
समकालीन कविता
देवेश पथ सारिया
शीर्षक : जब परखी जा रही होती है सुंदरता
एक सौंदर्य प्रतियोगिता में पूछा गया एक प्रश्न :
आपके लिए सफलता का मतलब क्या है?
जैसा कि होता है
नक़ली मुस्कुराहट ओढ़ी
उस सुंदरी ने दिया एक नक़ली-सा जवाब
और तमाम इसी तरह के सवाल-जवाबों के बीच
चुन ली गई एक विजेता
उस प्रश्न के हो सकते थे उत्तर और भी कई
अधिक ईमानदार और ज़मीनी
जैसे, अगर आप प्रसन्न हैं, तो आप सफल हैं
(जवाब जो जॉन लेनन ने स्कूल में दिया था)
आप जो भी काम करते हों
मयस्सर हो आपको दो जून की रोटी, छत और बिस्तर
इतने में भी आप ख़ुश रह सकते हैं
यदि आप फूलों से करते हैं उत्कट प्रेम
बीज से अंकुर फूटना यदि आपके लिए सृष्टि का सुन्दरतम दृश्य है
तो आप बाग़वान या किसान होकर हो सकते हैं सफल
जवाब जैसा कि एक पत्रकार को
मुज़फ्फरपुर की तीसरी कक्षा की छात्रा
फ़लक परवीन ने दिया था
कि वह बड़ी होकर ‘अच्छी’ बनना चाहती है
जॉन लेनन से कमतर नहीं था फ़लक का जवाब
सरल रेखीय नहीं होता
सौंदर्य प्रतियोगिताओं का विज्ञान
नहीं चाहतीं प्रायोजक कंपनियाँ
निष्कलुष बने रहने की ललक
एक बाग़वान की ख़ुशहाली का ज़िक्र,
न ही उनका सच्चा मंतव्य होता है
स्त्री मन की थाह पाना
बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहती हैं
ग़रीबी में जिये जाते ग़रीब
मरते हुए किसान,
ताकि ग़रीबी और विफलता का डर
रख सके बाज़ार को जीवित
डरी हुई आँखों में धूल झोंककर
वे कुछ और बहुराष्ट्रीय हो जाएँ
जब बनावटी प्रश्नोत्तरों और नक़ली आभा से
परखी जा रही होती है सुंदरता
तब सबसे सुंदर स्त्रियाँ
कर रही होती हैं जद्दोजहद
डिंब तोड़ने की
प्रतीक्षा पंख उग आने की
कामना उड़ पाने की
मेरी अपनी देखी सबसे सुन्दर स्त्री
ब्रेल लिपि में अपना पाठ पढ़ रही
वह बच्ची थी
जिसे विज्ञान समझाते हुए
आवाज़ सामान्य रखने की कोशिश करता मैं रो रहा था
इससे अनभिज्ञ वह
सुन-सीख रही थी
सबसे सुंदर मुस्कान ओढ़े
सौन्दर्य के मंच पर
कोकून से बाहर आने की प्रक्रिया सुनिए
इंद्रधनुषी परों वाली उड़ती तितलियों की
और एकतरफ़ा क्यों हो कोई संवाद
पूछने दीजिए
इन तमाम सुन्दर स्त्रियों को
उनके हिस्से के सवाल।
गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त…*
सिर्फ़ बादशाह नहीं
बौराया होगा
कोई सैनिक भी
पहली बार देख कश्मीर को
सैनिक भी रहा होगा पाबंद
पाँच वक़्त बंदगी का
उसने भी खोजे होंगे
जन्नत के पर्याय
किया होगा प्रेम
तलवार के अतिरिक्त
किसी स्त्री से, पुष्प से, चट्टान से
या सबसे छुपाकर,
शायद घृणा ही की हो तलवार से
