कविता के बारे में

मानवीय सवालों से जूझती कविता “कुरुक्षेत्र”

 

डॉ. रति सक्सेना

 

 

कुरुक्षेत्र, जहां अपने और परायों के बीच, सच्चाई और झूठ के बीच, जिन्दगी और मौत के बीच परिणाम की प्रतीक्षा किए बिना एक अनवरत संघर्ष दहकता रहा। इतिहास के पन्नों के बीच से निकल यह कब और कैसे हमारी जिन्दगी में आ धमकता है, उसे महसूस करते हुए हम किस तरह उसे जीते हैं, यह सब कुछ समझने बूझने के लिए हमे जरूरत है एक दर्पण की जो हमें अपने-अपने कुरुक्षेत्रों से रूबरू कराने के साथ-साथ उससे बाहर निकलने का रास्ता भी दिखा दे। कवि, चिन्तक, दार्शनिक अय्यप्प पणिक्कर की कविता “कुरुक्षेत्र” एक ऐसे ही रूप में हमारे समक्ष आई है।

एक सरल युवक न जाने कितने सपने, आशाओं और आदर्शों के साथ कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है तो वह अपने को जिन्दगी के कुरुक्षेत्र में पाता है। एक असमंजस की स्थिति है, उसके सपनों और यथार्थ के बीच। वह हर क्षण अपने आदर्शों से बिछुड़ने का डर लिए, लड़ना चाहता है, जीतना चाहता है, और वह भी अपने ही हथियार से। महाभारत के कुरुक्षेत्र में किसी की भी जीत नहीं हो पाई, कारण जो मर गए, उनका समूल नाश हो गया, जो जी गए,  वे भी बच कहां पाए, अन्ततः अपने ही अतीत में गल कर मर गए। लेकिन कवि के इस कुरुक्षेत्र में अन्ततः एक मार्ग दिखाई देता है। अय्यप्प पणिक्कर की यह कविता कवि की जिन्दगी के सीमित दायरे से निकल कर इस तरह सार्वभौमिक और सार्वकालिक बन गई है कि अपने रचना काल के 50 वर्ष उपरान्त भी समकालिक सी प्रतीत होती है।

कुरुक्षेत्र एक ऐसी कविता है जहां एक भी शब्द, एक भी भाव, एक भी विचार व्यर्थ नहीं गया है। हर पंक्ति भावों से सान्द्र है। भाव उड़ते नहीं, सामने बैठ कर सवाल पर सवाल करते जाते हैं। एक-एक बिम्ब अंगुलिमाल की तरह न जाने कितनी कथाओं की उंगलियां थमा देता है।

इन भावों का साक्षी है एक तारा – “दुनिया का हाट लग जाता है, सौदागर माल ढो-ढोकर आने लगते है, अपना मोल लगाते हैं और मोल-भाव भी खुद करते हैं।” रगें तड़कती हैं जमीन की और उसके खून से आसमान तक लाल हो जाता है। कितनी उलटबासियां हैं यहां—–, “आंखें आंसू पीती हैं, शिराएं  उबलता खून पीती हैं, कंकाल कुतरता खाल, जड़ें खींच लेतीं फूल, माटी निगल लेती जड़ों को।” कवि हर अनहोनी को परदे पर चलती कठपुतलियों की तरह पेश करते जाते हैं। पाठक हर पल को अपने भीतर महसूस करता हुआ कवि के साथ यात्रा आरंभ कर देता है।

 

कवि के रंगमंच पर एक-एक भाव अपने अभावों पर से पर्दा उठाते हुए आते हैं। धर्म के वेश में कलि पुरुष, आदमी के सीने में घुपते मन्दिर, मस्जिद या गिरिजाघर, जिन्दगी के कारखानों में अपने लिए औजार बनाते पण्डित, मुल्ला, पादरी। पाठक पर्दे के पीछे के व्यभिचार से वाकिफ होते हुए कवि के दुख में भागीदार हो जाते हैं। अब कवि और पाठक आमने सामने हैं –

“जब संस्कृति

काले धौले बादलों के बगीचे में

आग लगा

आंख मूंद लेती है तो

तू क्या समझ सकता है पाठक

मेरे जलते दिल की पीड़ाओं को?”

