समकालीन कविता
जोन्न टोलसन
मैं और कविता
कागज है कैनवास
कलम है तूलिका
मैं खींचती हू्ं शब्द, रंगों की तरह
प्रतीकों में बदलते हुए
हर लकीर के साथ
कार्बन कापी
ब्रह्माण्ड की दूसरी कार्बन कापी में
धरती जैसे दूसरे नक्षत्र हैं
एक ईश्वर
एक दृष्टि
नर-नारी में मेलमिलाप
डी एन ए की आतशी प्रति
हर प्रति और स्वर्ग का प्रतिरूप
हम सब ईश्वर की घड़ी में हैं
जब तक यह बंद न हो जाए
मेरे पिछवाड़े खरगोश
एक खरगोश सो रहा है
मेरे घर के पिछवाड़े
वह जाग गया
जम्हाई ली,
अचानक छलांग भरी
फिर रुक गया
चारों पंजो को हिलाता हुआ
आगे से पीछे मुड़ा
फिर मुड़ कर जोर से लगाई छलांग
चरने लगा बगीचे की घास
मुड़ मुड़ कर पीछे देखते हुए
बूढ़े आदमी का चलना
वे चलते हैं सड़क किनारे, मकड़े की तरह
छड़ी के सहारे आगे बढ़ते
पीछे झुकते
बन गये हैं ग्रीक पहेली
पहले बच्चा
फिर आदमी
फिर बच्चा
मैं देख रही हूं पिता का मिटना
रेत पर खिंची लकीर जैसा
दो कदम आगे, दो पीछे
अब वे पढ़ नहीं सकते यह कविता
बिस्तर पर लेटे हुए
चिन्ता ही नहीं उन्हें इस दुनिया की
वे सोच रहे है अन्त के बारे में
बूढ़े अनन्त का सफर करते हैं।
जोन्न टोलसन (Joanne Tolson)
जोन्न टोलसन नार्थ करोलिना के न्यूपोर्ट में रहती हैं। उन्होंने 1992 से कविता रचना शुरु किया है, वे कथाकार भी हैं। जोन्ने की कविता की विशेषता सहजता और सच्ची अनुभूति है, इन कविताओं का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद संपादक रति सक्सेना ने किया है।
अजय यतीश
कोयला कामगार
धरती की अतल
गहराईयों में
अंधकार के
अंतहीन सूनेपन में
घना खालीपन में
पसीना रोज बहाता हूं
वह साहस ही है
कि हमारी ही ताकत
अंधियारों की
काली चट्टानों को
तोड़कर दुनिया को
रौशन करती है
काले सूक्ष्म जहर
जमा होते हैं रोज
मेरे फेफड़े में
सब मौन हैं
मेरी धीमी मौत पर
किससे कहूं
गूंगी आंखों की दास्तान
मौत को मात देकर
लौटता हूं अपने घर
बासी विचारों के धंधेबाजों
मेरे हक़ के लिए
शब्दों के नारे
अखबारों में रोज फेंकते हैं
उसी पर अपनी रोटी सेंकते हैं
ताकि वे अपना वर्चस्व
कायम रख सकें
एक पूर्ण मजदूर नेता
बने रहने के लिए।
हाशिये पर खड़ा आदमी
आप तो थे अनपढ़
जी रहे थे,
गुरबत की जिन्दगी
इतिहास कथाओं से
थे अंजान
नहीं थी लिप्सा शोहरत की
भले ही वह बहाना था
पत्नी प्रेम का
लेकिन आप तो
बन गये प्रतीक पुरुष
बन गये मिशाल
दुनिया के सामने
यह अलग बात है
कि आपके जज्बे को
कुछ लोग जोड़ते हैं
सिरी, फरहाद से
तो भी क्या बुरा है
कि आपने बताया दुनिया को
कि हाशिए पर
खड़ा आदमी भी
दे सकता है
पूरी दुनिया को मिशाल
पौरूषत्व का, इंसानी जज्बे का
और नैसर्गिक प्रेम का
इसीलिए तो दुनिया ने
कहा आपको माऊन्टेन कटर
