अग्रज कवि

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

पाखंडियों पर लिखे गए संस्कृत गीत–

डा राधावल्लभ त्रिपाठी

संस्कृत साहित्य को शृंगारमूलक माना जाता है, इसलिए इसे अभिजात्य की कविता के रूप में ख्याति मिली है। डा राधावल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत की लोकधर्मी परम्परा नामक पुस्तक में अनेक ऐसे पद्यों का अनुवाद प्रस्तुत किया है जो जिन्दगी से या फिर कहे तो आम आदमी से जुड़े हैं। डा राधावल्लभ संस्कृत साहित्य के एक ऐसे चिंतक हैं जिन्होंने संस्कृत साहित्य विषद गवेषणा करते हुए, इसे समकालीन प्रवृत्तियों से जोड़ा। हम इस बार पाखंडी लोगों के लिखे गए पद्यों के कविता अनुवाद को प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्हें डा राधावल्लभ त्रिपाठी द्रारा रचित पुस्तक संस्कृत की लोकधर्मी परम्परा के “पाखंडी लोगों” नामक खण्ड में से लिया गया है।

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पितृभिः कलहयन्ते पुत्रानध्यापयन्ति पितृभक्तिम्।
परदारानुपयन्तः पठन्ति शास्त्राणि दारेषु।।
नीलकण्ठ दीक्षित, वैराग्यशतक, २४

अपने पिता से करते हैं झगड़ा
बेटों को पितृभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं
पराई स्त्रियों को ला- ला कर रखते हैं घर में
पतिव्रत धर्म का पाठ सुनाते हैं अपनी स्त्री को।

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वन्ध्येत्याहुस्तरणीं जरतीति परित्यजन्ति बहुपुत्राम्।
अपि निन्दन्त्यल्पसुतां का गृहिणी कामिनां हृद्या?
नीलकण्ठ दीक्षित, वैराग्यशतक, ४८

तरुणी है तो उसे बाँझ कहेंगे
कई बेटों वाली हुई तो
उसे बुढ़िया कह कर छोड़ देंगे
कोसेंगे कम बेटों वाली को
कौन सी गृहिणी आखिर
कामियों के मन के लिए
होगी सुखकर?

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यान्ति शुच मकृतदारा द्वे दारे नेति कृतदाराः।
ते परदारानेति स्त्रीभिस्तृप्तान्न पश्यामः।।
नीलकण्ठ दीक्षित, वैराग्यशतक, ४९
विवाह न होने तक कुँवारेपन का दुख
विवाह हो जाने पर
दो पत्नियाँ क्यों ना हुईं, यह दुख
कई पत्नियाँ हो गईं, तो
प्रेमिका न हुई , यह दुख
पुरुषों को नहीं मिला कभी
स्त्री से तृप्ति का सुख।

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निःशंकं यतं तदुच्चैर्वद कुरु विकटं स्वाननं ज्ञानगर्वा
च्छ्लाघस्वात्मानमन्यान् भष हस सहसा किंचिदश्लीलमुक्त्वा।
सावज्ञं खण्डखाद्यं पठ विवद समुत्कर्षयन् मूर्खलोका
निच्छेश्चेत् सूरिभावं जडजनपुटतों मूर्खवृन्दारकोs पि।।
सुभाषितावलि — वल्लभदेव.–२३८४

 

 

निशंक रह कर जो मन में आये बक दो ऊँचे स्वर में
ज्ञान के गर्व से मुखड़ा बना डालो, कदम विकट
अपनी प्रशंसा में कसीदा काढ़ो
दूसरो पर कीचड़ उछालो
कुछ भद्दी सी बात कह कर अचानक हँस पड़ों
फिर सामने वाले को हिकारत से देख पढ़ डालो
खंडन खंडनखाद्य का कोई पाठ
उछालो विवाद
जुटाते जाओ भीड़ मूर्ख लोगों की
स्वयं मूर्खशिरोमणि हो कर भी
यदि चाहो
जड़ बुद्धि जनों के बीच
तीस मार खाँ बनना।

 

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व्यासादीनं कविपुंगवाननुचितैश्चोद्यैः सलिलं भषन्।
नुच्चैर्जल्प निमील्य लोचनयुगंश्लोकान् सगर्व पठन्।।
काव्यं स्वीकुरु यत् परैर्विरचितं स्पर्धस्व साकं बुधैर्
यद्यभ्यर्थयसे श्रुतेन सहितः पाण्डित्यमाप्तुं बलात्।।
सुभाषितावलि — वल्लभदेव–२३८५

 

व्यास आदि प्राचीन श्रेष्ठ कवियों पर कीचड़ उछाल दें
इतराकर कुछ तो भी बक- झक कर
कुछ चीखो , चिल्लाओ
फिर आँख मून्द कर गरूर में भर कर
श्लोक बोल जाओ
दूसरे की कविता को अपनी कह कर
सभा में गौरव के साथ सुनाओ
यदि बल पूर्वक ज्ञानी और मानी
तुम जो बनना चाहों।

