समकालीन कविता

समकालीन कविता में हम अनेक भाषाओं की कविताओं को अनुवाद के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं. इस अंक में हमने त्रिपुरा की कोकबोरोक भाषा के साथ, बंगला, हिन्दी और बुल्गेरियन भाषा को प्रस्तुत किया है।

 

 

 

 

 

बिकास रॉय देबबर्मा

(कोकबोरोक कविताएं)

अनुवाद : जुमनु कामदाक
संपादन: सिमन्तिनी रमेश, कृत्या

 

प्यास

पूरा दिन बरसती रही
और पूरी रात
जैसे कोई घड़ा
रख दिया गया हो उल्टा
लेकिन प्यास थी कि बुझी ही नहीं
क्योंकि मुझे चाह थी जिसकी
ये वो बारिश थी ही नहीं

 

तुम और मैं

मैंने लाखों सालों तक
संभाला तुम्हें
और कई शताब्दियों तक
संभालता रहूंगा
क्योंकि ये तुम्हारा हक़ है
लहू की हर बूंद
सांसों की हर एक गिनती
गाती चली जायेगी
हां मैं तुमसे प्रेम करता हूं
उस दिन से
एक और महाविस्फोट तक

(महाविस्फोट-बिग बैंग)

 

प्रतिशोध

प्रतिशोध की भावना पालने वाले
ज़रूरी नहीं कि कहने के लिए कुछ न हो,
मौन का अर्थ शांति नहीं होता
सौम्य ज्वालामुखी भी जानता है
कौन सा समय अनुकूल है
बात करने को

उमस भरी गर्मी की दोपहर का गीत

मैंने कभी नहीं देखा
किसी शाही दावत का सपना
जैसा सुना था परी कथाओं में
न ही किसी महल का
जो बना हो सुदूर पश्चिम के
अनमोल पत्थरों का
न सपना था
किसी भव्य झाड़ फ़ानूस लटकी छत का
और जहां खड़े हों हाथियों के स्तम्भ
विशाल फ़ाटक के सामने

मैंने देखा था सपना
मोटे चावल के नरम भोजन का
जंगली शाक और बांस के नमकीन शोरबे में डूबा
सूखी मछलियां मिला हुआ
तीखा और लज़ीज़
और सिर पर एक छप्पर
पैरों के नीचे बांस से बना फ़र्श
किसी दोपहर की तेज़ गर्मी में सभी अजनबियों के लिए खुला हुआ दरवाज़ा
या उदासी भरी कोई लोरी
पहाड़ी घाटियों के लंबे रस्ते में बहती हुई
शराबी हवा के जैसी

 

कोकबोरोक भाषा के कवि बिकास रॉय देबबर्मा का व्यक्तित्व बहुआयामी है, वह अनुवादक, नाटककार, अभिनेता तथा संगीतकार भी हैं। बिकास रॉय देबबर्मा ने कोकबोरोक साहित्यिक पत्रिकाएँ जैसे ‘गरिया’, ‘चेथुआंग’ आदि का संपादन भी किया है। कवि बिकासरॉय की ‘बोलोंग मुफुंजक यकबाई’, ‘चोंगपेरेंग यखराई बोयोई’ एवं ‘तूतनखामुन नी पिरामिड’ शीर्षक से तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। श्री बिकास रॉय देबबर्मा को त्रिपुरा सरकार द्वारा एस डी बर्मन मेमोरियल अवार्ड, संस्कृति के विकास में योगदान के लिए महाराजा बीर बिक्रम मेमोरियल अवार्ड और साहित्य एवं संगीत में समग्र योगदान के लिए महाराजा बीर बिक्रम मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

 

जगदीश पंकज के तीन नव गीत

1. चलो, बादलों से पूछें

चलो, बादलों से पूछें
पूछें नदियों, तालाबों से
सिमट रहा क्यों
रिमझिम बरसता सावन!