संपूर्ण रूमानियत बटोरकर
दीदार-ए-कश्मीर पर
कही होगी उसने भी
कोई पंक्ति, नायाब
फुसफुसाकर
बग़ल वाले सैनिक से
अपने मन में बुनी हुई
या अमीर ख़ुसरो जैसे
किसी उस्ताद शाइर की लिखी हुई
पंक्ति उसकी
दर्ज होने से रह गई
किताबों में, इबारतों में, इमारतों पर, क़ब्रों के पत्थरों पर
वह जीव था
शाही दावतख़ाने के बहुत बाहर का
और रियाया की हैसियत होती आई है
अदना-सी।
* इस कविता के शीर्षक ‘गर फ़िरदौस …’ के लेखक के बारे में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इसे अमीर ख़ुसरो द्वारा लिखित मानते हैं, कुछ इतिहासकार बात से सहमत नहीं हैं। अनेक उद्धरण इन पंक्तियों को जहाँगीर द्वारा कश्मीर के संदर्भ में कहा जाना बताते हैं, जहाँ यह संभावना है कि जहाँगीर ने किसी अन्य लेखक की पंक्तियों का उपयोग कश्मीर की नज़ीर देने में किया हो। मुग़ल काल की कुछ नायाब इमारतों के लिए भी इन पंक्तियों का उल्लेख मिलता है।
ख़ुदा का दर-बदर जवाक
फिलिस्तीन, एक मुल्क
कोई कसर नहीं छोड़ी गई
जिसे राख का ढेर कर देने में
नवजात शिशुओं की सुकोमल त्वचा
धमाके से खोल दी गई
फट पड़ा मांस
हर उम्र के आदमी का
हर उम्र की औरत का
जहाँ घर-गृहस्थी के मसलों पर बात हुए अरसा हुआ
जहाँ साथ बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाए अरसा हुआ
ऋतुएँ बीत जाती हैं बिन गुल खिलाए
मुद्दतें गुज़रीं दिलबरों को बैठे, बतियाए
सारे ठिकाने, सब आशियाने हुए उजाड़
हर रोज़ गिनती में जुड़ते हैं नए अनाथ
अपनी राख को चिमनी में पकाकर ईंटें बनाता
फिर से उठ खड़ा होने की कोशिश में लड़खड़ाता
मध्य-पूर्व का एक सताया हुआ बिरादर
जिसकी नब्ज़ टटोलो तो दिल डूबता है
जिसका नाम एक इंक़लाबी नारे सा गूँजता है
दुखती हुई रग, पका हुआ फोड़ा
मेरे जी का टुकड़ा-टुकड़ा
ख़ुदा का दर-बदर जवाक
फिलिस्तीन।
मूड स्विंग्स ज़ोन
वह ख़ुद को घोषित करती थी—
मूड स्विंग्स ज़ोन
मुझे वह कह देती थी
कभी बिल्कुल सच्चा
और मुझे ही बता देती थी कभी-कभी
कारण उसके त्वरित आवेश का
मैं जानता था
उसका इतिहास
अनावृत्त देखे थे मैंने
बचपन में पाए हुए उसके घाव
जिनसे रिसती थी वजहें
उसके मूड स्विंग्स की
दोलन करते उसके दिमाग़ को
साम्यावस्था में ही रखने की
कोशिश करनी थी मुझे
साम्यावस्था से हर विचलन की
ज़िम्मेदारी भी होनी थी मेरी ही
इस बात पर हामी भरी उसने
कि बोरियत भरा होगा
उसके लिए सदा सामान्य रहना
मैंने पूछा कि क्या वह मुझे मानती है
बोरा भर हँसी और चुटकी भर उन्माद
उसने कहा :
“शायद”
शायद कहकर
उसने खुली छोड़ दी एक खिड़की
