मेरी बात
समझ नहीं आता कि यह समय कविता का है, या मौन का है, यदि मौन का है तो आवाज कौन उठाएगा? और यदि आवाज उठाई भी जाए तो क्या ये सुन्न पड़े कानों में पहुंचेगी?
इस कठिन समय में कृत्या का नया अंक लाते हुए भी संशय सा है, हालांकि समकालीन कवियों ने विरोध को जताया है, जो अच्छी बात है, लेकिन जब लगातार कुत्सित मनोवृत्तियां हावी होती जाएं तो शब्द भी अर्थ खोने लगते हैं। यही सन्देह मेरे मन में उपज रहा है।
कब तक समाज की तरफ से आंखें मून्दे रहा जा सकता है? कब तक सड़न की बदबू को नकारा जा सकता है?
फिर भी कवि अपना कर्म कैसे छोड़ दे। इतिहास गवाह है कि कुछ कवि युद्ध की भूमि में लिख रहे थे, मरणान्त पीड़ा को सहते हुए भी कुछ कोमल भावों को सहेजते रहे हैं। इसलिए कविता को नकारना भी संभव नहीं। सवाल यह भी है कि यदि शब्दों को छोड़ दिया जाए तो किसे उठाया जाए? हथियारों को?
यदि सब ओर हथियार ही हो गए तो फिर शेष क्या रहेगा?
बस यही सोच कर कविता को रेखांकित करते हम युवा और पुरातन कविता को लेकर उपस्थित हुए हैं।
शब्दों पर फिर से विश्वास करते हुए
शुभकामनाओं सहित
रति सक्सेना
ललन चतुर्वेदी
आपका प्रयास सराहनीय है। हमारे लिए कविता बहुत जरूरी है। हमारे पास शब्दों के सिवा आखिर है भी क्या। आपकी पहल स्तुत्य है। सतत शुभकामनाएं।
ललन चतुर्वेदी