कविता के बारे में

अंधेरे के गीतों के वाहक – गौतम वेगड़ा

कमल मेहता द्वारा प्रस्तुत

 

 

वंचित वर्ग से आने वाले कवियों/लेखकों में से बहुत कम ही ऐसे हैं जो मुख्यधारा में पहचान हासिल कर पाते हैं। अधिकांश किसी अंधेरे कोने में अपने लेखन के साथ जूझते रहते हैं, जब तक उनके शब्द अंधेरे में कहीं खो न जायें, लेकिन गौतम वेगड़ा ऐसा नाम बनकर उभरे हैं जिन्होंने अपनी पहचान भी बनाई है और लीक से हटकर नई परंपरा स्थापित करने की हिम्मत भी दिखाई है। गौतम फ़िलहाल केंद्रीय विश्वविद्यालय, गुजरात के शोधार्थी हैं, वे साहित्य के क्षेत्र में अपना शोध कार्य कर रहे हैं और अब तक “Vultures”, “A Strange Case of Flesh and Bones” और “The Black Drongo” नाम से किताबें भी लिख चुके हैं। गौतम मूलतः अंग्रेजी में लेखन कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह सशक्तिकरण और मुक्ति की भाषा है और इसके ज़रिये वे साहित्यिक संगठनों और शिक्षाविदों का ध्यान खींचने में सक्षम हैं , क्योंकि एक बड़ा बौद्धिक वर्ग अंग्रेजी में पढ़ता और लिखता है साथ ही  वे इसे अम्बेडकरवादी-बहुजनवादी बौद्धिक परंपरा का जरूरी हिस्सा मानते हैं। वे सिर्फ लेखकीय जीवन में इस परंपरा को पोषित नहीं करते वरन निजी जीवन में भी वे सैद्धांतिक आधारों को धरातल पर लाते हैं। सामाजिक परिवर्तन का रास्ता स्वयं से शुरू होकर राष्ट्र के स्तर तक जाता है और गौतम का इसमें अगाध विश्वास है। वे मानते हैं कि गुलामी की हर कड़ी को तोड़ा जाना चाहिए और इसके लिए वे साहित्य को ज़रिया बनाते हैं।

 

गौतम वेगड़ा, अम्बेडकर और बुद्ध के मार्ग को ही वंचित वर्गों के उत्थान के लिए एकमात्र रास्ता बताते हैं, जहां शिक्षा की महत्ता भी हो और बेहतर समझ के साथ आडंबर रहित जीवन भी अपनाया जाए। वे अपनी एक कविता में स्याही को शिक्षा के प्रतीक के रूप में लिखते हैं –

 

मेरी आंखों मे सिर्फ स्याही उबलती है

………………………….

भले ही मेरी आंखें हमेशा के लिए बंद हो जाएं

मैं उन्हें स्याही से उबलते हुए पकाऊंगा।

 

बुद्ध और अम्बेडकर के सुझाये रास्तों को वे सुरक्षा कवच की तरह देखते हैं जो उत्तरोत्तर वंचितों का मार्ग प्रशस्त करता रहेगा –

 

अम्बेडकर की बाईस प्रतिज्ञाएं

खोपड़ी की बाईस हड्डियों की तरह हैं

जिस तरीके से हड्डियां रक्षा करती हैं

दिमाग और उसकी जगह की

उसी तरह ये बाईस प्रतिज्ञाएं रक्षा कवच हैं

हमारे बंधन मुक्त अस्तित्व के।

 

इसी कड़ी में वे कहते हैं‍—

 

बुद्ध का रास्ता

कभी भी आसान नही रहा

विवेकशीलता के कांटे

कुतर्कों के हर कदम पर चुभन देंगे

 

गौतम की कविता “शिक्षक” तो सीधी सपाट भाषा में  जातिवादी मानसिकता से सराबोर शिक्षा व्यवस्था का उद्धाटन है। समाज में शिक्षक का पेशा पवित्र माना जाता है लेकिन कई द्रोणाचार्यों के  असली चेहरे उसी पवित्रता के मुखौटों के पीछे छिपा लिए जाते हैं। इसका संदर्भ देने के लिए मैं उनकी कविता का कोई अंश प्रस्तुत करना चाहता था मगर पूरी कविता ही सन्न कर देने वाले शब्दों और पंक्तियों से भरी है, इसलिए मैं बड़े असमंजस के साथ शुरुआती पंक्तियां ही यहां उद्धृत कर रहा हूं-

 

मुझे क्या सीखने की इच्छा थी ?