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प्रामाण्यमाक्षिपति साधयतां शिवादीन्
देवानभीः किमपि दुर्तिरागमानाम्।
पुत्रे शिशौ विकृतिमीषदवेक्ष्य भीतो
धावत्ययं प्रतिनिशं सनबलिः श्मशानम्।।
सदुक्तिकर्णामृतं–श्रीधर ८९ / १६

 

वह ईश्वरवाद का खण्डन करता है
तर्क से ज्ञान से
वह निर्भय हो कर
आगम के प्रमाण पर करता है आक्षेप
अपने बच्चे को थोड़ा सा भी बीमार देख कर
भगता है मसान की ओर
पूजा का थाल सजा कर।

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स्नायं स्नायमनारतं धनवतामग्रे निरीहव्रताः
प्रायो मृत्तिलदर्भसंग्रहधनाः सम्मोहयन्ते जगत्।
अम्भःकेलिकृतावतारतरुणीनीरन्ध्रवक्षोरुह
द्वन्द्वालोकनकूणितेक्षण्णयुगं ध्यायन्त्यमी दाम्भिकाः।।
सदुक्तिकर्णामृतं.–श्रीधर ८९ / ८

 

कर के स्नान
वे लगा रहे हैं ध्यान
धन वालो के आगे दिखते हैं ऐसे
निरीहता का व्रत ले कर बैठे हों जैसे
माटी , तिल, दर्भ का संग्रह ही जैसे बस इनका धन है
इस तरह मोह लेते हैं जगत भर को
पर उधर जो पानी मे उतर कर रही केलि
तरुणियाँ
उनके उन्नत वक्ष युगल
तकने को तिरछी आँखे ये किए हुए हैं
और यही है ध्यान इनका।

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स्नानं सिन्धुजले विधाय जनतासन्ने निषण्णस्तटे
काषायेण घनावगुष्ठिततनुः प्राप्तः परिव्राजकः।
सूपापूपघृतोक्षरा मधुमती भिक्षा यतो लभ्यते
यस्मिन् वा गतभर्तृका युवतयस्तत् तद् गृहं ध्यायति।।
सदुक्तिकर्णामृतं–श्रीधर ८९ / १४

 

नदी के जल में कर के स्नान
भीड़- भाड़ वाले घाट पर बिराजे हैं सन्यासी महाराज
भगवा कपड़े से खूब ढका है देह
सूप, पुए की घी में तर साथ मिठाई के
भिक्षा मिल सके जहाँ से
और तरुणियाँ भी हो जहाँ
पति जिनके बाहर हों
ऐसे घरों का लगा रहे हैं हिसाब।

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वेश्यावेश्मसु सीधुगन्धिललनावक्त्रासवामोदितैर्
नीत्वानिर्भरमन्मथोत्सवरसैरुन्निद्रचन्द्रः क्षपाः।
सर्वज्ञा इति दीक्षिता इति चिरात् प्राप्ताग्निहोत्रा इति
ब्रह्मज्ञा इति तापसा इति दिवा धूर्तैर्जगद्वंच्यते।।
कृष्णमिश्रः प्रबोधचन्द्रोदय, २/ १

 

वैश्याओं के घर मदिरा की सुगन्ध में सराबोर
मुख वाली ललनाओं के मुख की मदिरा से आमोदित
छककर मन्मथ के उत्सव रस में
खिली चान्दनी वाली रात बिता कर
वे बन जाया करते दिन में
सर्वज्ञ भी , दीक्षित भी और अग्निहोत्री भी
ब्रह्मज्ञानी भी और तपस्वी भी
और यों लूटा करते हैं धूर्त
जगत् को।

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गंगातीरतरंग शीतलशिलाविन्यस्तभास्वद्वृसी
संविष्टाःकुशमुष्टिमण्डितमहादण्डाःकरण्डोज्ज्वलाः।
पर्यायग्रथिताक्षसूत्रवलयप्रत्येकबीजग्रह..
व्यग्राग्राङ गुलयो हरन्ति धनिनां वित्तान्यहो दाम्भिकाः।।
कृष्णमिश्रः प्रबोधचन्द्रोदय, २ / ५

 

गंगा के तीर पर
तरंग से शीतल शिला पर
चमचमाती गद्दी बिछा कर
हाथ में कुश लेकर
विशाल दंड धारण करके
उज्जवल कमंडल वाले
सरकाते हैं वे
बारी- बारी से व्यस्त अंगुलियों से
हाथ में पकड़ी हुई अष्टमाला का
एक- एक मनका
और हड़पते जाते हैं
धनियों का रुपया पैसा
ये दंभिक जन।

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