समकालीन कविता

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्लेष अलंकार

 

याचक और सुआ

 

उस दिन

प्रश्नों का भार लिए

नरम दूब पर

बैठा था कोई याचक

 

अचानक…

बावरे अहेरी ने

लक्ष्य साधा

रक्ततुण्ड पर

 

तीर निकलते ही

भाग गया

वह चपल

दाड़िमप्रिय

 

और रक्तिम

पलाश के

पुष्प याचक के

अंक में आ गिरे

 

दिशाओं ने

हाथ बढ़ाया

और समर्पित

कर दिया उसने

लहूलुहान पुष्प को

 

अब तक दूर

जा चुका था

बावरा अहेरी

दिन की गठरी लिए

 

और सुआ

कुछ उत्तर लिए

याचक की गदोरी में

रगड़ रहा था

अपनी सुर्ख चोंच ।

 

 

डाकिया 

 

उस दिन

फागुन की भरी दुपहरी में

आम के पेड़ तले

समय का डाकिया

थोड़ा सुस्ता रहा था

 

एक नन्हीं सी

चिड़िया कुछ

भूले-बिसरे गीत गा रही थी

और गेहूं की नवागत बालियों

को छूकर आ रही हवा

उन गीतों का

अनुवाद कर रही थी

 

दूर पगडण्डी के

उस पार

नीम की डाल पर

गांव की एक अल्हड़ लड़की

लाल रंग का धागा

बांध कर चली गई

 

तभी हौले से

एक गिलहरी पेड़ से उतरी

और साइकिल पर

टंगे झोले में से

एक रंगीन चिठ्ठी

निकाल कर

पढ़ने लगी

 

डाकिये से अब

न रहा गया

वह उठा और

साइकिल पर सवार

होते हुए

ट्रिन-ट्रिन घंटी

बजाकर सड़क से

ओझल हो गया ।

 

रोज…!

 

रोज

एक सृष्टि मचलती है

मेरे भीतर बुलबुल के

आधे-अधूरे आकाश की तरह

 

रोज

थोड़ी-सी मिट्टी

रौंदती है मुझे

कबीर की माटी की तरह

 

रोज

सूखता है एक सागर

मेरी आंखों में

किसी मैदानी नदी की तरह

 

रोज

पश्चिमी क्षितिज पर

डूबता है एक सलोना सूरज

किसी अज्ञात जीवन की तरह ‌।

 

बरजोरी

 

उस दिन

सरसों के पीले फूलों के बीच

किसी अनजान पगडण्डी सा

झांक रहा था फरवरी

 

देखो न कैसे

बाकी महीनों ने

बहला-फुसलाकर

छीन लिए हैं

बेचारे के सुंदर-सुहाने दिन

 

ये फागुनी बयार भी

बरजोरी से

फर-फर उड़़ाकर

आसमान की ओर ले जा रही है

साग खोंटती उस

अल्हड़ लड़की की

नीली ओढ़नी

 

तभी सहसा

जाने कहां से

नीड़ों की फूस पर

उतर आया

सम्भावनाओं के साथ

भूला-भटका जीवन ।

 

साधो

 

साधो

उस जंगल में

बीड़ी मत सुलगाना

जहां खिला है

अभी-अभी एक बुरुंश

 

साधो

उस बूढ़े लाचार

शब्द के शरीर से

पूस की कोहरीली

ठण्ड में मत उतारना

रोंएदार ऊन के कम्बल

 

साधो

उस काठ की

नाव में छेद तो

कभी न करना जिस पर

बैठा है दूर देश से

आया हुआ एक अनजान पथिक ।

 

श्लेष अलंकार

उत्तर प्रदेश के जिला बस्ती के एक गांव लोहरौली कला में जन्मे कवि श्लेष अलंकार ने परास्नातक (हिन्दी साहित्य), बी.एड, डिप्लोमा इन  फाइन आर्ट किया है, तथा वर्तमान में अध्यापन कर रहे हैं। श्लेष का एक कविता संग्रह “उजाले शेष है” प्रकाशित हो चुका है। श्लेष अलंकार चित्रकार भी हैं इसलिए इनकी कविताएं सजीव होती हैं तथा मूर्तिमंत लोक के आलोक में बोलती हुई प्रतीत होती हैं। इनकी लोकधर्मी लेखनी तूलिका बन कर सर्जन करती है एवं कविताओं के बिम्बायन में रेखाएं तथा रंग प्रतीक बन कर उभरते हैं। आपको अवन्तिका आल इंडिया चित्रकला प्रदर्शनी, नई दिल्ली का 2000 में प्रथम पुरस्कार मिला है। आपके चित्रों की प्रदर्शनी इलाहाबाद, लखनऊ  एवं नई दिल्ली में लग चुकी है।

 

 

 

 

राजेन्‍द्र शर्मा

 

 

औरतें ही बचायेंगी सृष्टि को

(चित्रकार ईशिता चौधरी को पेंटिंग को देखकर)

 

प्रदूषण से अपने कुरूप होते

चेहरे से

सहमा था आसमान

 

कांप रही थी धरती कि

इस दमघोटू माहौल में

सृष्टि का क्या होगा ?