मुझे क्या सीखने को मजबूर किया गया ?

हर जगह “शिक्षक” हैं

हमें सबक सिखाना चाहते हैं।

इस कविता का अंत करते हुए वे ऐलान के लहज़े में कहते हैं-

मुझे बहुत कुछ सिखाया गया, लेकिन

मैं इतना क्रूर शिक्षक नही बनूंगा।

 

वे कविता, माइक्रोफिक्शन, पेंटिंग और चित्रण के माध्यम से प्रतिरोध को नया रूप देने का प्रयास करते दिखते हैं। इसकी आजमाइश में “नंगेली” पर वे पहला काम करते हैं। वे घटना के प्रभावों से शोषित समाज को वाकिफ़ कराना चाहते हैं और कविता में विद्रोह के भाव को इस तरह दिखाते हैं-

 

स्तनों से उबलता दूध

खून में तब्दील हो गया

और विद्रोह हुआ।

 

भारत की आज़ादी के बाद संविधान निर्माण के दौरान ही निर्माताओं की यह समझ बन चुकी थी कि राजनैतिक स्वन्त्रता के मायने तभी हैं, जब सामाजिक स्वतंत्रता हासिल हो। इसके कई संदर्भ अपने आसपास के जीवन में देखे जा सकते हैं विशेषकर चुनावी माहौल में इसे और स्पष्ट समझा जा सकता है। वे अपनी कविता”कुर्सी” में यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि किस तरह व्यवस्था में पद हासिल कर लेने के बाद भी सामाजिक स्वीकार्यता हासिल कर पाना कितना मुश्किल है। यह कविता नारीवाद की अधूरी परिभाषा को भी उद्घाटित करती है जहां पितृसत्ता के साथ जाति के सामंजस्य को नकार दिया जाता है।

 

“उसके बच्चे कल तक बचा हुआ सामान उठाया करते थे।”

एक बूढ़े आदमी ने कहा।

“उसका आदमी मरे हुए मवेशियों को घसीटता था,

गंदा चाप।”

एक आदमी ने घृणा में ये कहा।

“मैंने खेतों के बीच कई बार उसके स्तन मसले

वह डर और बेबसी में कभी आवाज़ निकाल  सकी।”

एक अधेड़ उम्र का आदमी हंस रहा था।

 

चमगादड़ को जाति व्यवस्था के खिलाफ प्रतीक के रूप में वे दिखाते हैं। वे कहते हैं ‘हम चमगादड़ चीजों को उल्टा करने के लिए बड़े हुए थे आप किसी भी पदानुक्रम को गढ़ सकते हैं मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि उसे उल्टा दिया जाए।‍ गौतम अपनी कविता में कामगारों और उनके बच्चों के बचपन की परवरिश में असहनीय दर्द का ज़िक्र भी इस तरह करते हैं –

 

खाली, सिकुड़े हुए और शिथिल

मेरी माँ के स्तन

सोख लिए मैंने, जीवित रहने के लिए।

पसीने और सीमेंट का मिश्रण

जिसे मैंने खुशी से निगल लिया

कुछ नही बस समझ थी

माँ की, मेरे लिए।

 

गौतम दलित-वंचित समुदायों के आज़ादी के बाद की तीसरी पीढ़ी के उच्च शिक्षा में आने और पीढ़ीगत रूप से संयुक्त आवाज़ उठाने की उभरती संभावना के पीछे सैकड़ो सालों के संघर्ष को रेखांकित करते हैं-

 

मैं गलियों में झाड़ू लगाता रहा

कष्टप्रद सितारों के लिए

धूल के कणों ने मेरे वज़ूद को धुंधला कर दिया

जो धूल की परत से तत्व में परिणत हो गए

और अंततः चमकने के लिए फट पड़े।

 

गौतम वंचित समुदायों के दबाये हुए इतिहास को अपनी कविताओं की माध्यम से सामने लाना चाहते हैं और अपने आप को इसी में केंद्रित कर लेना चाहते हैं और अपनी यह भावना वे अपनी कविता “तीन हाथ” में कुछ इस तरह प्रकट करते हैं –

 

एक मात्र ख्याल को मेरे जेहन में आता है

वो मेरा इतिहास लिखने का है,

मेरा दबा हुआ अस्तित्व।

 

इस इतिहास को लिखते रहने के अपने कार्य को वे सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखते हुए अपने जीवन की हार्दिक इच्छा को प्रकट करते हुए लिखते हैं –

 

मैं चाहता हूँ कि मेरे तीन हाथ होते

ताकि स्याही धाराप्रवाह दौड़ती।

 

