अग्रज कवि

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

के सद्चिदानन्दन की तीन लम्बी कविताएं

 

के सच्चिदानन्दन देश के मशहूर अग्रज कवि हैं, जो मलयालम भाषा में लिखते हैं। आप मूलतः कवि है हैं, लेकिन अनेक विधाओं में लिखते हैं। आपका रचना संसार बृहद है, जिसमें सौ से अधिक पुस्तकें दर्ज हैं। यद्यपि प्रस्तुत कविताएं वर्षों पहले रची गई हैं, लेकिन आज भी समीचीन महसूस होती हैं, यही कवि का कालबोध है।

इन कविताओं का अनुवाद रति सक्सेना ने किया था।

 

 

मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
कांधे पर बैठे पावस पंछी का
थरथराता गीत थम रहा है
किसी ग्रामविधवा जैसे
पत्तियों से सिर ढके कृश हवा चल रही है
स्वच्छाकाश में चिड़ियों के झुण्ड छोड़
कनेर प्रत्यंचा कंपकंपा रही है
पतली सी धार बन खामोशी सूख रही है
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
गलियों में फेंक रहे हैं खून और उदासी
छोटी सी गेंद जैसे मुझे
मदमोह, कामपीड़ित, क्षुधार्थी
भटक रहे हैं रोगी जन
कोई चार चक्र पर, कोई दो पर, तो कोई पैदल
यह स्पताल का रास्ता
इंतजार साथी का, सहाय का, भाग्य का, मौत का
सिर पटकते,गाली गलोच करते
मछली का मोलतोल, जिन्दगी का मोलतोल
देश का भी मोलभाव करनेवाले
शवगाड़ी पर जैसे मक्खियों से भिनकते चेहरे
जड़ हो पुन धड़कते सपने
एक छोटे से तिनके की छाया तक नहीं, फूल नहीं
पंछी नहीं, पंछी कलरव नहीं
बस नेता गरज रहा है सुबह के बारे में
रण भूमि के बारे में
भक्ष्य पर चक्कर लगाती चीलों जैसे
वे मंडराते हैं शब्दों पर
व्यर्थ है यह धिकार मोही का प्रलाप
बड़बड़ा रहा है एक पागल दुखी मन से
कोई सूरज नही उदित होगा तुम्हारे लिए
अंकुर तक को जलानेवाली दुपहरी को छोड़कर
नहीं उतरेगा कोई स्वर्गदूत भी
बच्चों की ओर खूनी चोंच बढ़ाए बिना
बर्खास्त हो रही है सभा फाँसी के फंदे के खुलने जैसे
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
शोरगुल करते, झगड़ते शिष्यों के बीच
मैं घण्टी बजने के साथ पहुंच रहा हूं
कविता बांटना है उनमें, टेढी है
भोजन की मेज़, सूखी है रोटी
कविता फंसी रही हलक में
शब्द कुम्हार के हथौड़े
ठोड़ी के नीचे, मेरी बातों का ढेर
जेल की कोठरी है, यजमान की भाषा में
बात करनेवाला चौकीदार बन गया हूं मैं
वध के लिए लाए गए पशु के गले पर रखी छुरी जैसे
कविता की क्रूर करुणा
नहरे, चांदनी, क्रीडाएं, बचपन की
कोंपलें, लोक धुनें
मुट्‌ठी भर राख वाला चिता कलश
इनके सीने में धड़कता है
कागज़ी फूलों पर शहद खोजती
मधुमक्खियों की कतारें
घण्टी की टनकार तोड़ती है हमे तलवार जैसे
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
घर आ रहें हैं दोस्त, उभरती आवाजों में
कांप रहे हैं कमरे में मेरे बुद्घ
सूखती हुई क्रान्तियां उन दिलों में
जहां नहीं चू रही है कविता और करुणा
कठोर युक्तियों वाले चक्र से कट रहे हैं
हरेभरे मानवीय सपने
भात क्या, साथ क्या, देश का अन्तरभाग क्या
बिन जाने बूझे बह रहा है रक्त
कठोर भूमि पर जड़े तक न जमा पानेवाली अहंता से
बौना हो रहा है मुक्ति का उत्साह
उभर रही हैं सिसकियां लहरो जैसी, बातों से भी
न जग पानेवाली भूमि पर
दुखों की खमीर उठाते वाल्मीकि के शब्द
किसी पुराने चूल्हे पर पक रहे हैं
एक मुस्कान को चुगनेवाली चोंच की
धार पर सपनों को तीखा कर
बिछुड रहे हैं दोस्त, फटे दूध जैसे दिन बीत रहा है
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूँ
अंधेरा छाया, बच्चे खेल रोक देख रहे हैं
हर पल बढ़ते अंधकार को
कोमल पलको को छेदेंगे क्या पिशाच नृत्य
कोमल कानों में हुंकरित होगा क्या रक्त?
नन्ही जंघाएं क्या मथेंगी पाप सागर फिर
नन्ही आंतों को फाड़ेगी क्या नागिन?
यमवृक्ष शिखरों से, नगर विमानों से
गिरती हैं पत्तियां, अग्निवर्षा जैसे
प्राण धुआं बन लीन हो जाएगे
मौत….. मौत लिखते लिखते
बस, बस रुको! सागर के तलहटी पर
फंसा मैं सांस बिन
बनी यह प्रियतमा, इन्ही पर है
पुरानी हरित भूमिया
सिंह, शशक विचरते जिनमें ये जंगल
तपरत मुनिगण वाली गुफाएँ
बादलों को सहलाते पठार, पहली पहली बार
खिली ये तलहटियां
सैन्य नाद से गुंजित रणरुद्र भूमियां
श्राद्घपक्ष और पितर
व्रत बद्घ कृष्णाएं, प्रथम गोत्रों से
व्रणित उग्र ध्वनियां
चरवाहों के गीत, दलितों की तालें
निरुद्घ जनजागरण
उनके टीलों पर पहुंच मैं खोज रहा हूं
अभय बन स्नेहार्त भूमि में
उनके बीच पहुंच मैं उमंगित हूं
नन्हे बालक सा
पताका, मेला, देवतओं को बलि
कान फटकारते हाथी, तरहतरह के रंग
उनकी भीड़ भड़क्के में पसीना पसीना होते
मैं जागता हूं आधी रात में
बुदबुदाते, टूटते बाबेली ।के नीचे
पिस रहे हैं हम
मुस्कुराते हुए कहता हूं मानव वंश के
आखिरी दम्पत्ति हैं हम
अंधेरे में वह सिसकी भरती है, दुस्वप्नों की वीथियों में
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
नहीं, नहीं ऐसा मत कहो, हम चार हैं,
हम सौ हैं, हम लाखों हैं’ कौन कह रहा है?
कौन जाग रहा है? मेरे नन्हे बच्चे
मेरे काले कलूटे बच्चे न!
क्यों रो रहे हो, काल में कहीं नया वंश
उदित हो रहा है !
आंखे खोलो, आंखें खोलो, नन्ही बाहें उठ रही हैं
इस निशा के विरुद्घ
कान खोलो, कान खोलो, नन्हे पांव उठ रहे हैं
लहरों जैसे राक्षस के विरुद्घ
दिल खोलो, दिल खोलो, कोमल कंठो से
फूट रहे हैं अग्नि गीत
युद्घ नहीं, युद्घ नहीं, नहीं बहे गलियों में
दलितों का रक्त
नहीं रहे यह नरक नृत्य
मां को भूखा रख, पिता को फांसी के तख्ते पर
चढ़ाने वाला
नहीं चाहिए ऐसा महत्‌ दुराधिकार
रूष्ट हो बोध मुष्टि को काटने वाला
नहीं चाहिए खनिजों में, वनो में, मनो में
उनके टीलों पर पहुँच मैं खोज रहा हूं
अभय बन स्नेहार्त भूमि में
उनके बीच पहुँच मैं उमंगित हूं
नन्हे बालक सा
पताका, मेला, देवताओं को बलि
कान फटकारते हाथी, तरह तरह के रंग
उनकी भीड़ भड़क्के में पसीना पसीना होते
मैं जागता हूं आधी रात में
बुदबुदाते, टूटते बाबेली के नीचे
पिस रहे हैं हम
मुस्कुराते हुए कहता हूं मानव वंश के
आखिरी दम्पत्ति हैं हम
अंधेरे में वह सिसकी भरती है, दुस्वप्नों की वीथियों में
मैं अकेला हो रहा हूं

