
मेरी बात
जब मैं उड़िया के प्रमुख कवि रमाकान्त रथ जी से संवाद कर रही थी, तो यह बात निकल कर आई कि कविता और तिरस्कार एक दूसरे के समवाची हैं। कवि का विचार था कि तिरस्कार जीवन का निचोड़ है, सभी कलाकार इसे अनुभूत करते हैं, किन्तु कवि के हिस्से में तिरस्कार कुछ ज्यादा ही मात्रा में आता है। तिरस्कार मात्र लौकिक ही नहीं अलौकिक भी होता है। भक्ति युग की समस्त कविताएँ ईश्वरीय तिरस्कार के विरोध की आवाज रहीं होंगी। विचारणीय यह है कि तिरस्कार तो प्राणी मात्र का दर्द है, फिर मात्र कवि ही क्यों ज्यादा अनुभूत करता है, संभवतः इसलिए कि कवि में संवेदनशीलता कुछ ज्यादा होती है और सही माने में उपेक्षा का शिकार कवि ही होता रहता है।
मेरे मन में यह सवाल भी उठा कि यदि कवि सदैव ही तिरस्कार पाता रहा तो उसकी कविता मात्र जिन्दगी के स्याह पन्नों के बारे में बात ही करेगी, और यदि ऐसा हुआ तो वह भाव कहाँ जाएगा जिसे आनन्दातिरेक कहा जाता है? क्या तथाकथित आनन्द मात्र कल्पना है या फिर वह भी वेदना का दूसरा पहलू है?
आनन्द और वेदना में समभाव हमारे कवियों ने भी स्थापित किया है। लेकिन क्या समकाल में इस समभाव को उसी रूप में देखना जरूरी है? जब सभी कलाएँ यश और धन को महत्व देती हैं, तो कविता या कवि तिरस्कार के सहारे जीते रहे।
सवाल बेहद पेचीदा है,
किसी निर्णय पर पहुँचना कठिन है,
शुभकामना के साथ
रति सक्सेना