बादल बोला, पूछो
पेडों, या
कटते हुए पहाड़ों से
खनन माफियाओं के
उन, फलते
निर्बाध अखाड़ों से

चलो पूछ लें, जल स्रोतों
उत्सर्जित हुई हवाओं से
क्यों मरुथल में
बदल रहे नन्दन कानन!

नदिया बोली, पूछो
नालों या
बढते हुए प्रदूषण से
उद्योगों से निष्कासित जो
उस जहर
फेंकते कण- कण से

चलो, पूछ लें थोड़ा सा
घर के अपने अनुकूलन से
झुलस रहा है अपनी ही
करनी से क्यों अपना आंगन!

तालाबों ने बोला
पूछो उन
कचरे के अंबारों से
लाकर जिनको
कर दिया जमा
बस्तियों और बाजारों से

चलो पूछ लें नहरों से
बदहाल हुआ कैसे मौसम
वे पूछ रहीं हैं हमसे
क्यों छोड़ी है अपनी धडकन!

 

2.एक ग्लोबल बोझ

एक ग्लोबल बोझ
कंधे पर उठाये
आदमी अपने समय को ढो रहा है!

सूचनाओं के
समुन्दर से उछलकर
तैरता बाजार
घर तक आ रहा है
चमकते चित्रों
सजे विज्ञापनों से
व्यक्ति तक उत्पाद को
पहुंचा रहा है

आदमी ग्राहक नहीं
उपभोक्ता बन
मांग की कृत्रिम फसल को बो रहा है!

जाल फैलाकर
खड़े हैं कुछ शिकारी
लाभ-गणना के
अनोखे उपकरण ले
विश्व मानव
कश्मकश में खोजता है
विवशता है
कहां पर जाकर शरण ले

इस उदारीकरण की
अनुदारता में
आदमी पहचान अपनी खो रहा है!

अब नयी शब्दावली
विकसित हुई है
आधुनिकता के
नये जिस व्याकरण की
वह कहां ले जायेगी
सब को उडाकर
धूल खाकर
वित्त के पर्यावरण की

अल्पविकसित सोच में
जाने कहां पर
स्वदेशी का जागरण गुम हो रहा है!

 

3. शोधरत हैं वेधशालाएं

शोधरत हैं
वेधशालाएं निरंतर
फिर किसी नक्षत्र का संज्ञान लेकर ।

फिर मिथक में
खोजने को सूत्र अभिनव
कुछ नये अनुवाद लाये जा रहे हैं
है हमारे पास
पहले ही सभी कुछ
पृष्ठ ज्योतिष के उठाये जा रहे हैं
फलादेशों के
असंगत आकलन को
उठ रहे हैं फिर सफल अभियान लेकर।

करेगा क्या
सौरमंडल तय हमारे
सोच की
अभिव्यक्ति के सारे नियामक
प्रश्न उत्तरहीन
रहकर बांचता है
किस अनागत के लिए
कल्पित कथानक
शोध उन
उपलब्धियां पर ही टिका है
जो खड़ी हैं व्यर्थ के अनुमान लेकर।

जब खगोली
पिंड मिलकर लिख रहे हों
विश्व के भूगोल का
हर सिलसिला है
तोड़ते ही जा रहे हैं
हम निरन्तर
कुदरती जो संतुलन
हमको मिला है
लोग प्रायोजित
कथाएं कह रहे हैं
धर्म मिश्रित सोच का विज्ञान लेकर।

 

समकालीन सृजनरत वरिष्ठ नवगीतकारों में जगदीश पंकज ऐसा नाम है जो अपने गीतों के कथ्य और शिल्प के द्वारा विशिष्ट पहचान बनाये हुए हैं। उनके सात नवगीत संग्रह ‘सुनो मुझे भी’, ‘निषिद्धों की गली का नागरिक’, ‘समय है सम्भावना का, ‘आग में डूबा कथानक’, ‘मूक संवाद के स्वर’ एवं ‘अवशेषों की विस्मृत गाथा’, ‘प्यास की पगडंडियों पर’ तथा एक कविता संग्रह ‘द्रोह असहमत इच्छाओं का’ प्रकाशित हो चुके हैं। कवि जगदीश पंकज ने साहित्यिक पत्रिका ‘संवदिया’ के नवगीत विशेषांक का सम्पादन भी किया है। नवगीत लेखन के लिए आपको विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है जिनमें मुरादाबाद, भोपाल एवं लखनऊ की साहित्यिक संस्थाएं प्रमुख हैं।