आप में कैसी थी
जज्बात की आंधी
ओ दशरथ मांझी ।
सन्नाटों के बीहड़ों में
चिता की लपटें
धधक रही थी
उनकी बेबस आंखें
सब कुछ देख रही थीं
जितनी तेज होती लपटें
उतनी ही यादों में
वे डूबने लगते
धीरे-धीरे
चिता शांत पड़ने लगी है
मां दिल पर पड़े
हर बोझ से मुक्त होकर
चली गई अनाम दिशा की ओर।
पिता के चेहरे पर अब
चिड़चिड़ापन
सबको नजर आयेगा
पर उनके दर्द को कोई
महसूस नहीं कर पाएगा
सब कुछ बहा दिया
समय की विसंगत धारा ने।
सन्नाटों के बीहड़ों में
मां की आवाज को
उनके पदचापों को
वे रोज तलाशते हैं
दर्द भरी आंधियों को
सांसों के बीच समेटे
इसलिए
गहराती शाम
की उदासियों में
अक्सर ही पिता
हो जाया करते हैं खामोश।
किन्नर का दर्द किन्नर की जुबानी
एकबार उन्हें जी भर के
देखना चाहता हूं
लिपट कर उन से
खूब रोना चाहता हूं।
इसलिए भटकते हुए
पुरखों की पवित्र भूमि पर लौटा हूं
अपनों से मिलने।
ये क्या!
वक्त की विनासक आंधियों ने
घर का तिनका तिनका
उजाड़ दिया।
खण्डहरो में बदल गया
वह मेरा घर।
मुझे जन्म देने वाले
दुनिया से विदा हो गए
गुरबत की परछाइयों ने
भाई बहनों को
अंजान शहरों में
पलायन को मजबूर किया
इस भयावह मंजर को देखकर
बेताब मन टूटने लगा
इस निष्ठुर समय को
चुपचाप देखता रहा
मेरा मन आंखों से कहा
शेष बचे मेरे बचपन की
यादों को समेट लो।
लाल आंखों से उलीचता रहा संताप
हताश होकर पुनः
लौट आया हूं आदमी के इसी जंगल में
जहां मेरी तालियों की आवाज से
लोग घबराते हैं I
मजहब
पूछा गया था
उससे उसका नाम।
जवाब मे उसके होठ
फड़फड़ाये थे, पर
आवाज उसके गले मे
ही चिपक कर
रह गयी थी कहीं
तभी भीड़ को चीरता
एक खंजर
उसके सीने में
उतर आया था सहसा।
इस तरह हुआ था उस दिन
एक देह एक नाम
एक जात और
एक मजहब का अंत।
अजय यतीश
जिला औरंगाबाद, बिहार के एक गांव मदनपुर में जन्में कवि अजय यतीश के “स्पार्टकस तुम्हारी मेहनत बेकार नहीं गई” और “जयपुर और मुक्ति के लिए” कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कवि अजय की कविताएं दर्जनों साझा संग्रहों में सम्मिलित हो चुकी हैं, कुछ कविताओं के अनुवाद गुजराती, बांग्ला और अंग्रेजी में भी हुए हैं। अजय यतीश सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड के चिकित्सा विभाग में सीनियर ओटी असिस्टेंट पद से अवकाश ग्रहण के बाद स्वतंत्र लेखन कार्य में सक्रिय हैं।
सौरभ अनंत
भोपाल : तुम
पता है
तुम्हारी दोनों आंखों के
अपने नाम हैं
एक बड़ी झील
दूसरी छोटी झील
और पता है
वो जो कील पहनी है न
नाक पर, तुमने
वो ढाई सीढ़ी की
इबादतगाह है
मैंने अक्सर वहां पंहुच
ढाई अक्षरों की इबादत
सीखी है
एक प्रश्न
शाम
इक बात बताओ
रंग सारे
कैसे पहन लेती हो तुम
एक साथ, एक ही लिबास में?