 

मैं अकेला हो रहा हूं
नहीं, नहीं ऐसा मत कहो, हम चार हैं,
हम सौ हैं, हम लाखों हैं’ कौन कह रहा है?
कौन जाग रहा है? मेरे नन्हे बच्चे
मेरे काले कलूटे बच्चे न!
क्यों रो रहे हो, काल में कहीं नया वंश
उदित हो रहा है !
आंखें खोलो, आंखें खोलो, नन्ही बाहें उठ रही हैं
इस निशा के विरुद्घ
कान खोलो, कान खोलो, नन्हे पांव उठ रहे हैं
लहरों जैसे राक्षस के विरुद्घ
दिल खोलो, दिल खोलो, कोमल कंठो से
फूट रहे हैं ग्नि गीत
युद्घ नहीं, युद्घ नहीं, नहीं बहे गलियों में
दलितों का रक्त
नहीं रहे यह नरक नृत्य
मां को भूखा रख, पिता को फांसी के तख्ते पर
चढ़ाने वाला
नहीं चाहिए ऐसा महत्‌ दुराधिकार
रूष्ट हो बोध मुष्टि को काटने वाला
नहीं चाहिए खनिजों में, वनो में, मनो में
यम पूजा करनेवाला लोभ
कैसे हो सकता हूं बच्चो मैं अकेला
जब तक यह भूमि वृद्घ न हो जाए ?
जब तक कोई बांह उठाए
न्याय के लिए आत्मा के विरुद्घ रोता रहे
मैं अकेला कैसे हो सकता हूँ बच्चो?
करुणा भरे दिन के विदा लेने तक
आखिरी स्वातन्त्र्य पुजारी के
अंधरे में विदा होने तक

