कवि अग्रज

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्रीविलास सिंह

 

 

मुर्दों का टीला

 

विरूपित 

है
हमारे समय का चेहरा
हमारी अशक्त रक्तवाहिनियों में
लहू की जगह
पिघले हुए कांसे ने ली है
विषाक्त हो गया है हमारा मस्तिष्क
सुदूर अतीत के अंधे कुओं में
हम टटोल रहे हैं
गरिमा के चमकते क्षण
हमारी प्रतिबद्धताओं के शव पड़े हैं
इक्कीसवीं सदी के राजमार्गों के किनारे,
फ़राओ के जुलूस के आगे
नाच रहे हमलोग
ममियां निकल कर आ गयी हों जैसे
अपने हवा विहीन शीतल कक्षों से,
ग़ुलामों की आत्माएं चीखती हैं
बेगार की पीड़ादायक स्मृतियों में,
सड़कों पर नारे जारी हैं
बहरों को सुनाने के लिए और
आत्माएं सुनसान हैं बंजर और बंध्या।
प्राचीन अपराधों के समीकरण
संतुलित किए जा रहे
नए और गुरुतर अपराधों से,
हमारे सिर खुदाई में मिले थे
मुर्दों के टीले से
पर विचार सड़ कर खत्म हो चुके थे,
और सिर विहीन हमारे धड़
नृत्य कर रहे जादूगर की धुन पर,
अयाचित ही हमने पा लिए
इतिहास से प्रतिशोध के हथियार,
हवा में है हर तरफ़
मृत्यु की गंध
और जीवन के स्वप्न खोजती आंखें
कड़वाहट से जलने लगीं हैं।
समय हंस रहा है
उस के चेहरे पर उभर आयी हैं
क्रूरताओं की तांबई रेखाएं।

***

(मुर्दों का टीला मोहन जोदड़ो को कहते हैं)

 

रक्त की प्रतीक्षा में

 

सोचा था याज्ञसेनी ने कि
दुःशासन के रक्त से
उसके केशों के प्रक्षालन के पश्चात
मिट जाएगी रक्त की प्यास और
फिर कोई उद्दण्ड न करेगा साहस छूने का
किसी स्त्री के केश
न जुटेगी फिर कोई सभा मुर्दों की
मौन देखने को स्त्री के अपमान का प्रहसन
जो शीघ्र ही परिवर्तित हो गया दुखान्तिका में
पर गलत सोचा था पांचाली ने
मिथ्या था उसका विश्वास
हर युग के होते हैं अपने युधिष्ठिर और दुर्योधन
हर युग में वह लगी होती है दांव पर
किसी धर्मराज की निर्लज्ज द्यूत लिप्सा वश
हर युग में कोई ढीठ दुर्योधन
पीट रहा होता है अपनी नग्न जंघायें विकृत आनंद से
हर युग में दुःशासन अपने लंपट उन्माद में
दांव पर लगा देता है अपनी बुद्धि और प्राण
और सदैव की भांति तमाम बुद्धिजीवी
बैठे अपने लज्जा के आसनों पर
कर रहे होते हैं धर्म और कर्तव्य की
सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म व्याख्या
जो गायी जाती रहेगी युगों युगों तक
और गायी जाती रहेंगी युगों युगों तक उनकी नपुंसक यशगाथाएं।
लज्जा के इन्ही क्षणों में
उपजते रहेंगे युद्ध और
रक्त की न बुझ सकने वाली प्यास
सारे महारथी लग रहे होंगे बड़बोले विदूषक और
उनकी मृतप्रायः आत्माएं लीन होंगी तत्वचिंतन में
श्मसान के सन्नाटों के बीच
तीरों की शय्या पर पड़ा महायोद्धा
निश्चय ही खोजता होगा अपनी दुर्दशा के कारण
पर तब श्लथ हाथों से छूट चुकी होगी अश्व वल्गाएं,
कट चुकी होगी प्रत्यंचा
भोथरे हो चुके होंगे तीर
और बस शेष होगा भटकना
अपनी लज्जित आत्मा के बियाबान में।
प्रतिशोध के कुंड से जन्मी
याज्ञसेनी के केश
अब भी खुले हैं
स्त्रियों के तमाम अपराधियों के
रक्त की प्रतीक्षा में।

 