 

 

सुमाना रॉय

अनुवादक: रणजीत

 

1. टीबी

यह बीमारी बदल देती है मेरी जिंदगी को एक असत्य में –
उपवास के लम्बे गलियारे में
खाना और इस के इलाज करने के नुस्ख़े
मुझ पे इल्ज़ाम लगाते हैं लापरवाही के एक जीवन की।
कमजोरी के इनाम थोड़े हैं:
बिलकुल न के बराबर सिवाय एक आशिक़ की सैलानी – परवाह
हर सुबह मैं मापी जाती हूं ख़ुद के ख़िलाफ़ ।
मैं देखती हूं मेरी परछाईयों को सिकुड़ते हुए एक कोष्ठक में।
हर चीज़ छोटी होती जाती है –मेरे तकिये पे पड़ा गड्ढा,
ख़तों पे मेरे दस्तख़त और जिंदगी।
सिर्फ मेरे ख़्वाब तने हैं रबर की तरह
वो और यह दिन।
रात को मैं कीट्स होती हूं,
कभी-कभी काफ्का, यहां तक कि लॉरेंस
गिरते हुए मौत की गहरी खाई में।

दिन को मैं अस्पताल – कवि होती हूं।
लेकिन कभी मेरी हड्डियों में ताकत थी
जिसने तुम्हारी कविताओं का
वज़न ढोया था,
तुम भूल जाते हो।

 

2. क्या तुम तन्हा से हो आज रात?

दरवाज़ा खुलता है ख़ुद-ब-ख़ुद
एक गुफा में: ये थामें है
एक आशिक़ की रात को।
एक पिंजरा-बंद मानसून।
यह कमरा अपने ख़ुद का
क़ैदी है।
इसने ख़ामोशी को हथकड़ी लगा रखी है
बिस्तर से।

यह दिन पूरा होने का
इंतज़ार करता है।
कैसे हो सकता है
यह तुम्हारे बिना?
तुम इस का एक तकिया हो
बिस्तर के सिरे पर,
दिन की पीठ का सहारा।

जुराबें गेंदनुमा हो जाती है
जूतों मे, कमीज़ लटकती
पुरानी कुर्सी के सख़्त कंधों पे
ध्यान खींचने के लिए।
रुमाल बुड्ढा हो जाता है
मेरी जेब में।
कमी खलती है इसको
तुम्हारी नुक्ताचीनी और
दाग़ों पे तुम्हारे प्रहार की।
हर होटल-कमरे की रात
मैं चाहती हूं तुम्हारे साथ भाग जाना
एक रातों रहित जिंदगी की ओर

जहां दिन तुम में
ख़तम होते हैं
ना कि बिजली के बटनों के अंधेरे मे
जहां मैं सीली हुई तुम्हारे सपनो के चमड़े से
जैसे पवित्र ग्रन्थ होते हैं कानों से

 

3. बढ़िया घरबारी

रात को, जब तुम दिन को किताब की तरह बंद कर देते हो,
तुम टटोलते हो बुकमार्क
यही शान्ति जो घर की दर्दनिवारक है,
जिसके लिए तुम बैंक का ब्याज भरते हो।
पड़ोसी बत्तियां बंद कर देता है-
अंधेरा एक आवाज़ बन जाता है।
चांदनी सुस्ताती है छत पे कहीं
तब्दील करते तुम्हारे घर को इसकी सराय में

