हमारे अग्रज

 

नामदेव

भारतीय साहित्य में भक्ति काव्य का विशेष महत्व है। भारत के हर प्रान्त व हर समुदाय में भक्ति साहित्य का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। उत्तर में जहां तुलसी, मीरा, कबीर जैसे संत कवियों ने साहित्य को आयाम दिया वहीं अन्य भाषा और प्रान्तों में नामदेव, तुकाराम, नानक, तिरुवल्लुवर आदि का नाम आदर से लिया जाता है। भक्ति साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इनमें समाज के हर वर्ग के व्यक्ति को साथ लेकर चलने की क्षमता थी और ये तत्कालीन सामाजिक चेतना में जागरण लाने और सामाजिक कुत्सता के खिलाफ खड़े होने का अदम्य साहस रखते थे। महाराष्ट्र के नामदेव का स्मरण एक सामाजिक प्रचेतक और भक्ति के लिए आदर से लिया जाता है किन्तु उनकी काव्य कला भी कम महत्व नहीं रखती है। विशेष रूप से उनके द्वारा रचित अभंग अर्थ और कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

 

 

1

सदगुरु नायकें पूर्ण कृपा केली।
निजवस्तु दाविली माझी मज।।१।।
माझें सुख मज दावियेलें डोळा।
दिघली प्रेमकला ज्ञानमुद्रा।।२।।
तया उतराई व्हावें कवण्या गुणें।
जन्म नाहीं येणें ऐसे केले।।३।।
नामा मृणे निकी दावियेली सोय।
न विसरावे पास विठोबाचे।।४।।
नामदेव गाथा साखरे‍‌-154
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सत गुरू ने पूर्ण कृपा कर।
मुझे दी दृष्टि समझने को निज वस्तु ।।१।।
मेरी आंखों ने देखा निज सुख।
दी दान प्रेमकला ज्ञान मुद्रा की।।२।।
किन गुणों से मैं हूँ, उनरिन।
न होवे पुनर्जन्म, कुछ ऐसा किया।।३।।
नामदेव कहे, भला साधन देखा।
न भूल पावूं निकटता विठोवा की।।४।।

2

विटेवरी उभा दीनांचा कैवारी।
भेटाया उभारी दोन्ही बाह्या।।१।।
गुण दोष त्यांचे न पाहेचि डोळा।
भेटे वेळोवेळा केशिराज।।२।।
ऐसा दयावन्त घेत समाचार।
लहान आणि थोर सांभाळितो।।३।।
सर्वालागीं देतो समान दरुशन।
उभा तो आपण सम पायीं।।४।।
नामा मृणे तया संताची आवडी।
भेटावया कड़ाड़ी उभाची असे।।५।।
पद‍-1076

ईंट पर खड़ा दीनों का त्राता।
मिलन को दोनो बाहें फैलाता।।१।।
उसे न आते गुणदोष नजर।
बार बार गले लगता केशिराज।।२।।
ऐसा दयालु, कि पूछे बार बार समाचार।
छोटे बड़ों की करता संभार ।।३।।
सबको देता समान दर्शन।
सबसे करता सम आचरण।।४।।
नामा कहे कि उसे संत है प्यारे।
भेंट को खड़ा वह उनसे दिदाल।।५।।

3

कांडितांचि कोंडा न निछे तांदूळ।
शेरा कैसे फळ अमृताचे।।१।।
कण्हेरीच्या मूळा सुगंध तो नाहीं।
कसाबाची गाई जिणें कैचें।।२।।
रुई दूध जरी येईल भोजना।
लोभियाच्या धना वेंच नाहीं।।३।।
निर्फल हें जिणें भक्तीविण मन।
नामा म्हणे जाण नये कामा।।४।।
पद-1905

***

फूस कूटे न निकले चावल।
भूहर के फल क्या होवें अमृत।।१।।
कनेर की मूल में न होवे गंध।
गाय बचे कैसे कसाई के संग।।२।।
आक का दूध कहां पीने जोग।
कृपण के धन का क्या उपयोग।।३।।
निष्फल यह जीना, जो भक्ति बिन मन।
नामा कहें नहीं काम का, यह लो जान।।४।।

डा. गो.रा.कुलकर्णी के भावानुवाद का परिवर्धित रूप

( आभार सहित‍–साहित्य भारती)

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