समकालीन कविता

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
शंकरानंद की कविताएं 

 
 
 
सबसे भयानक डर

 लौटने की भाषा में
विदा के गीत याद आते हैं
चीख की भाषा में
याद आती है चुप्पी
 
 हिलते हुए हाथ की थकान
चिड़िया के पंख जितनी भारी है
 
 देह से अलग होने पर
उसका कोई वजूद नहीं
जैसे पत्ते पेड़ पर रहकर उनका हिस्सा हैं
गिरने पर वे कहीं के नहीं रहते
 
आंखों में जो पहली लालसा है कौंधती हुई
वह मिलने की है उससे
जो वसंत की तरह आता है हर बार
नए पत्ते उगाता हुआ
 
 पतझड़ के बीच घिरा हुआ मैं
एक पेड़ का डर लिए जीता हूं
 
 बदलते मौसमों के बीच
वसंत के रास्ता भटकने का डर
सबके ज्यादा भयानक होता है।
 
 
 
 
इतना बेघर आदमी 
 
 मेरे पास जो टूटा हुआ घर है
वह जब तक है
मैं बेघर नहीं हो सकता
 
उसकी मरम्मत से बदल सकती है जगह
छप्पर को चूने से बचा कर
बारिश का मजा लिया जा सकता है
रात की परछाई में जलाई जा सकती है रोशनी
कोई दूर से ही इस रोशनी को देख कर
भरोसा कर सकता है कि
यहां लोग रहते हैं
 
एक खंडहर भी काम आता है मुसीबत में
जब पत्थर की बारिश होती है
तो वह रोक लेता है हर चोट अपनी देह पर
 
खड़े होने की जगह जिनके पास नहीं है
वे एक संदिग्ध का जीवन जीते हैं
भय से कांपते हुए
 
उन्हें शक की निगाह से वह भी देखता है
जो दूसरे के हिस्से का अनाज
अंगूठा लगा कर
अपने नाम कर लेता है।

 
 
  खबर नहीं

 
दूर तक खाली पड़े हैं खेत
जैसे किसी उत्सव के बाद
पंडाल उजाड़ लगता है
 
कहीं फसलें कट चुकी हैं
कहीं काटी जा रही हैं
उन्हें हटाने की जल्दी में बहता है पसीना
 
मौसम का कोई भरोसा नहीं
कभी धूप रहती है सुबह
दोपहर तक बादल घेर लेते हैं आसमान
शाम तक बारिश में भीगता है समय
 
अभी सड़क पर पसरा
मकई का दाना भीग गया
उसे सूखने के लिए धूप चाहिए अब
सब कुछ बिखरा हुआ है
दाने
खेत
खलिहान
किसान
सब
 
जो लोग बाजार में बैठे दानों के भाव तय कर रहे
उन्हें इसकी रत्ती भर खबर नहीं।
 
 
 
बोलने की प्रतीक्षा 
 
 सब जिसकी ओर उम्मीद से देख रहे हैं कि
अब बोलेगा
वह न जाने कब से मौन है
 
उसकी चुप्पी बताती है कि
आवाज भी अब नहीं रही उसकी
 
वह भी किसी महाजन के यहां बंधक है!
 
बच्चे की चाह
 
दुनिया का नक्शा देखकर बच्चे
जाना चाहते हैं हर जगह
उन्हें किसी सीमा से कोई मतलब नहीं
तोड़ देना चाहते हैं वे हर दीवार
 
हद है कि बड़े होने पर
या तो वे दीवार की रखवाली करते हैं
या उसकी सुरक्षा के लिए योजना बनाते है
या मुहैय्या करवाते है हथियार
 
चाह बचपन की बचपन में दम तोड़ देती है!
 
 
   
 
शंकरानंद
 
 
  
8 अक्टूबर 1983 को खगडिया जिले के एक गांव हरिपुर में जन्में कवि  शंकरानंद ने एम०ए (हिन्दी) एवं बी०एड० किया है। शंकरानंद के अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, आपकी कविताएं देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा पिता, किसान और कोरोना काल की कविताओं सहित कई महत्वपूर्ण और चर्चित संकलनों के साथ `छठा युवा द्वादश` में भी सम्मिलित हुई हैं। शंकरानंद जी की कविताओं के पंजाबी, मराठी, नेपाली और अंग्रेजी जैसी भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं।आपको कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार और राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।
 
 
 
 
 
 
 
  
 
 
ज्योति रीता 
 
 
उन्हें मनुष्य नहीं धर्मांध चाहिए 
 
हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया गया था
हमसे हमारे हक छीन लिए गए थे
अपनी ही ज़मीन पर हम शरणार्थी हो गए थे
वे ज़मीन पर कांटे बो देना चाहते थे
 
