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मेरी बात
युद्धों का सिलसिला थम ही नहीं पा रहा है, कुछ वर्ष पहले सीरिया का अन्तर्युद्ध, अफगानिस्तान की खोफनाक घटनाएं, जिनमें लोग हवाई जहाज से लटके हैं, या फिर अपने बच्चे को ही भूल कर चले गए, उसके बाद उक्रेन और रूस का लम्बा खिंचने वाला युद्ध, और अब पुरानी दुश्मनी को तेज धार देता फिलिस्तान और इजराइल का खूनी संधर्ष।
इन सबमें एक बात एक सी दिखाई देती है, वह है कि बच्चों का मारा जाना, फिर भी उनकी मुस्कान का जब तब फूट पड़ना।
लगता है कि उन्हें मौका मिला तो सीमा के उस पार खड़े बच्चे के साथ फूटबाल खेलने लगेंगे।
हम कौन सी दुनिया तैयार कर रहे हैं बच्चों के लिए?
और यदि बच्चों को हमारे बारे में सोचने की छूट दी जाए, तो वे क्या सोचेंगे?
युद्ध वर्तमान को खत्म करते ही हैं, भविष्य की दीवार भी दरका देते हैं।
ऐसे ही यह अंक युद्धकालीन बच्चों के लिए–
उस एक दिन, जब वे सारे बच्चे
एक दूसरे के साथ होंगे
उस पवित्र आसमान में
जिसमें वयस्कों को जाने की
इजाजत नहीं है
वे बात नहीं करेंगे
तुम्हारी या मेरी
वे सोचेंगे नहीं कि वे
सीमा के इस तरफ थे
या फिर उस तरफ
वे याद नहीं करेंगे गोलियों की आवाजें
जो उनके सीने में घुसी
तुम्हारी गल्ती से या
उधर वालों की गलती से
वे याद नहीं करेंगे तुम्हारे विद्रूप कहकहे
बल्कि मारेंगे किलकारियां
और हर एक गोल वस्तु को
जो चाहे चांद हो या सूरज
या फिर कोई ग्रह नक्षत्र
मारेंगे ठोकर कि
पहुंच जाएं दूसरी ओर
फिर खेलते रहेंगे तब तक
जब तारों को भी नीन्द न आ जाए
एक दिन सीमारेखा के इधर के
और उधर के बच्चे
सातवें आसमान में मिलेगे
तो याद नहीं करेंगे
यह जंगली दुनिया
सांपो का विष
फलों का कुतरा जाना
सिर्फ गाएंगे गीत तब तक
तुम्हारी जंगली दुनिया
तेल रहित दिए सी
बुझ ना जाए
देख लेना
ये सारे बच्चे , जिन पर तुमने गोली दागी
बमों से उड़ाया
पानी में डुबाया
तुमसे बदला लेंगे
तुम्हे बिल्कुल न पहचान कर
अपनी दुनिया का दरवाजा बन्द करते हुए
अभी मैं कविता के बारे में इतना ही सोच पा रही हूं।
युद्ध के विरोध में
रति सक्सेना