व्यवस्था के विरुद्ध

 

उस नवोन्मेषी समय में
खोज लिए गए थे नये तरीक़े
विरोध की आवाजों को दबाने के
और आश्चर्य यह था कि
इन तरीक़ों पर लहालोट थे
वे तमाम लोग
जो कभी भी हो सकते थे
इन तरीक़ों के शिकार।
वे बिना अपराध बताये क़ैद किए जा सकते थे,
बिना मुक़दमों के काट सकते थे सजा,
बिना कारण के कहीं भी मारे जा सकते थे
धर्म और संस्कृति के नाम पर,
उनके घरों पर चलाये जा सकते थे बुलडोज़र
बिना किसी क़ानून और सुनवाई के।
उन्हें देश की चिंता करने के एवज में
देशद्रोही करार दिया जा सकता था
देश अब सत्ता का पर्यायवाची जो हो चुका था।
न्यायालयों को न्याय से अधिक
क़ानूनों की चिंता थी,
और जनप्रतिनिधियों को
जनहित के मुक़ाबले अगले चुनाव की,
अफसरों को काम से अधिक नौकरी प्रिय थी
और सरकारों को
जन से अधिक तंत्र को बचाए रखना।
फर्जी एनकाउंटर
न्याय के क्षेत्र का नया आविष्कार था।
वे सब खुश थे इस उपलब्धि पर
क्योंकि अभी नहीं आया था
उनका नंबर।

 

अरण्य गान

 

कितने जतन से आया यहां तक
छोड़ कर सब कुछ पीछे
सारे सुख, स्नेह, सम्बंध
शोक और पीड़ा
इच्छायें और अतृप्ति सब कुछ
चाहता था तिरोहित हो जाए
मन का सारा बोझ
रिक्त हो जाए हृदय
पर सब कुछ त्यागने से
कब होता है भला रिक्त यह पात्र
त्याग देने का होता है अपना गर्व, अपना बोझ
और बस भटकना शेष रह जाता है
इस अवांछित भार से मुक्ति हेतु
इच्छाओं के अरण्य में
भला कहां मिलेगी मुक्ति
सब से मुक्त होने की कामना भी तो
एक इच्छा है
मुक्ति सम्भवतः बंधन है सबसे मज़बूत।

वन के भीतर से होकर
गुजरती है पहाड़ी नदी
निर्मित करती झरने और प्रपात
झील सा शांत है वन का हृदय
इसके अंतस में बसती है अग्नि
स्वयं को ही दग्ध करती
हिंस्र पशुओं से भरा है जंगल
अपनी ही आत्मा के विचलन से
बचाना होगा स्वयं को
आखेट बन जाने से
यही परीक्षा है और भविष्य भी।

वन का हृदय उतना ही हरा है
जितनी मेरी कविता की धरती
और उतना ही उजाड़, उलझा
जितना मेरा मन
वन कहां देगा मुझे शरण
वहां कब मिलेगी शांति
वन तो उतना ही फैला है बाहर की ओर
जितना है वह मेरे भीतर
ज्ञान और शांति का मिलना
भीतर के वन में ही सम्भव है
डरता हूं वहां जाने से
बाहर का नहीं
भीतर का अंधेरा डराता है सबसे अधिक।

जोगी
तुम्हारी यात्रा का पथ
गुज़रता है मन के इसी अरण्य से
छोड़ दो वन के किनारे पर
सारे बोझ, सारा गर्व, सारी निराशा और
सारा ज्ञान
शांति की कोई शर्त नहीं
बस प्रेम का पाथेय ही पर्याप्त है
इस यात्रा के लिए
प्रेम ही शांति देगा और प्रेम ही मुक्ति भी
सुना है लिख गया है कोई फ़क़ीर
इसी रस्ते पर
कि कठिन है बहुत राह प्रेम की
चलने से पूर्व
उतार कर धर देना होता है सिर धरती पर

एक धुन बांसुरी की बज रही है
भीतर के वन में
कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में।

 

ईश्वर के लिए

 