आज के दिन जैसे कोई दिन
तुम चाहते हो तुम्हारे घर को छुट्टियों पे भेजना,
जानते हुए कि यह लौटकर तेरे पास आ जायेगा
जैसे एक छोटा बच्चा आ जाता है जब उसे आसमान में उछाला गया हो.
कभी यह घर तुम्हारा बच्चा था
अब तुम इसके ग़ुलाम हो
यह एक पेंशन भोगी की तरह बर्ताव करता है
(कई जाले, मकान की पपड़िया
हमेशा सफ़ाई मांगते ।
सपने मकान की खोपड़ी बनाते हैं, तुम जानते हो।
तुम अपनी सारी जिंदगी गुज़ार देते हो मकान की पूंछ ढूंढने में)

कभी ऊंट सुइयों के सुराख़ों से गुज़र सकते थे
मैं हंसती थी पूर्वजों की बेवक़ूफ़ी पे
अब जैसे कि प्रतिशोध में
तीन मंज़िला मकान गुज़रता है मेरी आंखों में से

मैं कुछ और देखती हूं- नामुमक़िन चीज़ें :
मुमक़िन है इंसान को नफ़रत करना, यहां तक की उन्हें भी जिन्हें हम प्यार करते हैं,
लेकिन तुम्हारा मकान??
फिर प्यार आ जाता है मकान की सफ़ाई के हर दौर के बाद
जैसे लार आती है तुम्हारे मुंह में।

हर रात तुम ताला लगा देते हो दरवाज़े को
और चारदिवारी एक मंगनी की अंगूठी बन जाती है

 

सुमाना रॉय एक कवि,लेखक और शोधकर्ता है. इनकी प्रुमख किताबें How I Became a Tree (Aleph 2017, Yale University 2022), Missing (Aleph,2019), Out of Syllabus (Speaking Tiger 2019), My Mother’s Love and Other Stories (Bloomsbury2019) V.I.P -Very Important Plant
(Shearsman, UK, 2022) हैं. अधिक जानकारी के लिए इन की वेबसाइट देख सकते हैं -sumanaroy.in

 

अनुवादक: रणजीत हिंदी और अंग्रेजी में कविताएं लिखते हैं. कविता अनुवाद के एक प्रोजेक्ट पे काम कर रहे हैं। इंस्टाग्राम पे एक कविता पेज क्यूरेट करते हैं – https://www.instagram.com/indianpoetry00

 

प्रभात गौरव (युवा स्वर)

*

सूरज सुबह सुर्ख़ लाल दिखता है मुझे
सफेद स्तब्ध कर देने वाला नहीं ।
वक़्त सबसे कुशल हत्यारा है।
धूल मर चुकी है, पहाड़ मर चुके हैं।
अमीर खोखलेपन पर जीवित है
गरीब गरीबी खाकर।
इंसान जीवित है इंसान को खाकर।
मांस, लहू, हड्डियां, वक्ष
यौवन, कर्कशता, बुत, ईश्वर ये सब।
इंसान जीवित है, धुएं में धुएं से
पागल बूढ़ा भोर के पहले के चुप अंधेरे में लालटेन लिए चिल्ला रहा है।
“हत्या हुई है,
जानबूझकर कर की गई है।
इंसान ने की है, इंसान की”
भोर अमावस्या में विलीन होने की ओर निहित है
इंसान ने इंसान की लाश गले में लटका रखी है।
उसकी मज्जाएं और अस्थियां ग्लानि से विरक्त हैं,
सांत्वना, पश्चाताप से विरक्त हैं।

**

तुमने कभी क्या दोपहर में
झांकते हुए अपने गलियारे से ,
झूलते हुए बरसों पुरानी,
सागवान की मरी हुई लकड़ी से
बनी बांहदार कुर्सी में,
खुद से ये पूछा है,
तुम भूख से बेहाल अपनी बूढ़ी माँ को
किस कीमत पर बेचोगे ?