वे भय खाए लोग थे
हमारे बोलने से उनकी सत्ता हिलती थी
हमारे चेहरे से वे डरते थे
उन्होंने हमें कई-कई पर्दों से ढक दिया था
वे हमें झांवा की तरह काली ईंट में बदल देना चाहते थे
 
उनकी लंबी चौड़ी पीठ बंदूक से छिल गई थी
भावनाओं से वे ठूंठ हो गए थे
 
उन्हें बस धमाकों के गीत प्रिय थे
उनके हाथ खून से सने थे
 
रोते बिलखते बच्चों को देखकर उन्हें सुकून मिलता था
वे स्कूल के दरवाजों को बंद कर देना चाहते थे
उन्हें मनुष्य नहीं धर्मांध चाहिए
वे धर्म की आड़ में झंडा बुलंद करना चाहते थे
 
वे आदमी ही थे
उनके भी कनपटी के करीब से कोई मंत्र गुजरा था कभी वे उन्मादी हो गए थे
 
उन्हें नहीं पता था
वे भी ठगे गए लोग थे
किसी और का झंडा उन्होंने अपने कंधे पर उठा रखा था
 
उनकी ही माँ अपने जने पर शोक गीत गा रही थीं
उनका भी कोई घर नहीं था
न ही उनके पास कोई कंधा था
 
उनके गांव में सूखा अकाल पड़ा था
उनके आंखों के आंसू सूख गए थे
 
वे आदमी ही थे
पर उनके हृदय में लहू के साथ कोई और तरल भी बहता था
 
उनके पितर अब तर्पण से भी तृप्त नहीं होंगे
वे एक देश को मरघट में तब्दील कर रहे थे।
 
 
तुम्हारे नहीं होने पर 
 
 
तुम्हारे नहीं होने पर
मैं चूमती हूं तुम्हारा होना
सुनती हूं अंतिम समय का कदमताल
बंद आंखों से जीती हूं उष्ण बाहुपाश
 
करती हूं आत्मसमर्पण
आजमाना हो कभी तो आ जाना
 
आम में बौर आने लगे हैं
छूटने का वक़्त यही था हमारा
 
आनन-फानन में कुछ छूटा रह गया कहीं
किसी ने कहा है – छूटी हुई चीज़ों में जड़ें उग आती हैं।
 
पवित्र कोना- जहां तुम रहते हो
 
कितना पवित्र है वह कोना
जहां तुम रहते हो
बिना किसी रिश्ते के
उस अथाह बंजर भूमि को चीरते हुए तुम उग आए थे
परोस दी थी हरियाली
 
तुम्हारे करीब कुछ देर रुकती हूं
सुस्ताती हूं
म्लान मुख पर तेज फैल जाता है
जैसे तुम दोनों हाथों से मुझे समेट लेते हो
 
शायद तुम्हें भी पता है
बिखरना बहुत दर्दीला होता है
देखा है कई बार तुमने छलछलायी आंखों को
समझते हो तुम खारे पानी का बहना
 
एक चिथड़ा सुख मुझे हमेशा ओढ़ाते रहे हो
मैं उस गर्माहट को घूंट – घूंट पीती रही हूं।
 
 
 
 
 
 
ज्योति रीता
 
ज्योति रीता की कविताएं पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनका पहला कविता संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
मनीष यादव
 
1.
चालीस पार करती उम्र में
अब नहीं मिलता
माँ की गोद में दुबक के समा जाने का अवकाश
बेटी जब आहिस्ते से आकर
हाथ पकड़ती है
और तस्वीर खींचते हुए कहती है —
हैप्पी मदर्स डे मम्मी!
तब निश्चित ही
अपनी माँ की याद कैसे नहीं आएगी
माई के साथ चूल्हे के पास जाकर बैठ
घंटों बतियाना
ठहाके लगाते हुए कसके गले लग जाना
माँ के इतनी दूर चले जाने के पश्चात असंभव ही तो है
रत्ती भर आलाप के फलस्वरुप
केवल मन ही बहलता है
मातृ दिवस के दिन,
माई की स्मृतियों की फुहार नहीं थमती‌
माँ के अनुभवों के भंडार से
अपनी अंजुली भरते-भरते
उसके समीप बसने की
हथेली में नहीं बची‌ कोई रिक्त जगह
अब भान हुआ कि तुम क्यों कहती थी —
बेटी सूरजमुखी का फूल होती है!
तभी तुम्हारी अनुपस्थिति में मुरझा चुकी है
 
वही, तुम्हारी प्रिय! सांवली सूरत
माँ तुम निहारो आके
एक समय तक आंखों से ओझल होते ही
झट से मम्मी-मम्मी पुकारने वाली वो जिद्दी लड़की
कितनी बड़ी एवं चुप हो चुकी है
स्मृतियों की खुरदरी परत
आज हल्की और गाढ़ी हो जाएगी
कितनी औरतें हैं जो
खोलेंगी इस मातृ दिवस में अपना संदूक
खोज लेंगी अपनी माँओं को
उसकी दी हुई साड़ी , तो किसी कंगन में।
 
2.
 
