मेरी पसन्द

विवेक चतुर्वेदी

सन 1969 में जन्में कवि और समीक्षक विवेक चतुर्वेदी ललित कला में स्नातकोत्तर हैं। आपकी कविताओं का प्रकाशन देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे साक्षात्कार, मधुमति, समावर्तन, कथादेश, पाखी, वागर्थ, लहक, कादम्बिनी, आजकल, अहा ज़िन्दगी, दोआबा आदि में हो चुका है। विवेक की समीक्षाएं – कविता की प्रार्थना सभा (आलोचक-शहंशाह आलम), क़िस्से चलते हैं बिल्ली के पाँव पर (आलोचक-गणेश गनी), प्रारम्भ (समीक्षक-शिवपाल दुस्तावा) में प्रकाशित हुई हैं। कविताओं पर आपकी समीक्षाओं का प्रकाशन विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी हो चुका है।

 

 

 

 

 

 

 

स्त्रियां घर लौटती हैं

 

स्त्रियां घर लौटती हैं

पश्चिम के आकाश में

आकुल वेग से उड़ती हुई

काली चिड़ियों की पांत की तरह।

 

स्त्रियों का घर लौटना

पुरुषों का घर लौटना नहीं है,

पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में

फिर नींद के कमरे में

स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है

वो एक साथ, आंगन से

चौके तक लौट आती है।

 

स्त्री बच्चे की भूख में

रोटी बनकर लौटती है

स्त्री लौटती है दाल भात में,

टूटी खाट में,

जतन से लगाई मसहरी में,

वो आंगन की तुलसी और कनेर में लौट आती है।

 

स्त्री है… जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती

पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है

स्त्री है… जो बस रात की

नींद में नहीं लौट सकती

उसे सुबह की चिन्ताओं में भी

लौटना होता है।

स्त्री, चिडिया-सी लौटती है

और थोड़ी मिट्टी

रोज पंजों में भर लाती है

और छोड़ देती है आंगन में,

घर भी, एक बच्चा है स्त्री के लिए

जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है।

 

लौटती है स्त्री तो घास आंगन की

हो जाती है थोड़ी और हरी,

कबेलू छप्पर के हो जाते हैं जरा और लाल

दरअसल एक स्त्री का घर लौटना

महज स्त्री का घर लौटना नहीं है

धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।

 

मीठी नीम

 

एक गन्ध ऐसी होती है

जो अन्तर में बस जाती है

गुलाब-सी नहीं

चन्दन – सी नहीं

ये तो है बहुत अभिजात

मीठी नीम सी होती है

तुम…ऐसी ही एक गन्ध हो।

 

 

पिता

 

पिता! तुम हिमालय थे पिता!

कभी तो कितने विराट

पिघलते हुए से कभी

बुलाते अपनी दुर्गम चोटियों से

भी और ऊपर

कि आओ-चढ़ आओ

 

पिता! तुममें कितनी थीं गुफाएं

कुछ गहरी सुरंग-सी

कुछ अंधेरी कितने रहस्य भरी

कितने कितने बर्फीले रास्ते

जाते थे तुम तक

 

कैसे दीप्त हो जाते थे

तुम पिता! जब सुबह होती

दोपहर जब कहीं सुदूर किसी

नदी को छूकर गीली हवाएं आतीं

तुम झरनों से बह जाते

पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार

सूरज डूबता

तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता!

तुम क्यों आंख की कोरें छिपाते थे

तुम हमारे भर नहीं थे पिता!

हां! चीड़ों से

याकों से

भोले गोरखाओं से

तुम कहते थे पिता !-‘मैं हूं

तब तुम और ऊंचा कर लेते थे खुद को

पर जब हम थक जाते

तुम मुड़कर पिट्टू हो जाते

 

विशाल देवदार से बड़े भैया

जब चले गये थे घर छोड़कर

तब तुम बर्फीली चट्टानों जैसे

ढह गये थे

रावी सिन्धु सी बहनें जब विदा हुई थीं

फफक कर रो पड़े थे तुम पिता!

 

ताउम्र कितने कितने बर्फीले तूफान

तुम्हारी देह से गुज़रे

पर हमको छू न सके

आज बरसों बाद

जब मैं पिता! हूं

मुझे तुम्हारा पिता! होना

बहुत याद आता है

तुम ! हिमालय थे पिता!

 

 

 

 

डोरी पर घर

 

आंगन में बंधी डोरी पर

सूख रहे हैं कपड़े

पुरुष की कमीज़ और पतलून

फैलाई गयी है पूरी चौड़ाई में

सलवटों में सिमटकर

टंगी है औरत की साड़ी

लड़की के कुर्ते को

किनारे कर

चढ़ गयी है लड़के की जींस

झुक गयी है जिससे पूरी डोरी

उस बांस पर

जिससे बांधी गयी है डोरी

लहरा रहे हैं पुरुष अन्तःवस्त्र

पर दिखाई नहीं देते महिला अन्तःवस्त्र

वो ज़रूर छुपाये गये होंगे तौलियों में।

 

  

शरद की सुबह

 

शरद की सुबह

कभी-कभी इतनी मुलायम होती है

जैसे सुबह हो खरगोश की गुलाबी आंख

जैसे सुबह हो पारिजात के नन्हें फूल

जैसे सुबह हो झीना सा कांच

कभी-कभी सुबह को सुनने और छूने

में डर लगता है

कि जैसे अभी दरक जायेगा एक गुनगुना दिन।

 

 

अपना-अपना दिन

 

सुबह हुई

दो कुर्सियां साथ-साथ बैठीं

चाय पी…फिर अपनी-अपनी

मेज़ के नीचे सरक गयीं

तमाम दिन…..

यूं ही उतरा।

 

 

माँ को ख़त

 

माँ! अक्टूबर के कटोरे में

रखी धूप की खीर पर

पंजा मारने लगी है सुबह

ठण्ड की बिल्ली….

अपना ख़याल रखना माँ !

 

टुडुप-गुडुप

 

खड़खड़ाते पत्तों से दौड़ते

सबसे आवारा

पतझड़ के दिन गये

माँ की रोटी के तवे सा

तपता चैत आया… गया

धोबी के लोहे में

सुर्ख कोयलों सा दहकता

बैसाख आया… वो भी गया

अब आ रहा है सावन

पानी की नन्ही इक बूंद सी

तुम टुडुप जाना

आंगन में बन आयी

छोटी-सी तलैया में

हम दोनों हो जायेंगे… गुडुप।

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