ख़ुशबू सारे फूलों की
कैसे महका देती हो तुम
एक साथ, एक ही गहरी सांस में?
गीत सारे पंछियों के
कैसे गुनगुना देती हो तुम
एक साथ, एक ही मुस्कुराहट में?
शाम
मिलकर मुझसे, जब
पुकारती हो तुम मुझे — ‘सुनो..’
प्रेम सारी दुनिया का कैसे समेटती हो तुम
एक साथ, एक ही शब्द में?
बताओ न
बताओ तो!
कामा
नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका कौमार्य
नदी का प्रस्फुटन
उसके प्रेम का प्रस्फुटन होता है
उसके अपने विद्रोह हैं, जड़ों के प्रति
जो उसके के मोड़ कहलाते हैं
नीला रंग नदी का रंग नहीं
वो आसमान का पागलपन है, नदी के प्रति
और धरती पर फैला हरापन
नदी से मिले संस्कार
चंद्रमा स्वयं का विसर्जन करता है
नदी की प्रेम यात्रा में
और स्वप्न कहलाता है
सूर्य, शान्ति की खोज में निकला एक साधु
सूर्यास्त उसका समर्पण
गहरे तल में लुढ़कते पत्थर
नदी के सहयात्री हैं
समाधि की ओर
उसकी धाराएँ, उसकी प्रार्थनाएँ हैं
और उद्घटित ध्वनियाँ, मंत्रोच्चारण
नदी अकेली नहीं बहती
साथ बहता है उसका अल्हड़पन
दुनिया का समूचा उतावलापन
बहना, नदी का प्रेम है
वो कभी अकेली नहीं बहती
समुद्र की ओर
सृष्टि
( भारत भवन में कल्याणी फगरे की ओडिसी नृत्य प्रस्तुति देखकर )
किसी पौराणिक मंदिर में
सदियों पहले, स्तुति में जली धूप से
उठा है धुँआ
गूँजते नाद में
दूर धुँधलके से झाँकता कोई देव
भेदता है बाण उस धुएँ में
प्रार्थना में उठता धुँआ
हो जाता है मोर-पंख
धुँआ चंद्रमा बन, खिल आता है
तीसरे नेत्र सा
शिव ताँडव में, मुस्कुराता है
किसी पौराणिक मंदिर में
सदियों पहले, स्तुति में जली धूप से
उठा धुँआ, अब नदी है नीली
उसकी जटाओं से निकलती
धुएँ का रंग
अब नीला है
दोहराव
बारिश का आना
बारिश के आने की
याद की तरह है
सारे भीगते पहाड़ी मंदिर
जहाँ हम साथ थे
तुम्हारी स्मृतियों के
खंडहर लगते हैं
हमारी प्रार्थनाओं ने
हमेशा कुछ छीना ही है
मुझे अहसास है
मैं हर बार मंदिरों में
थोड़ा और अकेला पंहुचा हूँ
जैसे इस बार बिना तुम्हारे
बिना तुम्हारे
बारिश किसी प्रार्थना की तरह
दोहराती है ख़ुद को
और मंदिर धुँध में
ओझल होते जाते हैं
…
सौरभ अनंत
विहान ड्रामा वर्क्स के संस्थापक। नाट्य निर्देशन व प्रशिक्षण के साथ ही मौलिक नाटकों का लेखन। तोत्तौ चान व अन्य कहानियों का नाट्य रूपांतरण, अनुवाद भी। वर्तमान में कविता तथा कथा लेखन में सृजनरत। निर्देशन की रचना प्रक्रिया पर सतत चिंतन व लेखन। रंग प्रसंग तथा रंग संग में आलेख प्रकाशित। सदानीरा तथा हिंदवी पर कविताएं प्रकाशित।
अजय दुर्ज्ञेय
1. मातृभाषा
जब कभी
कोई पूछता है कि
तुम्हारी मातृभाषा क्या है?