यह स्पष्ट है कि गौतम बहुजनवादी विचारधारा को मद्देनजर रखते हुए लिखते हैं इसलिए इससे जुड़े इतिहास बोध पर लिखना जरूरी समझते हैं और लाज़मी भी। इस कड़ी में भीमा-कोरेगांव का संघर्ष महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है जो दलित वर्गों के लिए शौर्य और गर्व का प्रतीक है। इसे वे यूं लिखते हैं –

इतिहास के पन्नों में

भीमा नदी की तरह

हमारा खून न कभी स्थिर रहा

न कभी शांत।

 

समकालीन मुद्दों पर कलम चलाना गौतम की सजगता भी कही जा सकती है और पीड़ा भी। अखबारों में केवल तथ्य लिखे जाते हैं, गौतम उन तथ्यों के पीछे का सच लिखते हैं। वे पंक्तियों के बीच के गुमनाम कर दिए जाने की साज़िश के तहत अदृश्य शब्द ढूंढ लाते हैं। मध्यप्रदेश में हुए “मूत्राशय कांड” को वे इस तरह लिखते हैं-

 

कितनी बार तुमने मेरी नाजुकता/दुर्बलता साझा की है

करोडों मोबाइल-कम्प्यूटर की स्क्रीन पर

आदिवासियों को पहले खौलता हुआ मूत्र मिला

और अंत मे डिजिटल सांत्वना

मोबाइल की स्क्रीन पर। 

ऐसा ही एक घटनाक्रम जो कि हाथरस में हुआ, पर गौतम ने अपनी कलम चलाई जो हमारे देश में नई परंपरा के रूप में देखी जानी चाहिए। अंग्रेजी ग़ज़ल के रूप में नया प्रयोग गौतम को अलग बना रहा है-

 

रैलियां होगी, मोमबत्तियां जलाई और बुझाई जाएंगीं हर बार

जिसे तुम पाप कहते हो, उनकी किताबों में वे उससे दोषमुक्त होंगे।

 

उनकी ये पंक्तियां व्यवस्था की काली सच्चाई भी दिखाती हैं जहां लोग न्याय के लामबंद होने से पहले भी तथाकथित सामाजिक पायदानों का अनुसरण करना ज्यादा जरूरी समझते हैं।

 

गौतम पर्यावरण, जाति और साहित्य की समझ को मिश्रित करते हुए लिखते हैं। वे कहते है पर्यावरण-जातिवाद, पर्यावरण के दायरे में एक और अति सूक्ष्म अंतर है जैसे पारिस्थिति की नस्लवाद और पारिस्थिति की नारीवाद। पर्यावरण संसाधनों का वितरण जाति के आधार पर निर्धारित किया जाता है, जाति के आधार पर ही यह तय होता है कि किसे जमीन, पानी और अन्य संसाधन मिलेंगे। यह उनकी साहित्यिक रचनाओं में स्पष्ट झलकता है-

 

मैं एक गिद्ध की तरह हूं

जिस पर बोझ है

कभी न खत्म होने वाली ज्यादतियों का

जो लगातार हम पर थोपी गई

इसी कविता का अंत वे कुछ यूं करते है-

इस धरती का मेरे लिए क्या अर्थ है ?

अवशेष ?

 

उनकी कविता “मस्केट ट्री”  रेगिस्तानी जीवन में जीवन संघर्ष को बयां करती दिखती है। वे कविता में दिखाते हैं कि किस तरह इस रेगिस्तानी फलीदार बबूल वृक्ष से वे जीवन संघर्ष में मदद हासिल कर सके-

 

मैं एक रेगिस्तानी इलाके में पैदा हुआ

जो घिरा हुआ था

घने बबूल के वृक्षों से

लकड़ी, गोंद, फली, फूल आदि

इन सबने मुझे पोषित किया।

 

गौतम वंचित तबकों से आने वाले, संघर्ष करते लोगों से अपील करते हुए अपनी कविता “सुपरनोवा” में लिखते हैं –

गरिमा की लड़ाई हमारे लिए आध्यात्मिकता है

 

तुम अंतहीन अंधेरों में सितारा बनो

अपने अंदर के नाभिकीय संलयन को हवा मत होने दो

उज्ज्वल और उज्ज्वल होकर चमको

और जब तुम्हारा पतन होने लगे, घबराना मत, मेरे बच्चे

तुम्हारे अंदर से एक विस्फोट बाहर आएगा

और नए सितारों को जन्म देगा।

 

कमल मेहता द्वारा प्रस्तुत

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