ईश्वर को
अब रिटायर हो जाना चाहिये
इस दुनिया का कार्य व्यापार वैसे भी
हो चला है स्वचालित
और नहीं तो कम से कम
चले जाना चाहिए उसे लंबी छुट्टी पर
ताकि कर सके कुछ आराम
ताकि कुछ नए, कुछ नवोन्मेषी विचार
उपजें उसके लाखों? साल पुराने मस्तिष्क में।
ताकि कुछ दिनों तक बंद रहे
हमारे नए नए दुखों का सृजन।
आखिर कब तक वह
काम चलाता रहेगा
स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख के
घिस चुके पुराने विचारों से
किसी उदास सांझ
बैठ कर किसी बौराये आम के नीचे
उसे भी फुरसत निकालनी चाहिए
लिखने को एक प्रेम पत्र
बंधनों से मुक्ति की एक कविता और
जुगनुओं को मुट्ठी में लेकर हौले से
उसे भी महसूस करनी चाहिए
रोशनी की कोमलता,
फिर शायद वह भी मुक्ति पा जाए
उन दीवारों की कैद से
जो खड़ी हैं उसकी स्वघोषित प्रजा के मस्तिष्क के अंधेरों में,
फिर शायद कुछ बेहतर हो जाये
लाखों साल पुरानी यह दुनिया।

 

उस शहर में

 

उस शहर में
जहां अब नहीं रहता मैं
वहां अब भी ओस से भीगी होतीं हैं सुबहें
और पतंगों से भरा होता है सांझ का आकाश
हरे भरे पार्क में पसरी होती हैं
बच्चों की किलकारियां और
बुजुर्गों के सायास हंसने की आवाजें
दूर गुल मुहर के पेड़ों के नीचे बेंच पर
युवा जोड़ों की सरगोशियां,
अब भी उस शहर में सांझ को लहराते हैं
पीले लाल दुपट्टे छतों पर
और खिड़कियों पर टंकी होती है
बेलौस अंगड़ाइयां
पर अब नहीं रहता मैं उस शहर में।

गुजरती हैं रेल गाड़ियां अब भी
उस शहर से हो कर
और हर बार
नदी, पुल, पेड़ों, पहाड़ों और जंगलों के बाद
कुछ और पुरानी पड़ गयी इमारतों से
गुजरते हुए
छूट जाता है मेरा एक अंश
फिर उसी शहर में
जहां अब नहीं रहता मैं।

हमारे वहां न रहने के बाद भी
अभी तक वह शहर रहता है मुझ में
और झांकता रहता है
स्मृतियों की मुंडेरों से
कुछ कम रोशनी वाली गलियां,
कुछ अनाम जगहें
खिड़कियां, दरवाज़े और
कुछ चेहरे जिनका नाम नहीं पूछ पाए
अब भी शायद होंगे वही
शहर के संग
शहर रहता है जीवन के संग
शहर में न रहते हुए भी,
और हम आ नहीं पाते इस शहर से
शहर से आ जाने के बाद भी।

अब मैं चला आया हूं उस शहर से
पर छोड़ नहीं आया हूं,
अब नहीं रहता मैं उस शहर में।

 

श्रीविलास सिंह

 

मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश में जन्में कवि और अनुवादक श्रीविलास सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर तक की शिक्षा प्राप्त की तत्पश्चात भारतीय राजस्व सेवा में सेवाएं देते हुए अपर आयुक्त आयकर के पद से सेवानिवृत्त हुए। आपकी अनेक वर्षों से कवितायें, कहानियां और देशी-विदेशी साहित्य के अनुवाद विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए है। श्रीविलास सिंह जी के कविता संग्रह “कविता के बहाने” वर्ष 2019 में और “रोशनी के मुहाने तक” वर्ष 2020 में तथा कहानी संग्रह ‘सन्नाटे का शोर’ 2021 में प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा आप द्वारा अनूदित कहानियों का संग्रह “आवाज़ों के आरपार” 2021 में, नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवियों की कविताओं का अनुवाद “अंधेरों की खामोशी के बीच” 2022 में, अफ़ग़ानिस्तान की कहानियों का संग्रह ‘निस्तब्ध विलाप’, विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह “चेहरा दर चेहरा” 2023 में प्रकाशित हुए हैं और
आप साहित्य, संस्कृति और विचार की पत्रिका “परिंदे” का सम्पादन कर रहे हैं।

1 Comment

  • P k Jaiswal

    काश् आज के जननायक और नौकरशाह इस कविता को पढ़ने का प्रयास करते,आत्म अवलोकन करते

Post a Comment