जिससे मैं आ सकता था
अपने सच और बेबाकी के साथ
हवा-रोशनी भी
यूॅं ही किसी खिड़की से आती थीं
सहलाती थीं उसका रोम-रोम
मिटाती थीं बुरी छुअन की याद
और वह पुरसुकून नींद सो पाती थी।
बाइपोलर प्रेम
क़िस्से की शुरुआत में तुमने सोचा था—
उस तरफ़ एक भावनाशून्य इंसान रहता है
जो जेब में हाथ डाले, बेतकल्लुफ़, ठहरा-सा है
तो तुमने ठानी ज़िद पहेली को सुलझाने की
मुझे लगा था
कि उस तरफ रहती है एक लड़की
जिसके आकाश में, मैं ही मैं हूॅं
पता नहीं क्यों हूॅं, पर हूॅं
अपनी निष्ठुरता के दिनों में
मैंने पूछा था एक बार तुमसे
कि क्या तुम बाइपोलर हो
जैसा कि तुमने अपने परिचय में लिखा है
और तुमने कहा था कि जान जाऊंगा मैं
जब मैं उदासीनता के धरातल पर था
तुम प्रेम के ध्रुव पर खड़ी मुझे पुकारती रहीं
कहाॅं मालूम था तुम्हें
कि बेतकल्लुफ़ परतों के भीतर
बसता है एक कोमल कवि
एक दिन मैंने शुरू कर ही दी
तुम तक पहुंचने की यात्रा
सोचकर कि इस बार प्रेम होगा सुलभ
‘जिगर’ साहब की बात होगी ग़लत—
न ‘आग का दरिया’ होगा, न ‘डूब के जाना’
तुम्हें अपने ही ध्रुव पर खड़े रहना था
वही केंद्र बिंदु था मेरे लिए सृष्टि का
लेकिन तुम चलने लगीं प्रेम की विपरीत दिशा में
जो बीच में थोड़ी देर का हमारा मिलना था
आमने-सामने से गुज़र जाना भर था
मानो किसी शरणार्थी कैंप में
हुल्लड़ से पहले का मिलना
तुम भावनाओं से बहुत दूर
धुंधलाते, मिटते गए चित्रों की दिशा में विलीन होती गईं
उदासीनता के मेरे धरातल को भी पार कर
चल पड़ी एक कंटीले रास्ते पर
जिससे लहूलुहान होते रहे मेरे पैर
चूॅंकि, अब मैं प्रेम में था
मैं कूद पड़ा घाट से
आग, काॅंटों और अनिश्चय का सामना कर
तुम्हें वापस ले आने
यही होती है नियति हर बार प्रेम की
जिससे बचने को मैं पहेली बना खड़ा था
मेरी परिणति में तुम्हें मिल गया
तुम्हारी आरंभिक पहेली का जवाब
मुझ पर हुआ ज़ाहिर—
तुम बदलती हो ध्रुव
इस बीच तुम कितनी बार बदलती रहीं अपनी मनःस्थिति
तय करती रहीं मेरा डूब जाना या तैरते रहना
बस, प्रेम तक लौटने का साहस न कर पाईं
तुम बदलोगी अपना ध्रुव फिर किसी दिन
मुझसे फिर से होगा प्रेम तुम्हें
मेरे एक और गूढ़ पहेली बन
खो जाने के बाद।
पुरस्कार/सम्मान : भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार (2023)।
प्रकाशित पुस्तकें : कविता संकलन : नूह की नाव (2022), कहानी संग्रह : स्टिंकी टोफू (2025) , कथेतर गद्य : छोटी आँखों की पुतलियों में (2022),अनुवाद : हक़ीक़त के बीच दरार (2021); यातना शिविर में साथिनें (2023).
