प्रिय कवि

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

विष्णु नागर मात्र कवि नहीं, कथाकार ‌और व्यंग्यकार भी हैं।  मुझे कवि की कविताओं में छिपी कथात्मकता और व्यंग्यात्मकता ने प्रभावित किया। विशेष रूप से छोटी कविताओं ने, जिसमे एक लम्बी सार गर्भित कथा छिपी हो, या फिर कहें तो जो जिन्दगी की कथा बखान करती हो। विष्णु नागर फिलहाल, दिल्ली में वास करते हैं। ये कविताएं कृत्या में बहुत पहले प्रकाशित हो चुकी हैं, समकाल में इनकी प्रासंगिकता देखते हुए पुनः प्रकाशन का निर्णय लिया गया है।

 

 

आहटें

 

 

मैं क्यों अनजान बना बैठा हूं

जैसे मुर्गा हूं

क्यों कुकड़ू कूz करता घूम रहा हूं

जैसे मैं बिल्कुल बैचेन नहीं हूं

क्यों अपनी कलगी पर कुछ ज्यादा इतराने लगा हूं

क्यों पिंजड़े में बन्द जब कसाई की दूकान पर

ले जाया जा रहा  हूं तो

ऐसा बेपरवाह नजर आ रहा  हूं जैसे कि सैर पर जा रहा  हूं

क्यों मैं पंख फड़फड़ाने, चीखने और चुपचाप मर जाने में

इतना विश्वास करने लगा  हूं

क्यों मैं मानकर चल रहा  हूं कि मेरे जिबह होने पर

कहीं कुछ होगा नहीं

क्यों मैं खाने मे लजीज लगने की तैयारी में जुटा  हूं

क्यों मैं बेतरह नस्ल का मुर्गा बनने की प्रतियोगिता मं शामिल  हूं

और क्यों मैं आपसे चाह रहा  हूं कि कृपया आप मुझे मनुष्य ही समझे ।

 

 

ताकत

 

 

मेरी ताकत यह है

कि मैं हर बार उठ कर खड़ा हो जाता  हूं

जब तक कि मर ही नहीं जाता

‌और मरकर भी ऐसा नहीं है

कि मैं खड़ा होने की कोशिश नहीं करूँगा

चाहे लुड़क ही पड़ूँ।

प्यार में रोना

प्यार ने कई बार रुलाया मुझे

मुश्किलों से ज्यादा प्यार ने

मैं यहाँ प्यार की मुश्किलों की बात नहीं कर रहा

न मुश्किलों में प्यार की।

 

 

पानी  हूं इसलिए

 

 

मैं पानी  हूं इसलिए मुझ पर आरोप नहीं लगता

कि मैं बर्फ क्यों बन गया

कि मैं भाप क्यों बन गया

या मैं तब ठंडा क्यों था

और अब गर्म क्यों हो गया  हूं

या मैं हर बर्तन के आकार का क्यों हो जाता  हूं।

फिर भी मैं शुक्रगुजार  हूं कि लोग

मेरे बारे में राय बनाने से पहले यह याद रखते हैं

कि मैं पानी  हूं

और यह सलाह नहीं देते

कि मैं कब तक पानी के परंपरागत गुण धर्म निभाता र हूंगा।

 

चांद- तारे

 

 

मुझे चांद चाहिए था

लेकिन मैं चांद की तरफ बढ़ने लगा तो मुझे तारों ने मोह लिया

और मैं सोचने लगा एक चांद के लिए इतने तारों को कोई

कैसे छोड़ दे

चांद ने जब मेरा रुख भापा तो

एक तारा बन गया।

 

हर स्वप्न के लिए

 

हर स्वप्न के लिए

नींद चाहिए

हर नींद के लिए

थकान

व्यंग्य

मैंने उन पर व्यंग्य लिखा

वही उनका सबसे अच्छा विज्ञापन निकला

वही मेरी सबसे कमाऊ रचना निकली

वही हिन्दी साहित्य मं समादृत भी हुई।

सपने ऐसे भी हों

मैं उसके सपनों में शायद ही कभी आया  हूं

मगर वह मेरे सपनों में कई बार आई है

हो सकता है कि वह किसी और के सपनों में आना चाहती हो

मगर वह न आने देता हो

इसलिए हताशा में वह मेरे सपनों में चली आती हो

सपने ऐसे भी हों जिनमें हम दोनों एक दूसरे से मिलें

फिर यथार्थ में दोनों कहीं मिले तो ऐसे शरमायें

जैसे कल ही कहीं चोरी छुपे- मिले थे

और आगे भी इरादा इस तरह मिलने जुलने का है

मगर इस बीच कोई समझ जाये कि दोनों के बीच कुछ है

वह मुस्कुराये और हम दोनों उसकी मुस्कुराहट के जवाब में ऐसे मुस्कुरायें

जैसे हमारी चोरी पकड़ी गयीं

तो भी क्या!

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