
हमारे अग्रज
सिद्ध कवि मिला रेपा
(17 सदी AD)
अनुवाद और प्रस्तुतिः अजेय
भारतीय सिद्ध तिलोपाद की परंपरा में सिद्ध मिलारेपा संभवतः पहले तिब्बती भाषा के सिद्ध कवि हैं। उनका बचपन सुख सुविधाओं से पूर्ण था। लेकिन पिता की मृत्यु के बाद जैसे परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। निकट संबन्धियों ने छल से माँ व बच्चों की संपत्ति हथिया ली। अपनी बहन पेता और माँ के साथ दर दर भटकते हुए मिला रेपा ने अकथनीय कष्ट झेले। फिर काला जादू सीख कर शत्रुओं से प्रतिशोध लिया। अत्यधिक खून खराबे से मिला का मन संसार से भर गया और वे एक भिखारी की तरह हिमालय में भटकते हुए मुक्ति का मार्ग खोजने लगे। इसी दौरान वे महासिद्ध मरवा से मिले जिन्होंने भारतीय सिद्ध नरोवाद से तान्त्रिक बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी।
कहा जाता है कि मिला रेपा ने एक लाख गीत रचे हैं। ये गीत आज भी तिब्बत के भिखारी एवं बंजारा गवैया गाते हैं। इनमें से बहुत से संग्रहीत एवं मुद्रित रूप में उपलब्ध हैं। सबसे बड़ा संग्रह मध्य तिब्बत में करमाया विहार ” डोलुंजियों ” में उपलब्ध है। मिला रेपा ने काव्य शास्त्र की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। ये गीत उनके श्री मुख से स्वतः प्रस्फुटित उद्गार हैं। तथापि माना जाता है कि इनमें तिब्बती काव्य शास्त्र के नियमों का अक्षरशः पालन हुआ है।
अन्तिम दिनों मे मिला रेपा समस्त सांसारिक बंधनों से टूट चुके थे। यहाँ तक कि मन्दिर , पुरोहित , पुस्तक, शिक्षा , उपदेश, आदि से घृणा करने लगे थे। वे नग्नावस्था में रहते थे तथा उनका प्रिय भोजन बिच्छु बूटी का साग था। मिला रेपा की आध्यात्मिक ख्याति सुन कर एक बौद्ध भिक्षु ने शास्त्रार्थ करना चाहा। उसने सवाल किया… “पारमिता यान के बारे में तुम क्या जानते हो?”योगी ने ठहाका लगाते हुए कहाः “पारमिता शारमिता के बारे में तो कह नहीं सकता पर इतना जानता हूँ कि मैं इसी जन्म में “पार” जाने वाला हूँ। ”
एक बार कुछ भक्त मिलारेपा से मिलने गए। वे सदा की भाँति निर्वस्त्र थे। उन्हें इस अवस्था में देख कर भक्त असमंजस में पड़ गए। अन्ततः एक ने उन्हें वस्त्र से ढँक दिया और निवेदन किया..
” हे जेछुन! तुम अपनी नग्न काया एवं लिंग को जिस प्रकार प्रदर्शित किए हुए हो उससे हमें लज्जा आती है। कृपया सांसारिक लोगों की खातिर इसे ढँक कर रखिए।”
यह सुन कर महासिद्ध निर्वस्त्र ही खड़े हो गए और गाने लगेः…
मुझे नहीं लज्जा
यायावर हूँ
दिन बीते बहुत
भूल गया जन्म भूमि
गुरुचरणों में रहते हुए
बहुत दिन हुए
भूल बैठा सगे सम्बन्धी
चला हूँ बुद्ध मार्ग
कुटियाओं और कंदराओं में रहते हुए
भुला बैठा भौतिक आकर्षण
……………….
देखता हूँ क्रीडा
जंगली वानरों की
भूल गया पालतू पशु
याद है मुझे बस “सोख्ता दान”
क्यों याद रखूँ
घरेलू साजो सामान?