अन्य भाषाओं में अनुवाद/प्रकाशन : कविताओं का अनुवाद अंग्रेज़ी, स्पेनिश, मंदारिन, रूसी, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और राजस्थानी भाषा-बोलियों में हो चुका है। इन अनुवादों का प्रकाशन एन ला मास्मेदुला, लिबर्टी टाइम्स, लिटरेरी ताइवान, ली पोएट्री, पोयमामे, यूनाइटेड डेली न्यूज़, स्पिल वर्ड्स, बैटर दैन स्टारबक्स, गुलमोहर क्वार्टरली, बाँग्ला कोबिता, इराबोती, कथेसर, सेतु अंग्रेज़ी, प्रतिमान पंजाबी और भरत वाक्य मराठी पत्र-पत्रिकाओं में हुआ है। A Toast to Winter Solstice (अंग्रेज़ी अनुवाद : शिवम तोमर, 2023) शीर्षक से एक अंग्रेज़ी कविता संकलन प्रकाशित।
सम्पादन : गोल चक्कर वेब पत्रिका, फ़ोन : 9784972672 ईमेल : deveshpath@gmail.com
कून वून की कविताएं
अनुवाद रति सक्सेना
तुम्हें मुझसे तभी प्यार करना, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ
मेरी जवानी में मुझसे प्यार करने की जरूरत नहीं
क्यों कि तब तो मैं खुद से प्यार कर सकता हूँ
सेब की टहनी के नीचे खड़े होने की जरूरत नहीं
किसी की भी सुडोल बाहें मुझे आसानी से उत्तेजित कर सकती हैं।
लेकिन मुझसे तभीी प्यार करना, जब मैं बूढ़ा हो जाऊं
जब मेरे हाथ-पैर ठंडे होने लगें।
इतने साल हम साथ रहे, दिखावा करते हुए कि
हम एक-दूसरे को नहीं जानते,
इसलिए, मुझे तब प्यार करो जब हम दोनों बर्फ में खड़े हों,
जब न तो खाने पीने की जरूरत ही न हो।
पानी की तरह
आज मैं अपने आप को सबसे उदास पानी की तरह महसूस कर रहा हूँ
जिसे लोगों ने नकार दिया है
पानी की तरह ही मैं भूमिगत कोठरी के सबसे निचले बिंदु तक पहुँच जाता हूँ
मैं खुद को बर्फ की तरह सख्त कर लेता हूँ
तेज दवाब डालने पर ही चटखता हूँ
उस भाप शक्ति के बारे में क्या कहूँ, जो मैं कभी था
विशाल टर्बाइनों को चलाता हुआ?
उस मन्दिम वर्षा के बारे में क्या कहूं,जो मैं
प्रेमी के साथ सोते हुए हुआ करता था।
जो हुआ है वह परिवर्तन है
जिसे स्वीकारना मुश्किल है
जो जितना ऊपर से आता है
उतनी कठोरता से जमीन से टकराता है।
आखिरकार सब कुछ बर्फ से ढका हुआ है
या समन्दर से बंधा हुआ है
होटल में आग
जब कोई सुंदर महिला मेरे सामने ऐसे रोती है
जैसे कि होटल में आग लगी हो
मैं लगभग सामान्य रहता हूँ
मांस निकालो
पेय लाओ
खुश रहो!
आग और रोशनी को बर्बाद मत होने दो!
कलम लाओ
इसे भावी पीढ़ी के लिए लिखो!
जारोस्लाव सीफ़र्ट तुम बिलकुल सही हो,
महिलाएँ हमें सबसे कम नुकसान पहुँचाती हैं
मैं एक कमतर नश्वर हूँ
लेकिन हम सभी नश्वर हैं
जब एक अकेली महिला रोती है,
पूरी रात जलती रहती है!
जब होटल जलता है,
तो मैं जल्दी ही सीख जाता हूँ,
कि तुम कितनी जल्दी कामना जागृत करती हो।
कून वून चीनी मूल के कवि हैं, जो अमेरिका में रहते हैं। सिज्नोफीबिया जैसी बीमारी से जूझते हुए सतत काव्य कर्म करते हैं, उन्होंने कविता के लिए अनेक सम्मान प्राप्त किए हैं।
दीपक सिंह
फिलिस्तीन की माँओ को समर्पित कुछ कविताएँ
1.
