मेरी बात
जब
तक मनुष्य प्रकृति के निकट रहा, तब तक उसकी अभिव्यक्ति में सहजता रही थी। प्रकृति की सहजता अभिव्यक्ति में भी कृत्रिमता नहीं पिरोती। लेकिन उनमें गति और नैसर्गित छन्दस अवश्य होता है। आदीवासी गीतों में आज भी यह देखा जा सकता है। ये गीतात्मकता अपनी लयात्मकता के कारण पांवों को भी थिरकन देने में सक्षम हैं सभवतया इसी कारण से आदीवासी गीत अतिजीवी होते हैं। जब समय बदला, मनुष्य की लालसा जमीन को हड़पने की बढ़ती गई तो कविता ने भी आभूषण धारण कर लिए, वह जन सामान्य से दूर जाने लगी। यह काल बहुत लंबा रहा , क्यों कि शासन सभी को प्रिय होता है। शासन काल में मात्र कुछ लोग उच्च स्थान पर विराजमान होते हैं, यही कविता और कला के साथ हुआ, वह अलंकृत तो हुई, लेकिन जन सामान्य से दूरी बढ़ती गई
फिर युद्ध आदि ने इंसानियत पर प्रश्न चिह्न लगाने शुरु कर दिए। शासन के केन्द्र टूटने लगे तो शब्द बिखर कर जन सामान्य में बिखर गए। लेकिन अब पुराना सुरीलापन लाना कठिन था। यही कारण है कि समकाल में हमें जो आवाज सुनाई देती है, उनमें अलंकार नहीं होता, वे हमारी अपनी भाषा में होती है, और गीतात्मकता गद्य सी सपाट होने लगती है।
क्या इसका अर्थ यह है कि हम पुनः प्रकृति की ओर जा रहे हैं, नहीं ऐसा है। प्रकृति अभी भी हमसे दूर है, या कहा जा सकता है कि हमने अपने को प्रकृति से दूर कर दिया है।
कहीं यह कारण तो नहीं कि हम कविता से भी दूर होते जा रहे हैं।
हम बहुत ज्यादा लिख रहे हैं, लेकिन क्या लेकिन हम अपने समय को चिह्नित कर पा रहे हैं? संभवतया यही सवाल है।
शुभकामनाओं सहित
रति सक्सेना