फंदों की जगह डाल देगी
अपने नेक इरादे
एक दमकती मृत्यु के लिए
वह दीवार को दोष देते हुए नहीं गिनेगी उसकी चीत्कार
वह बस शांत होकर
किसी झील का विशुद्ध पानी बनेगी।
प्रेम और मोह
प्रेम और मोह के मध्य की
महीन रेखा को मैंने
पेंसिल से गहरा किया
दूर से देखा
एकांत में उसके श्याम रंग पर
अपनी उंगली फिराई
पानी की गतिसूचक बहाव क्रिया में
उंगली को निर्मल किया
मुक्त होना मुझे
कभी इतना दुष्कर भी तो नहीं लगा।
पवन ठाकुर
पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर पवन ठाकुर हिमाचल प्रदेश के मनाली, कुल्लू के गांव गोशाल से हैं।
पवन ठाकुर की कविताएं
सुहाँसी के लिए
1 सीढ़ियां
मैं जब भी सीढ़ियां चढ़ता हूं
तो एक उम्मीद होती है
मुझे तुम
सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते
मिली हो
एक उम्मीद की तरह
2 आवाज़
तुम्हारी आवाज़
एक संजीवनी है
मैं जी उठता हूं
तुम्हें सुनते हुए
3 ब्रह्मांड का केन्द्र
वह कम बोलती थी
और मुझे लेक्चर देने की आदत
बालकनी में पैरलल खड़े होते हुए,
बीच में, मैं कभी उसकी तरफ़ देखता
तो वो मुझे देख रही होती,
उसे देखकर मुझे लगता क्या मैं ही ब्रह्मांड का केंद्र हूं? मेरा पता नहीं,
पर हां, मैं जब उसे देखता था
मेरे लिये तो वह ही ब्रह्मांड का केंद्र थी।
4
सारे पुल, पहाड़, नदियां और सारे द्वीप
सारी मुश्किलों को पार कर
मैं पहुंचूंगा तुम्हारे पास
तुम्हारे लिये
और मेरे लिये
5
दुनिया जहां की बातें हैं
जो तुमसे करनी है
तुमसे मिलकर जाने के बाद
मैं अकसर सोचता हूं
अरे ये तो कहा ही नहीं
अरे वो बताना भूल गया
कितनी बातें है
जो तुम्हें बतानी हैं
और कितनी ही बातें हैं
जो तुमसे सुननी हैं
इंतज़ार
मैं मनुष्य होने की कोशिश में हूं
और
तुम्हारे बिना
अधूरी है
मेरी मनुष्य होने की यात्रा
मुझे मनुष्य होने की परिक्रमा करनी है
तुम्हारे साथ-साथ
मौन
तुम्हें कहने और लिखने को मेरे पास
कुछ भी नहीं
शब्द और भाषाएं
हो चुकी हैं पुरातन
कुछ शब्दों की तलाश है
और एक ऐसी भाषा का इंतज़ार
जिसमें तुम और मैं कर सकें बातें
मिट सके मनुष्य की ये दूरी
जी सकें ज़िंदगी बेहतर
काश तब तक डूब जाते हम
एक दूसरे की आंखों में
मिलना
पूर्णमासी की रात में
चांद की रोशनी सी
तुम मिलना मुझे
मैं नापते चला जाऊंगा
तमाम अंधेरे
तुम्हारे साये में
काश!
काश!
तुम दौड़ी हुई आतीं
मेरे पास
काश !
मैं दौड़ पाता
तुम्हारे पास
एक दुनिया बसाते
सुख की खेती करते
प्रेम
1
दो लोगों को एक साथ देखना
हमेशा उम्मीद देता है
ये दुनिया बेहतर होगी
2
जहां दो आत्मायें निर्वस्त्र होंगीं
वहां प्रेम पनपेगा
और गढ़ेगा
आत्माओं का निर्वस्त्र होना
सत्य का उद्घाटन है
और प्रेम की शुरुआत
3
इस चुप और शोर
करती दुनियां में
तुम्हारी आवाज़
बचाये रखेंगी
स्मृतियां, ध्वनियां
और
तुम्हारा स्पर्श
बचाये रखेगा
जीवन
इस निर्जीव होती दुनिया में
चीज़ें
खुद से बाहर
जो पास नहीं
हमेशा अच्छा लगता है
मंज़िल तो वहां है
जहां तुम हो
ज़िन्दगी बड़ी है सपनों से
साथ
शाश्वत है
अंधेरों से गुज़र
कर
मिल ही जाती
है रोशनी
मैं चाहता हूं
अंधेरे में
तुम्हारा साथ
हम न डरे
मैं चाहता हूं
रोशनी में
तुम्हारा साथ
हम न चौंधिया जाए