 

यहां से पाठक कवि की भूल-भुलैया मे विचरण करने लगता है।

 

“कुछ सपने रास्ता भटक गए

बोध ग्रहण का समय भटक गया

मरे हुए सपनों को

कफन ओढ़ा

सोती हैं यादें

और सुलाती हैं

लाल पीली लपटों की

चोटियों वाली चिता पर…”

 

 

ऐसा लगता है कि सृष्टि का कण-कण बिम्बों के रूप में साकार हो उठा है। कवि और पाठक आमने सामने आ जाते हैं। उनका संवाद सृष्टि का संवाद बन जाता है, उनकी पीड़ा जिन्दगी की पीड़ा बन जाती है। कवि पूछता है –

 

“तू सब भूल गया पाठक!

हम दोनों में समान व्यथाएं जलती हैं

अपने कच्चे सपने को भी भूल गया?

तू अब भी फंसा है

प फ फम के गीतों में?…

 

कविता के तीसरे भाग तक आते आते पाठक फिर अनेकों सवालों से घिर जाता है –

 

हम क्यों पैदा हुए है जमीं पर?

इन हड्डियां चमकाती पहाड़ियों पर?

सीता को जंगल में छोड़ने के लिए?

रावण का खून पीती लंकाओं के लिए?

कौन विभीषण, कौन सुग्रीव यहां?

क्या वसिष्ठ ही सब सन्मार्ग बतलाएंगे?

 

 

– ये सवाल कवि पाठक के लिए बोधिवृक्ष बन जाते हैं और यही से कवि – पाठक एक नया रास्ता तलाशने लगते हैं। —

क्या विश्व बैंक को इससे ज्यादा सच्चाई मालूम है?

 

– उन्हें विश्वास होने लगने लगता है कि रास्ता खुद ही तलाशना है, काल तक सही मार्ग नहीं बता सकता है। वे कहते हैं—

 

“सन्देह करें हम घटनाओं को दौड़ाते उस काल पर

जिसने हमें, सिर्फ हम बना कर छोड़ दिया”

 

अपने तर्क की पुष्टि के लिए कवि अनेक घटनाओं को उलांघते हुए बढ़ता जाता है। भूत और भविष्य की कसकसाहट बार-बार सामने आ खड़ी हो जाती है, किन्तु अन्ततः वे अपने को पहचानते हुए जीवन अमृत को प्राप्त कर लेते हैं—

 

“इस लम्बे सन्नाटे में जब हम

नाड़ियों की धड़कन जानने के लिए रुके

तब रुकना नहीं है बोधिवृक्ष की छाया में

अगर दिल में बोध जगाना है तो

कालवरी की पहाड़ियों की कथाओं को गाना नहीं

अगर मनुष्य बने रहना है थोड़ी देर को।”

 

कुरुक्षेत्र कविता में जिस तरह से पीड़ा, वेदना और निराशा छाई है, ऐसा लगता ही नहीं कि अन्ततः कोई मार्ग सुझाई भी पड़ेगा। किन्तु अन्त की कुछ पंक्तियां कविता के पूरे रूप को बदल देती हैं, पाठक को काले अंधकार में भी रास्ता सुझाई देता है। यह वह रास्ता है जो किसी के अनुकरण से नहीं मिला है बल्कि जिसे स्वयं व्यक्ति ने खोजा है, वह भी अपने ही ज्ञान की नाभि में।

 

विषय वस्तु के अतिरिक्त कुरुक्षेत्र की विशेषता है–कविता का शिल्प-विधान और शैली। यह एक लम्बी कविता है, कोई सन्देह नहीं, पर इतनी लम्बी भी नहीं कि इतने सारी घटनाओं को समा ले। कवि जिस तेजी से विषय परिवर्तन करते हैं, अचंभा होता है। एक के बाद एक घटनाएं आती हैं, कहीं सम भाव से कहीं विषम भाव लिए, लेकिन कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि सूत्र टूट गया हो। इतने सारे विषयों को इतनी छोटी सी परिधि में बांधना कितना कठिन है, यह हम सब जानते हैं, यही कारण है कि यह कविता जटिलता का आभास देती है। मलयालम साहित्य के छात्रों के लिए जटिल मानी जाने वाली यह कविता जिन्दगी के इतनी करीब है कि हर संवेदनशील व्यक्ति इसे अपने भीतर महसूस कर सकता है। संभवतः जटिलता में सरलता, पराजय में जय, पीड़ा में आनन्द और निराशा में आशा दिखलाने के लिये ही कवि ने कुरुक्षेत्र लिखी है। यही कवि का कवित्व है। कुरुक्षेत्र कविता का कुछ अंश प्रस्तुत किया जा रहा है। पूरी कविता लम्बी होने के कारण किसी अन्य अंक में दी जाएगी।…

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