मेरे लम्बे एकान्त वास में
न कोई नौकर चाकर
न कोई मालिक
याद नहीं शिष्टाचार भी
लज्जा भूल गया
फकीरी की बेपरवाही में
चीजे मेरे मन में आती हैं
सहज भाव से
कैसे छिपाऊँ
उनका बेरोक टोक आना?
क्या जरूरत कपड़ों की
कि तप रही है काया
तुमों की उष्णा से
सुलझ गई है
द्वैत की गुत्थी
क्या प्रयोजन तुम्हारे
सांसारिक नियमों का?
सहज वृत्ति ही बोधि है
मेरे लिए अब!
…………….
नहीं जी सकता
तुम्हारी तरह
सांसारिक धर्म का पालन करते
वैसे ही जीऊँगा मैं
भाता है मुझे ज्यों
शून्य का मनन करते हुए
जिसे तुम कहते हो लज्जा
महज भ्रमों को जन्म देती है वह
और पाखण्ड को भी
जानता नही बहाने बनाना
भूल गया मातृभूमि भी।
सोख्ता दानः एक डिब्बा जिसमे गडरिए रेशेदार सूखी घास रखते हैं , जो चकमक पत्थर से सूखी घास जलाने के काम आती है।
तुमोः योग की विभिन्न पद्धत्तियों में से एक
मन को जीतना
रहस्य छिपा है सारा
उसे जाने देने में
उस पर बोझ न डालने में
कुछ भी न करने में
जैसे कि सोता है एक शिशु
बिना लहरों के
शान्त समुद्र की तरह
बिना झौंको के
एक दैदीप्यमान दिए की तरह
उसे विश्रान्ति दो
दृढ़ निश्चय के साथ
जैसे कि एक शव लेटा रहता है
अहंकार विहीन!
…………………………….
जानते हो कैसे
जन्म लेते हैं विचार?
जैसे स्वप्न
वह भौतिक नहीं होता
एक विशद सूर्य विहीन ब्रह्माण्ड
जिसके बाहरी दायरों में
असंख्य चन्द्रमा दिखने लगते हैं
जैसे मायावी इन्द्र धनुष
नहीं खोज सकते
उसका एक निश्चित उत्स!
बोधि का प्रकाश जब जगमगाता है
सब कुछ विलीन हो जाता है
नहीं छूटा रहता एक भी चिह्न!
जानते हो ,
कैसे निपटना है विचारों से?
प्रयास करो देखने का
बिना अलगाए
सतत परवर्तनशील
चंचल मेघों को
आकाश के साथ
उफनती लहरों को
सागर के साथ
घने कोहरे को
हवा के साथ!
व्याप्त यूँ ही उत्तेजना
प्रकृति में
प्रयास करो देखने का
बिना अलगाए
मन की व्यग्रता को
प्रकृति के साथ!
………….
जो चेतन होगा
वही जानेगा कि
साँसों में ही उद्भूत है मन
चोरी छिपे
घुसपैठ करते विचार
खोज जो पाएगा
वही जानेगा
देख पाना
अतिशय सूक्ष्म इस शरारत को!
स्त्री
शून्यता है मेरी स्त्री
वासना मुक्त
परम करुणामय उसका चेहरा
आह! कितना मृदुल
और गहरा स्नेहपूर्ण अमुग्रह
उसकी मुस्कान में
श्वेत और लाल
ताना-बाना से बुना उसका वस्त्र
बँधा है
अभेद के कटिबन्ध से
सज रहा है उस पर
अद्वैत का आभूषण
और श्वेत मुक्त माला
झूल रही कंठ पर
एक में अनेक का दर्शन कराती
आनन्द चतुष का शृंगार किए हुए
आह!!
कतनी सुन्दर है अप्सरा
सम्यक विष्पत्ति की हेतु है जिसका
वही है मेरी प्रिय साथिन
मुझे नहीं चाहिए
कोई अन्य स्त्री!
(पुनः प्रकाशित)