किसान कर्कश बालू खा रहा है,
उसमे लोहा है।
औरतें अपने बच्चों के धड़ों के खून
से चिमनियों में, ईंट को लाल कर रहीं हैं।
सुर्ख लाल।
तुम एक वैज्ञानिक, एकअभियंता ,
एक साहित्यकार, एक दार्शनिक
ट्वीड कोट और टाई में,
इन चिमनियों से दूर जा रहे हो
इन भीड़ से भरी हुई,
टुकड़ों में बंटी हुई अनियोजित,
काली गलियों से दूर।

सर्द से बेहाल एक छोटी सी लड़की
फटे कपड़ों में, उन टोकरियों के
पैसे लेने से इंकार कर रही है, जो
उसने नहीं बेचे।
तुमने हत्या की है स्वाभिमान की, अस्तित्व की
सरकार कुसूरवार है,
और कसूर है
सुबह से शाम तक, सब्जी मंडी में,
आलू के बोरों के बीच में
बैठकर धूल फांकने वाले एक गणितज्ञ का,
जो की आलसी है।

उत्तर भारत के ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले प्रभात गौरव एक युवा द्विभाषी कवि एवं नाटककार हैं । प्रभात पेशे से एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं।

अंटोन बाएव – बुल्गारिया (Anton Baev-Bulgaria)
रति सक्सेना द्वारा अनूदित -(Translated by Rati Saxena)

 

बुल्गेरियाई मौसम

सर्दी इस बरस देर से आई
वसंत ने रोक नहीं लगाई
बात मत करो गर्मी की

शरद ऋतु मंडरा रही है
मानो कोई हो घातक रूप से बीमार
बची नहीं जिसमें ताकत जीने की

 

जब बुद्ध हो गये सिद्धार्थ

उनके लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है
कौन प्रचार करना चाहता है
हरमन हेस्से

तुम क्या कर सकते हो
जब सब कुछ खिलाफ़ हो?
लेकिन कर सकते हो सब कुछ
हर किसी को अपने साथ लेकर

(यह अपवर्तन बिंदु है)

 

बगीचे में बोधि वृक्ष के साथ
लम्बे वक्त तक चिन्तन कर सकते हो
अथवा किसी मोटी टहनी से
खुद को छाया सा लटका सकते हो

(यह व्यक्तिगत पसंद है)

 

हालांकि यह अंजीर का पेड़
सबसे ज्यादा मोहक है
छोड़ दो इसे, इससे भोजन नहीं बन सकता
यह बस प्यास बढ़ाता है

(यह प्रयास है)

 

जो ब्राह्मण यह सीख देते हैं
कि संसार तुम्हारी आत्मा में है
बिल्कुल ग़लत है, यह तुम्हारी आंखो में है
सवाल यह है कि आत्मा कहां है?

(यह अन्य ज्ञान है)

 

समस्त शिक्षाओं को त्याग
क्यों घिरते हो शिष्यों से ?
जाने दो उन्हें अपनी राह
सभी स्वतन्त्र हैं एक दूसरे को त्यागने में

(यही सर्वोच्च स्वतंत्रता है)

क्या महत्वपूर्ण है- लक्ष्य,
अथवा मार्ग?
ज्ञानोदय होता है
लम्बे अंधकार और एकांत के उपरान्त

(यही बुद्ध है)
जॉर्डन कोस्टुरकोव द्वारा बुल्गेरियाई से अंग्रेजी में अनूदित

 

 

एंटोन बाएव (1963) का जन्म बुल्गारिया के शहर प्लोवदीव में हुआ है। आप इंगलिश लेंग्वेज स्कूल के स्नातक हैं तथा आपने प्लोवदीव विश्वविद्यालय से साहित्य में स्नातक डिग्री भी प्राप्त की है। आपने छः पुस्तकें कविता की, एक उपन्यास लिखे हैं। आपकी एक पुस्तक दार्शनिक सूक्तियों की है।

2 Comments

  • Shashikant Mishra

    Loved the piece by prabhat gaurav! Excellent poetry by all.. Keep going.

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