तो कुछ नहीं सूझता,
कुछ नहीं फूटता – हकला जाता हूं।
ऐसे में मुझे माँ याद आती है
और याद आता है कि
विवाह के इतने वर्षों बाद जब कभी
भूले से भी माँ बोल पड़ती है अपनी भाषा तो
दादी, बुआ, पापा, चाचा और मैं-
सब हंस पड़ते हैं अचानक। माँ तुरंत बदल लेती है शब्द,
बदल लेती है लहज़ा और एक फीकी हंसी ओढ़ लेती है
शायद इसीलिए जब कभी
कोई मुझसे पूछता है मेरी मातृभाषा तो
ज़बान तालू से चिपक जाती है,
शब्द इधर-उधर छिप जाते है और
मैं मातृ शब्द से आगे नहीं निकल पाता। मैं कहना चाहता हूं कि
घर, मकान, खेत, दुआर, नाम, पहचान की तरह
मेरी माँ की भाषा भी उनसे छीन ली गई है। उन्हें एक राक्षसी हंसी ने लील लिया है। वह हंसी मेरी है, मेरे बाप की है, मेरे बाप के बाप की है। मैं पुनः कहना चाहता हूं कि
मेरी कभी कोई मातृभाषा नहीं रही:
मेरे पैदा होने से बहुत पहले ही मारी जा चुकी थी मेरी मातृभाषा,
जिसकी मृत देह पर मैंने भी भांजी हैं लाठियां।
2. गाली
तुम्हारे द्वारा
मुझे माँ या बहन की गाली दिए जाने के प्रत्युत्तर में
मेरे ख़ामोश रह जाने को
मेरी कमज़ोरी कहने के बजाए
तुम्हारी माँ के प्रति मेरा सम्मान समझा जाना चाहिए
मेरी यह ख़ामोशी,
मेरा धैर्य नहीं वरन विवशता है
यह तो सच है कि मैं तुम्हारी माँ को नहीं जानता मगर
तुम्हारी माँ शब्द आते ही मेरी आँखों में
तैर जाती है मेरी माँ,
तुम्हारी बहन शब्द आते ही सामने उपस्थित हो जाती है एक परिचित रूपाकृति। और…
और मैं ख़ामोश हो जाता हूं
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि तुम्हारी गालियां
मुझे उद्देलित या आंदोलित नहीं करतीं।
करती हैं मगर मेरे आंदोलन का कार्य-क्षेत्र,
तुम्हारी तरह किसी माँ या बहन की योनि नहीं
वरन समूची पृथ्वी है…
और इसीलिए
मेरा क्रोध भी गाली नहीं
परिवर्तन लाएगा
3. निर्वासित
मुझे अखरता है
उस कवि का अदृश्य किया जाना,
कहीं न दिखना। जिसकी कविताओं में
यत्र-तत्र दिखता है मेरा गांव,
मेरी बस्ती, मेरी बातें। मैं देखता हूं
वह कहीं नहीं दिखता। वह जसम, जलेस, प्रलेस,
मंडला, जबलपुर, दिल्ली… – कहीं नहीं दिखता
ठीक इसी समय
झोला लटकाए, चेहरे पुतवाए
भेंड़ों की भांति,
अपने-अपने वाहन पर
दिल्ली को कूच रहे हैं कुछ कवि (कवि ही)
और वह मेरा प्रिय कवि,
मेरा गुमनाम मगर प्रतिभाशाली कवि
पास की मेड़ पर बैठा घास खोद रहा है
चूंकि
उसका ऐसे बैठना
मुझे अखरता है इसलिए पूछ बैठता हूं –
आप दिल्ली नहीं गए ?