 

सब मास्क लगा

बचा रहे थे खुद को

 

अचानक चिड़िया का

एक घोंसला

पेड़ से गिरा

उसके पांच

नवजात सड़क के किनारे

बेघर पड़े थे

 

अपने मास्क की परवाह छोड़

एक स्त्री दौड़ कर आयी

और अपनी गोद में

भर लिया पांचों को।

 

बहुत दिनों के बाद

धरती मंद मंद मुस्काई

माँ ही जानती ममता को।

 

पांचों को अपने अंक

में भरकर

घर ले जाती हुई

स्त्री ने पृथ्वी को

आश्वस्त किया

यह तेरे पुत्र

रावण, कंस, दुर्योधन बन

बार बार जन्मते रहेंगे माँ

 

तेरी बेटियां, ये लड़कियां, ये औरतें

ही बचायेगी सृष्टि को ।

 

 

दलित

 

माँ के गर्भ में था,

दलित था

धरती पर जन्‍मा

साठ साल जीया

दलित ही रहा

एक दिन हाड़ मांस के गुब्‍बारे से

निकल गयी हवा

मरा, मरकर भी दलित ही रहा

 

अब

 

मिटटी के कणों में हूं शामिल,

उन कणों में जिनमें

तुम्‍हारे पुरखों के कण भी है शामिल

अछूत हो जायेगे तुम्‍हारे पुरखे

 

अपने पुरखों को अछूत होने से बचाओ

तुम्‍हारे बस में हो तो

अपने पुरखों के कण

मेरे कणों से

अलग करके तो दिखाओ

 

बरगद

 

चार कांधों पर थे पिता

और

सांत्‍वना के सैकड़ों कन्‍धे

मेरे साथ

 

पर मैं अकेला

निपट अकेला

 

घने पेड की छाया में हर कोई

रहना चाहता है

 

पिता तो बरगद थे।

 

बेईमान

 

दुनिया

उन्हें ही बेईमान लगती है

 

जिनके अपनो ने

ही लूटा हो कभी

 

लौटना

 

जो घर से निकले थे

लौटने के लिये

पर नही लौट पाये

 

उनके परिजनों

से पूछना कभी

 

प्रतीक्षा का दर्द

 

और

 

जरा सी आहट

की खुशी

 

 

    प्रेम  किसी से मत करना

 

पिता खांटी समाजवादी और माँ पूजा-पाठी

पिता ने कभी फर्क नही समझा

लडके और लडकी में

पर दादी की स्‍वर्ग पाने की की इच्‍छा के आगे नतमस्‍तक

पोते की चाह में

एक के बाद दूसरी, दूसरी और चौथी,

मैं आई पिता के आंगन में।

 

पिता ने कहा

खूब खेलो, खूब खाओ, खूब पढ़ो

जो बनना चाहती हो, बनो

जो पहनना चाहती हो, पहनो ।

 

जितनी आजादी दे सकते थे पिता

उतनी आजादी दी हम चारों बहनों को।

 

दो-दो साल की छोट बडाई में

हम चारों बहनें बालिग हैं

पिता ने पहली बार पाबन्‍दी लगायी है

प्रेम किसी से मत करना।

 

किसी अनहोनी की आशंका से सहमे

बुदबुदाते हैं पिता

प्रेम करोगी, तो सर कलम कर देगी खाप

मेरी बेटियों, किसी से प्रेम मत करना।

 

 

अच्‍छन मिऑ की चाय

 

( एम एफ हुसेन को याद करते हुए )

 

अच्‍छन मिऑ

कोयले की अंगीठी पर बनीं

तुम्‍हारे हाथ की चाय

का मजा आज नब्‍बे साल

बाद भी बाकी हैं ।

 

तुम्‍हें तो याद भी नही होगा

वो दुबला पतला

बालिश्‍त भर का लडका

जो अपने दादा की उंगुली पकडे

आया करता था तुम्‍हारे यहां

 

मिऑ

यारदाश्‍त की जोर आजमाइश

करने की जहमत नही दूंगा

मैं ही बताता हॅू

 

