हमारे अग्रज

सीताकांत महापात्र विश्वख्याति प्राप्त उड़िया के प्रमुख कवि हैं। आप के अनेक काव्य ग्रन्थों का हिन्दी के अतिरिक्त अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है। ज्ञानपीठ सहित अनेक पुरस्कारों के विजेयता सीताकान्त जी कविता जिन्दगी की कविता है, जो आसपास से गुजरती हुई वैश्विक बन जाती है।

 

ट्रेन में सुबह

 

अस्थिर ट्रेन दौड़ती है पागलों सी
सैंताती है साँस लेती है,
फिर दौड़ने लग जाती है

 

सूर्य कोहरे की चादर से झाँकते हैं
तुम चाय पीने को बुलाती हो
सुन पड़ती है मानो पिछले जन्म से
वही आवाज
बहती हुई आती नन्ही तितली सी
आँखे मलता हुआ उठता हूँ मैं
किस युग की, किस जन्म की नीन्द से।

 

दौड़ी चली जा रही है ट्रेन
अपरिचित गाँव के किनारे से
कौन जाने
कैसा देश है, कैसा युग है वह
ताल के घाट पर दीखती है
अनेक अविवाहित किशोरियाँ और बहुएँ
बेहद उदास चेहरे वाली एक किशोरी
चित्र प्रतिमा सी ताक रही है
आकाश की ओर
ताल के दूसरी तरफ हाफपेन्ट धारी किशोर
मछली की तरह
कूद पड़ता है पानी में छपाक से।
सबेरा टूक -टूक हो जाता है
ताल के पानी की तरह
फिर
जुड़ जाता है स्मृतियों सा
किशोरी की कोमल पलकों सा।

 

क्या वह किशोरी तुम हो?
क्या वह किशोर मैं हूँ?
“चाय ठंडी हो रही है
मूर्खों की तरह क्या देख रहे हो?”
शब्द फिर सुनाई देते हैं
किसी जन्म के।

पर इतने में सपना टूट जाता है
भूत लगी ट्रेन
दौड़ी चली जा रही है
न जाने कहाँ!

 

अनामिका

 

घनघोर अंधेरे में
स्तब्ध, मूक पर्वत की कमर में
एक आर्त्तस्वर ” ले गया” “ले गया”
गूँज उठा और पसर गया
समुद्र की लहर बन आदिगंत
चौदह भुवन को पाट गया, व्याप्त हो गया
पछाड़ खाकर रोया, उजड़ा उजाड़ा
शून्य में उड़ गया
उसके बाद आकाश, तारे
सुनसान ससागरा धरा
गहन कानन वन फिर शान्त हो गए

 

व्यथित मंथित वह शब्द
सारी यंत्रणाओं का वह शेष श्लोक परम सत्व
असहाय प्राणियों की आर्त्त पुकार
कौन जाने देवताओं को सुनाई दी या नहीं।

 

शेर के पंजे से पूर्वाशा में रक्त छिटे
आकाश में इतना बड़ा छेद
दम-दम दमकता उगता सूर्य
समय का परदा भी छिन्न- भिन्न
बावजूद इन सबके
चारों ओर पृथ्वी के
झरना किनारे, महुआ की छाया में
आजन्म मातृहीन
सुबह पितृहीन अभागा बच्चा
असमय ही मुरझाया एक फूल अहा
आकाश को सारी सृष्टि के उसी आदिमूल
उगते सूरज को
ताक रहा था।

 

कुछ पूछने सा भाव उसके चेहरे पर
अँधैरे में ज्योति सा
अशब्द शब्द सा पसर गया चुपचाप।
एक गाँव, एकबच्चा होता है वहाँ
उसी मूक और निर्वाक् पर्वत की कमर में
महुए की छाया में, झरना किनारे
इतिहास , देवता या मनुष्य
भला कौन जानता है? कौन पूछता है?

 

उठकर चल दिए तुम

 

चल दिए तुम
बह गए आश्विन के सफेद बादलों की तरह
छोड़ गए मुझे शून्य नील नभ की तरह
बैया रहा शून्यता अगोरे।

 

तुम्हारे लिए कामना है मेरी कई जन्मों की
सारी आकुल तृष्णा इसी जन्म की
दिन -दिन , रात- रात
शीत, ग्रीष्म, वर्षा , बसंत के
तमाम गुलमोहर अब दानावल की तरह
जल उठते हैं , और सहसा ग्रस लेते हैं मुझे
अकालबोधन इस असमय ग्रीष्म में
भला क्यो छोड़ गए मुझे एकाकी
क्षणों के शून्य बिछावन पर।

 

क्या तुम इतना भी नहीं जानते थे
शब्द हो नीरवता हो
मैं तुम्हें प्रत्येक साँस में
अपन भीतर ले जाता हूँ
रक्त, माँस, आत्मा मे मिलाता हूँ
अँधेरे में उजाले में
मेरी माटी की प्रतिमा को
देती है जीवन्यास वह साँझ।

 

दूब

दूब दूब पहचानता हूँ मैं तुझे
हुत् हुत् जलता सूरज और आकाश
निश्चल शान्त मेदिनी
है कितना अद्भुत भरोसा तुझे
है कितना विश्वास
पीकर जरा सी ओस
दिन- दिन भर , रात- रात
घुटनो चलना, घिसटते हुए
कुँआ कुँआ रोना और हाँफना
सुना है सुना है
रेत में अँगुली भर आगे
विकल प्राणी का बरताव
पहचाना पहचाना है
दुबली पतली हरी देह में तेरी
आनन्द और यंत्रणा का शिलालेख
खरोंच- खरोंच कर पढ़ा है मैने सदा।

देख मेरी ओर
कोमल पत्ते की आँखों से
किसलिए घिसटती हूँ मरुस्थल में
शून्यता से शून्यता ही
अँधेरे से घोर अँधेरे में
प्रथम कुँआ कुँआ के जापाघर से लेकर
शब्दहीन शेष घड़ी तक
बीच में यही बँधाए कुल पल
अबूझ , फिर भी आस्वाद
कैसी यंत्रणा, कैसा अंधकार
फिर भी है आल्हाद।

दूब दूब
यह आकाश , चाँद और ओस
दूब दूब
नारी और नक्षत्रों की नील रात्री
पवन का स्नेह से सरोबार स्वर
दूब दूब
क्षुधा, तृणा, प्रतीक्षा का अंतहीन उनींदा प्रहर
साथ- साथ रमे हैं
सखि मेरी प्राणों की अपनी।

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