ऐसे समय जब हर कवि
येन-केन-प्रकारेण दिल्ली जा रहा है/जाना चाहता है
तब आप क्यों नहीं गए जबकि
आपकी कविताओं को दिल्ली पहुंचे अरसा हो गया
वे घास नोचते हुए कहते हैं-
‘मुझे भी अखरता है
मगर क्या है न कि
एक कवि के न दिखने से कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है –
उस कवि का ग़लत जगह दिखना…
और उससे भी बड़ी बात यह है कि
अगर घास खोदना ही लक्ष्य है तो
इस खेत से बेहतर जगह और क्या होगी ?’
(मैं मुस्कुराता हूं)
4. शुतुरमुर्गों से मिलते हुए
दो कवि,
मेरे सामने बैठे हैं।
दोनों ही ऐंठे हैं-
एक फलीस्तीन के लिए दुःखी है
और दूसरा मणिपुर के लिए। मगर बात इतनी भर ही नहीं है,
क्योंकि मेरे सामने एक तीसरा कवि भी है जो
न तो बैठा है और न ही तो खड़ा है। उसके अनुसार,
वह और उसका काव्य – इन सभी मसलों से बड़ा है
ख़ैर!
मैं सोचता हूं कि
क्या अंतर है फलीस्तीन और मणिपुर में मिली
जली- नुची, बची- खुची लाशों में?
मैं सोचता हूं लाशों का शास्त्र और पाता हूं कि
कोई देह जब लाश बनती है तो दुःख जन्म लेता है मगर
क्यों हम सिर्फ़ उसी लाश पर दुःखी होते हैं
जिसकी गंध से हमारी नाक और आत्मा फटने लगती है?
क्या सच में हम दुःखी होते भी हैं?
पहला कवि कहता है-
दुःख का समीपता से रिश्ता है।
तो मैं गाज़ा के लिए कविता लिखने वालों से पूछता हूं कि क्यों
मणिपुर की लाशें नहीं भेद पातीं उनकी चेतना के रंध्र?
और यह भी बताएं कि दिल्ली या अयोध्या से मणिपुर पास है
या फिर गाज़ा, इज़रायल या ज़ेरुसलम?
और यदि ऐसा नहीं है-
दुःख का समीपता से रिश्ता से नहीं है।
तो मैं मणिपुर के लिए कविता लिखने वाले से पूछता हूं कि
यद्यपि वह लाशों के ढ़ेर पर ही बैठा है मगर
उसमें गाज़ा की लाशें शामिल क्यों नहीं हैं?
और इसी बीच तीसरा कवि जागता है।
होंठों पर मंचीय मुस्कान लाते हुए बोलता है-
मिया! यह भी कोई कविता है?
अरे, कविता तो फ़लाना है, ढिमका है।
मैं उसे नहीं सुनता… मेरे लिए वह मुर्दा है।
मैं वहां से उठ जाता हूं। और यद्यपि वे तीनों
बड़े कवि हैं,
नामी हैं,
सिद्ध हैं-
मगर मेरे लिए तीनों शुतुरमुर्ग हैं, गिद्ध हैं।
और इसीलिए मैं उनमें से किसी को नहीं सुनता।
मैं बस कविता को सुनता हूं,
कविता से पूछता हूं कि ओ मेरी कविता!
क्या यहां एक भी ऐसा कवि नहीं है
जो मणिपुर, गाज़ा या ज़ेरुसलम की लाशों के इतर
सिर्फ़ लाशों के लिए दुःखी हो।
एक कवि जो सिर्फ़ कवि हो।
अजय दुर्ज्ञेय
युवा कवि अजय दुर्ज्ञेय का जन्म 21 जून 1998 को कन्नौज (उत्तर-प्रदेश) के एक छोटे से गांव सीहपुर में हुआ। अजय ने जवाहर नवोदय विद्यालय से इंटर, काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में स्नातक किया और अब इग्नू से परास्नातक उत्तरार्ध के छात्र हैं। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन करते हुए अध्ययनरत हैं।
नीरज
अजय दुर्ज्ञेय को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता लगती है।
अच्छी-अच्छी कविता।