मेरे दादा यानी अब्‍दुल

यानि तुम्‍हारे यार

और उनका पोता मैं

जिसकी मॉं डेढ साल की नन्‍हीं उम्र में

उसका साथ छोड गयी थी

जिसके लिए दादा ही मॉ थे ।

अब तो तुम्‍हें याद आ ही गया होगा,

आ गया है ना,

मैं मकबूल अग्रेंजी में एम एफ हुसेन ।

 

मिआं

तुम जन्‍नत में हो

तुम्‍हें ज्‍यादा परेशान नही करूगा

 

बस मुझे इतना बता दो तुम

अपने हाथ से बनाकर

जो चाय पिलाते थे तुम

जिसका मजा आज नब्‍बे साल

बाद भी बाकी है

 

आखिर उसमें क्‍या क्‍या डालते थे तुम

मिटटी के सकोरे में उडेल कर

पिलाई गई तुम्‍हारे हाथ की चाय

की तलाश में

वक्‍त के दादा की छोटी उंगुली पकडे

मैं

तमाम उम्र भटकता रहा

 

इन्‍दौर की गलियों के ढाबे,

दिल्‍ली की निजामुददीन

बस्‍ती के चायखाने

लंदन की डेढ सौ साल पुरानी

शैपर्ड मार्कीट की काफी शाप

न्‍यूयार्क के आधी रात खुले

टैक्‍सी वालों के अडडे

कलकत्‍ता के सरदार जी वाली

गाढे दूध की चाय

बम्‍बई के भिंडी बाजार वाली

आधा कप चाय

और अब कतर में भी ढूंढना

सिलसिला-ए-चाय जारी है।

 

पर आज तक नसींब नही हो पाई

तुम्‍हारे हाथ की बनी जैसी चाय ।

 

अच्‍छन मिऑ

बताओ तो सही

जिसे स्‍वाद को नहीं भूल पाया

आज तक

जो दूध,चीनी और चाय पत्‍ती से बनी

चाय का ही मजा था

या फि‍र तुम्‍हारी

मोहब्‍बत-ए-यारी का ।

 

राजेन्‍द्र शर्मा

सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्में राजेन्‍द्र शर्मा ने स्नातक की परीक्षा उतीर्ण कर और जीवन की शुरूआत पत्रकारिता से की। आप नवभारत टाईम्स, जनसत्ता, दिनमान के लिये रिपोर्टिग करने के बाद उत्तर प्रदेश राज्य के बिक्रीकर विभाग में रहे, वर्तमान में जी एस टी डिपार्टमेंट में राज्‍य कर अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।

 

 

 

 

तनुज

 

जनता

 

प्रेरणाओं के सोता हैं

सबूत हैं

कि हम आय-बाय कुछ भी बेठोस नहीं बके जा रहे हैं

उनकी अच्छाई प्राण फूंकती है

उनसे बिछड़कर डर जाता हूं ताकत से

उनसे मिलते ही आती है माँ की उस क्रिया की याद

जो खोल देती थी

खिड़कियां हर सुबह

हौले से…

 

 

स्वतःस्फूर्त

 

हमेशा चाहता हूं जीवन

कला में समूचा और स्वतःस्फूर्त आए

इस तरह जैसे शरीर लेता है सांस।

हवाएं पत्तों को हिलाती हैं

और पतझड़ आते ही ज़मीन पर

खूबसूरत पीलिया फैल जाती है

 

रात के

खगोलीय श्यामपट्ट में

धंसी रहे हमेशा

चंद्रमा की

विनम्र वैज्ञानिक आश्वस्ति

 

मगर फ़क़त चाहने से नहीं मिलती वह चांदनी

साफ़ वायु,

जंगल की हरियाली

और कई बार प्रेम और पतझड़ भी

 

एक पवित्र स्वतःस्फूर्तता के लिए

गुजरना पड़ता है हम सबको

सचेतनता के अभ्यासपूर्ण नैरंतर्य से

 

और फिर एक-दिन यह

तोता-रटंत वाक्य

सबसे अधिक मानवीय और कारुणिक लगने लगता है

कि ज़िन्दगी कोई अमूर्त घटना नहीं

जो बिना किसी भौतिक कार्यभार में

सततता बरते

यूं ही बदलती चली जाएगी यह

और लद जाएंगे अनायास ही

प्रेयसी के होंठों पर–

दर्जनों अंगूर!

 

जब मालूम था

 

पिता,

जब मालूम था अनुवांशिक गड़बड़ी थी

तो फिर पैदा ही क्यों किया?

 

पिता,

जब मालूम था पूरे वंश में संगीत की किसी को समझ नहीं,

तो फिर क्यों गीत सुनाये?