उन दिनों माँ
रोज पिता को खत लिखा करती थी।
धरती के
किसी कोने में आग लगी थी
और पिता
शांति के लिए युद्ध लड़ रहे थे।
पिता को लिखी आख़िरी चिट्ठी
जिसे चोरी छिपे
पढ़ लिया था मैंने-
मेरा ज़िक्र माँ ऐसे कर रही थी
जैसे पिता को “मैं” याद नहीं।
उस दिन
माँ ने ही तब बताया था मुझे
सबसे बदनसीब बच्चों के बारे में
सबसे बदनसीब बच्चों के पिता युद्ध से नहीं लौटते।
2.
अभी साँस ले रही है ज़िन्दगी
स्वप्न के गर्भ में
अभी देखनी है उसे यह क्रूर दुनिया और मनाना है मातम इस मरी हुई दुनिया पर
अभी अनजान है वह
बारूद और नफ़रत की भाषा से
असमान से बरसती है आग
थम जाती है ज़िन्दगी
बिखर जाता है स्वप्न
और टूटती है बचायी हुई उम्मीद
शाम की फरियाद में
ईश्वर सुनता है
बीते दिन का शुक्रिया और प्रार्थनाओं को रखता है ताक पर
फ़िर निराश लौट जाता है किसी अज्ञात घर में
एक घर जो पिछली रात हुआ है बर्बाद
बारूद की गंध फैली है आसमान ताकते कमरे में
एक स्पर्श जो छूता है उम्मीद के सपने
पार्श्व में बज रहा है―
“बॉब डिलन”
यह इंटरवल है―
कल क्षितिज रंगों से नहाएगा
फूल ताज़गी लिये जोर-जोर से हँसेंगी।
एक बच्चा दौड़कर गले लग रहा है अपनी माँ से
फ़िर नफ़रत के धामके में गुम हो जाती है―
वह आख़िरी तस्वीर।
3.
कहाँ से आती है बंदूके
कौन बनाता है इन मिसाइलों को
आखिर कौन भरता है बारूद हमारी आत्मा में
वह शहर जो अभी-अभी बिखरा है
यह किसकी लाशें हैं जो बे-आबरू हैं
वे किसके लड़ाके थे जिन्होंने चलायी थी गोलियां
उन्हें नहीं फर्क पड़ता है इन सब बातों से
वे खेलते हैं बगीचे में अपने बच्चों के साथ
और पीते हैं कॉफी
अभी टहलते हुए निकल आएंगे अहाते में और चूमेंगे अपनी पत्नी को इत्मीनान से
वे आश्वस्त हैं―
जितनी लाशें गिरेंगी किसी दूर मुल्क में
उतनी ही भरती जाएंगी उनकी
तिजोरियां!
4.
मेरे लिए यह दुनिया थोड़ी और मुश्किल हो गयी है
जबकि बच्चे मर रहे हैं कहीं दूर
और यहाँ मैं एक लड़की के प्यार में हूँ!
मैं उससे कुछ भी नहीं कहता―
प्यार का एक शब्द भी नहीं!
लेकिन वह जानती है मुझको और मेरे दिल पर हाथ रखती है!
उस रात जब मेरी नींद में बरस रही थी आग
तुम वहीं थीं―
मेरे बच्चों को बचाती हुई और तब मैं मर गया था तुम्हारी ज़ख्मी आत्मा को देखकर।
और आज जबकि मेरी कविता मेरे आँसू यह सबकुछ
तुम्हारे लिए है
फिर भी तलाशना उस दर्द को जो एक माँ को मिला है!
5.
क्या वह मेरा घर नहीं है
वहाँ क्या मेरी माएँ नहीं रहतीं
माँ,
मैं नहीं बचा सकता तुम्हारे बच्चों को मिसाइलों से
तुम तो जानती हो―
कविता लिखने से कुछ भी नहीं बदलता
कुछ आँसू और सूख जाते हैं!
माँ,
इसे तुम मेरी कविता मत समझना
यह मेरा मृत्यु-संदेश है जिसे तुम
पढ़ रही हो!
दीपक कवि लेखक है, अनेक विशिष्ट पत्रिकाओं में छप चुके हैं। उनकी कविताएा अलग स्वाद रखती हैं।