 

 

जीभों का पेड़

 

गलीकूचों में, ट्‌टारियों में
गाँव भर में चेचक
गाँव की माता, महामाता
किले से ज़ारी की राजाज्ञा
बाँध लो पकड़ कर इलाके की जीभें
औरचढ़ा दो बलि सभी की
उस्ताद की, बब्बा की जीभ कुतर ली
भानजे की जीभ कुतर ली
दुश्मन की जीभ कुतर ली
खबरढोलची ने चिल्ला कर मुनादी की
छोकरे की जीभ कुतर ली
दीवारों पर कालिख से तस्वीर खींचने वाले
कलाकार की जीभ कुतर ली
धुआं पीते, सोना बोते
कामगारों की जीभ कुतर ली
महामाता, गांव की माता
देहरी भर जीभें कुतर लीं
मन्दिर में रोमांचित खड़ा है
बिना जीभ वाला देवता

 

में, भंडारघरों में
खिल रही थी चेचक जिस दिन
गांव की माता महामाता
कुतर रही थी जीभ सभी की जिस दिन
एक जीभ में किल्ला फूटा उसी दिन
दिन ब दिन बढ़ने लगा
नींव के पहले पत्थर से
मूल जड़ फूट पड़ी
पहली पत्ती ,नन्ही पत्ती
उण्णियार्चा की तलवार जैसे
मुन्नी पत्ती, मोटी पत्ती
कण्णप्पन की ढाल जैसी
तीसरी पत्ती, हरी पत्ती
करिम्बाडि। की हथेली जैसी
चौथी पत्ती बुन्दकियों वाली
नागराज के फण जैसी
पाँचवीं पत्ती, धारदार पत्ती
सूरज के दिल जैसी
सैंकड़ोंसैंकड़ों पत्तियों
खून टपकाती जीभों जैसी

 

किसकी है यह जीभ
गुस्से में थरथराती खड़ीं माता
जीभ ने नगाड़ा बजाया
मैं आदी कवि की जीभ हूं
अंधेरे से लोक को जगाते मेरे गीत
दूसरी जीभ ने हामी भरी
हम भी उगी है उसी गीत से
गांव की माता, महा माता
गवैय्या का गोत्र मिट जाए
तो फिर गाएगा कौन गाना?
गीत गाने के लिए जीभ नहीं तो
लोग सच्चाई कैसे जानेंगे?
सच ही मालूम नहीं तो
गांव कैसे जगेगा ?
पहाड़ी पर खड़ा बिन मुँह वाला देवता।
मुंह खोले बिना खड़ा है
आसमान की ओर ताकता
महामाता ने तलवार खींची
पेड़ को जड़ से काटने
जहां जहां घाव वहां वहां खून
हजारों जीभें उमग उठीं
ज़मी में गढ़े दबे सच
चमकने लगे पत्तीपत्ती पर
जीभों के पेड़ वाले उस गांव का
लोगों ने नाम धरा
जीभों का गांव, पवित्र धाम

 

बिन मुंह वाला देवता केरलीय लोक कथा संग्रह एतिह्य माला में वररुचि के एक पुत्र का उल्लेख है जिसके मुंह ही नहीं था। उसे वा इल्लाद Sप्पन के नाम से पुकारा जाता था।
करम्बाडी लोक कथा की एक सुन्दरी कन्या जिसकी गाँzव के लिए बलि दे दी गई थी।

 

निष्पक्षता

निष्पक्षता
यदि उड़ने में सकुचाने वाला पक्षी है तो
मैंने उसे दाना दे कर पाला पोसा नहीं
निष्पक्षता
मुंडेर पर नारियल का
हथेली पर ठोडी टिकाए बैठना है तो
मैने छिलका उतार कर देखा नहीं
काट्‌टाडि। वृक्ष की सिसकियां या
आधीरात को जगाने वाले मुर्गों की खिलखिलाहटों के बीच
घात लगाए बैठी लोमड़ी
निष्पक्षता है तो
मैंने ऊंघते हुए उसकी
घुर्राहट सुनी है,
निष्पक्षता
यदि दन्तहीन सर्प का फैला हुआफण है तो
वह केवल संपेरे का खिलौना है
भेड़िये और मेमने को समान न्याय देने वाली
वनदेवी यदि निष्पक्षता है तो
इसके इकलौते सींग को विधान सभा ौर
न्यायपालिका की ओर बढ़ता देख
मैं चौंक कर उठ बैठता हूँ
निष्पक्षता
यदि युद्घभूमि में शंकालुओं –
द्वारा देखा गया काला फूल है तो
रथ के चालक का वेग मुझे पसन्द है
निष्पक्षता
यदि धुला हुआ न्यायाधीश हाथ है तो
सलीब से रक्त टपकाता
शुक्रवार मुझे पसन्द है।

 

 

पाइन जाति का एक वृक्ष

( आपत्तकाल के दौरानलिखी गई कविता)

अनुवाद..रति सक्सेना

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