पुनर्जन्म /
 
 
मेघा!
जिस क्षण तुम रोते हुए कहती –
छीन लिया गया तुमसे तुम्हारे हिस्से का प्रेम
पिघल जाती थी मेरी आत्मा तुम्हारे स्वर के ताप से!
तुम माँ की तीसरी बेटी रही
और माँ के लिए
चौथे (बेटे) की प्रतीक्षा में तीसरा विकल्प
दुलार से नहीं पटक पाई तुम
कोई खिलौना
दुखों ने लील लिया तुम्हारे रुष्ठ होने पर
मनाए जाने का सुख
जैसे चटका था मेरा हृदय
तुमसे बिछड़ते समय
वैसे ही चटकेगी अज्ञात दिवस शरीर की कई शिराएं
तुमसे पृथक होने के बाद भी
 
मैं पुनर्जन्म की बात को सच मानूंगा
और विनती करूंगा ईश्वर से —
चुकाना है एक ऋण
पुन: करना है अथाह प्रेम मुझको
किंतु अगले जन्म तुम्हारा कोई प्रेमी नहीं
मुझे तुम्हारी माँ बना कर भेजे।
 
 
 
3.
 
देह पर हल्दी चढ़ने से पूर्व
मन की परतों पर
हल्दी के छींटे पड़ने प्रारंभ हो जाते हैं
वे लड़कियां अब छत पर चढ़ने के बाद
लोगों से आंखें फेरने लगती हैं
 
दृष्टि के सूक्ष्म लेंस से
निहारती हैं जब उन दो छोटी बच्चियों को
तब निश्चित ही स्मरण होता होगा उन्हें अपना नासमझ बचपन
पड़ोसियों के दुआरे पर जा कहते —
“ चलअ हो चाची, गीत गावे के बुलाहटा हव् ”
विवाह के पांच दिन पूर्व घर शादी के माहौल में झूमने लगता
बूढ़ी दादी देवता को पूजने लगती
घर की औरतें गीत की तैयारियां शुरु कर देतीं
हर सांझ आंगन में गूंजने लगता गीत का मधुर स्वर —
अंखिया के पुतरी हईं, बाबा के दुलारी
माई कहे जान हऊ, तू मोर हो!
उन्हें अस्वीकार देना था त्याग की इस परिभाषा को
जहां घर से दूर कमाने गए लड़के को
वापस घर जाने की प्रतीक्षा होती हो
किंतु घर से ब्याह दी गई लड़की की प्रतीक्षा
पिता के घर जाना
भाई के घर जाना
पर अपने घर जाना नहीं होता
वो घर जहां से पिता की उंगली पकड़े
दो चोटी बांध
एक टूटी हुई दांत के साथ
मुस्कुराते हुए निकलती थी कभी स्कूल को
वह घर मात्र अब उसकी स्मृतियों में कैद है
परंतु अधिकार में नहीं।
इतना विचारने तक मध्य रात्रि हो चुकी होती है
गांव की औरतें वापस जा चुकी होतीं
दिन अब पांच से चार बचे हैं
पुन: कल चार से तीन बचेंगे
अबोला दु:ख
कैसा मधिम मीठा दर्द पैदा करता है
 
जब निद्रा में गोते लगाए डूब चूकी होती है समुचे प्रसन्नता के बीच
बहती पीड़ा की नदी में
तब संभवतः
उसी रात
कुछ लड़कियां उठाती हों कलम
लिखती हों प्रिय को एक प्रेम पत्र
जिन्हें अपने हिस्से के प्रेम को स्वीकारने का अवसर नहीं मिला।‌
 
4.
 
 
विवाह /
 
 
हमारे यहां दो व्यक्तियों से पहले शादी‌
धर्म की होती है
जाति की होती है
परिवारों की होती है
नीतियों की होती है
परंपराओं की होती है
उम्र की भी होती है!
किंतु हमारे यहां की शादी
कभी भी दो प्रेमियों की नहीं होती
उनके इच्छाओं की नहीं होती
दो जोड़ों की खुशियों की नहीं होती
उनके खुद के निर्णय की कभी नहीं होती
शायद समाज का मानना है कि
प्रेम के बंधन से ज्यादा मजबूत
सर पे थोपा गया जिम्मेदारी का बंधन होता है।
 
 
 
 
• मनीष यादव
बिहार राज्य के पटना से मनीष यादव वर्तमान में बिहार प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने के साथ-साथ लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं। मनीष की कविताएं कविताकोश, कृति बहुमत पत्रिका और कुछ अन्य जगहों पर प्रकाशित हुई हैं।
 
 

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