 

पिता,

जब मालूम था आदत नहीं थी किसी को प्यार के तनाव की

तो फिर ऐसे कैसे तुमने मुझे..

झेलने छोड़ दिया?

 

पिता,

तुम बहुत बुरे हो

चाह कर भी तुम्हें मैं ख़ुद से अलग नहीं कर सकता,

कि अकेले होता हूं मैं जब बहुत अकेले

याद आता है कि वो तुम थे जिन्होंने यक़ीन दिलाया

तुम्हारा बच्चा होना यानी आदम का

और तुमसे ज़्यादा बीमार, परेशान और पर्यटनशील

 

और

चाह कर भी भूल नहीं सकता तुम्हारा बच्चा हूं

कि ताऊम्र माफ़ नहीं करूंगा तुम्हें

अपनी कमज़ोर हड्डियों और इस हृदय के लिए।

 

साथ-साथ

 

विचार आते हैं कभी-कभी

शब्दों से पहले।

 

जैसे लगती है प्यास

और मिटाता है उसे पानी,

यदि नहीं जानते हम

पानी का स्वाद

तो भी लगती हमें बहुत-बहुत प्यास…

 

इतिहास भी

इतना ही निर्मम होता होगा;

(ऐतिहासिक पदावलियों के निर्माण से पहले)

 

बिंब नरगिस के 

 

आप आदमी लंपट नहीं थे।

 

यक़ीन कीजिए

आप बस नहीं कर पा रहे हैं सूत्रबद्ध

विराट मानवीय अन्तःक्रियाओं को।

 

मानवता की कक्षा के

सबसे फिसड्डी विद्यार्थी रहे आप।

 

आपको पढ़ाई जा रही थी ख़राब कविताएं

तभी तो कभी सोचा है…कि पहले

आपकी प्रेयसी

आपसे प्रेम नहीं करती थी?

 

दिखलाया जा रहा था अब तक सबसे औसत सिनेमा,

आप घिरे हुए थे इस पृथ्वी के अनंत मेमनों के बीच,

जिन्हें डूब जाना था एक दिन बंगाल की खाड़ी में।

 

लेकिन आपने चुनी ठेठ विकलता,

बहुत अच्छा किया

घिस-घिस कर नहाए

कांख-जांघ-गुप्तांग व्याधि धोए

साफ़ वस्त्रादि पहने

चले आए हमारे साथ!

 

…कान में खोंस कर बिंब नरगिस के।

 

जिस रात रामदास की हत्या हुई

 

अ को कुछ भी मालूम नहीं चला

और सुबह-सुबह वह निकल गया काम पर

 

ब ने बनाया रामदास की ज़िन्दगी का मज़ाक़

 

स पर चढ़ी कुछ त्यौरियां

और लिखी उसने एक से बढ़कर एक मार्मिक कविताएं

 

द ने महीनों मेहनत की फिर कोई बात आई

 

फ़ जानता था उदार अराजनीतिक महिला संपादक को

 

ज नियुक्त किया गया रामदास विशेषांक का सह संपादक

 

संपादकीय टिप्पणी कुछ इस तरह थी :

“वर्ग-संघर्ष की जमीनी जन-कार्रवाइयों ने

पैदा किए हैं लेखक-कवियों के बीच महान विभेद

हमें अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रह को छोड़कर फ़ासीवाद के ख़िलाफ़

बनाना होगा एक संयुक्त मोर्चा

और पुष्प अर्पित करना होगा रामदास की आत्मा पर

साथ-साथ”

 

तनुज

तनुज मूलतः झारखंड से हैं और वर्तमान में बनारस हिन्दू विश्विद्यालय से हिन्दी में परास्नातक कर रहे हैं। विश्व-भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से इन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की। कविता के साथ अनुवाद और सुसंगत मार्क्सवादी आलोचना में भी इनकी गहरी रुचि है।

 

 

1 Comment

  • Devendrakumar Pathak
    July 1, 2023

    समकालीन कविताओं के कथ्य कौशल के एकदम नये और ताजातरीन तेवर के बिम्ब सिरजती श्लेष की कविताओं में प्रकृति का बड़ा ही विस्मयकारी शब्द चित्रांकन आश्वस्त करता है। राजेन्द्र शर्मा की इस दुष्काल में सब्र, और उम्मीद की लय बनाये हुए बिना शोर शराबे के भी संयम और सचेतनता से जीवन के सत्य को बुझती हैं। तनुज में सम्भवनाओं कई आहटें सुनाई देती हैं। यहाँ कविताई के नए कथ्य कौशल की साध बांध के बीच समय से प्रश्नातुरता की बेचैनी है

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