समकालीन कविता

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

रवि कुमार यादव

 

वसंत और तुम्हारा स्पर्श

 

तुम न जानें कितने पतझड़ के बाद आई।
वसंत ने न जाने कितनी बार छुआ
पहाड़ों ने भरा बाहों में कितनी बार
पुष्पों ने चूमा कई कई बार।
नदियों ने सुनाई संगीत।
पर ये सभी तुम्हारे खालीपन को नहीं भर पाए।

तुम्हारा स्पर्श मेरे शरीर पर टेसू के समान थें
लाल रक्तिम टेसू।
जो खिल उठा मेरे इस जर्जर ठूंठ शरीर पर
तुम्हारे छुए हर स्पर्श पर।
यही फ़र्क था वसंत के छूने और तुम्हारे स्पर्श में।

पुष्पों ने कितनी बार चूमा
और कुछ हद तक यदि बचा रहा जीवन, बची रही प्रकृति
तो इनसे, इनमें तुम्हें खोजते।

जब जब मैंने सोचा कि शाखों पर फूल खिले
अब तुम आओगी
तब तब देखा कि एक वसन्त आया और चला गया।

तुम्हारे द्वारा किए गए आलिंगन को
ये बाजुएं कभी नहीं भर पाईं
भले ही पहाड़ों ने भर लिया मुझे अंकवार में।
तुम्हारे आलिंगन में मैं ख़ुद को पाता था सिमटा
जहां मुझे मालूम होती थी मनुष्यता की हद।

और जैसे धीरे से झर गया कहीं कोई हरसिंगार
जहां ख़बर भी नहीं हुई रात को
तुम आ गई मेरी स्मृतियों में।

 

सड़क की सफ़ेद पट्टियों की तरह हम

 

हम दोनों बारिश में
भीगते चल रहे
सड़क की दो सफ़ेद पट्टियों की तरह थें.
तुम अकसर अपनी नीली छतरी खोल लिया करती थी
जब बारिश होती,
बारिश शायद तुम्हें नापसंद रही होगी.
पर याद होगा तुम्हें, जब भीगे थें हम
शायद वो जून की तपती गर्मी का कोई
बरसात था जिसमें गुलमोहर के पुष्प झर चुके थें
और बहुत कुछ नीले पीले पुष्प वृक्षों पर खिले वर्षा से स्पर्शित हो,
हर्षित हो रहें थें.
हवाओं की इक लकीर सी तुम खुली हुई
प्रकाश के साथ आ रही थी.
इतना खुला, तुम्हें मैंने पहली बार देखा था.

सड़क के दोनों किनारे समाज की सीधी सपाट पट्टिओं के मध्य
हम और तुम डैश -डैश करके जुड़े रहे.

सीधी सपाट इन सफेद पट्टिओं की तरह मेरा मन
बीच की पट्टिओं सा कट कट कर था,
जो स्पेस देते थें मन और हृदय के भावनाओं को.
समाज और हृदय के बातों को.
तुम शायद अलग थी, मुझे फूलों से अधिक प्रेम था
और तुम्हें वृक्षों से,
शायद इसलिए हम समान थें.

धरती पे झरे हुए पुष्प वृक्षों के अश्रु हैं.
इन पुष्पों को न तुम कभी कुचलना और न ही इन्हें बुहारना
शायद ये खुद ब खुद उड़ जाएंगे हवाओं से.
तुम जब ढूँढ़ोगी मुझे मैं तुम्हें इन्हीं डालियों से
विदा ले चले पुष्पों में
नजर आऊंगा.

अगर महसूस करना होगा मुझे… तो,
बैठ जाना किसी पुष्प से लदे,
वृक्ष के नीचे और खोल देना अपने केशों को
वहीं कहीं वृक्षों से झर रहे पुष्पों से आकर
सज जाऊंगा मैं तुम्हारे बालों में.

जब भी खोजना
बारिश,
फूल,
हवा,
में खोजना
शायद सबमें घुला मैं मिल ही जाऊँ
और केवल सड़क के सीधी सफ़ेद पट्टी पर ही
पैर रख कर चलना जैसे बचपन में चला करते थें
हम.

 

तुम्हारे बाद

 

तुम्हारे जाने के बाद
यहां कुछ भी नहीं बदला
अभी भी खूटियों पे जस के तस
टंगे रहते हैं कपड़े
अब भी आलमारी भर रही किताबों से।
अब भी एक जोड़ी जूते धूल से लिपटे
तख्त के नीचे रहते हैं।
टेबल का कवर अब भी लथरा रहा होता है,
एक कोने से।
तुम्हारे जाने पे कुछ भी तो नहीं बदला
बदला बस इतना कि
वो चौकठ लांघ अबतक कोई नहीं आया
न आई कोई शाम पहले जैसी।
आलमारी किताबों से भरी हुई भी
अभी खाली लगती है कुछ कोने से।
आधा भरा,
पूरा खाली लगता हूं मैं।
मेरे कानों में अब भी गुलमोहर की वो कुछ
पंखुड़ियां चिपकी रहती हैं
और आस्तीन पे हुई रहती है
बर्फबारी।
सिरहाने रखी एलिया और न जाने कौन सी
चार किताबें अब भी रखीं रहती है।
अब भी शब्दों के मध्य रिक्तता ही खोजता हूं मैं
और लिखते लिखते छोड़ देता हूं,
कुछ अधूरा।
आखिर,
तुम्हारे जाने के बाद कुछ भी तो नहीं बदला।

 

 

 

रवि कुमार यादव, काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में परास्नातक (के) छात्र हैं। साहित्य, कला, संगीत और फोटोग्राफी में अभिरुचि। संपर्क सूत्र है 6392984156

 

 

वंदना मिश्रा

 

चित्र :एक

 

लौट रही है ऑफिस से  स्त्री
मन में दिन भर की कड़वाहट भरे
तानें ,प्रतिस्पर्धा और सभ्य लोगों की
असभ्यता सहते
जवाब देती और मुंहजोर कहाती

थोड़ा सा ऑफिस साथ आता है
जिसे झटकर छुड़ा नहीं पाती
आप कहते हैं घर में
ऑफिस की समस्या मत सुनाओ

 

 चित्र : दो

 

जा रही है ऑफिस स्त्री
टिफिन, चाय ,बच्चों का होमवर्क
कराते हुए
आधी नींद बिस्तर पर छोड़ कर
आज फिर अपना लंच बॉक्स
मेज़ पर भूल आई
आप कहते हैं
ऑफिस में
घर की समस्या मत लाओ

 

लोरी

 

तुम जिद करती हो
माँ के गले में बांहें डाल
लोरी सुनाने की
आँसुओं से भींग
सारी लोरी बेसुरी
हो गई है माँ की ,

जैसे सपनें तुम्हारी आंखों के ।

देखा है जिन आंखों ने
सपनों के राजकुमार को
ख़तरनाक जानवर में बदलते
वो कैसे सुनाएं तुम्हें
कथाएँ राजकुमार की  ?

 

सपनों और यथार्थ के बीच
झूलती  माँ
कैसे सपनों के पर लगाकर
उड़ने को  कहे थे तुम्हें !

 

तुम्हारा यथार्थ सपनों सा कोमल हो
ऐसी कोई लोरी रचे कैसे माँ !

 

हवाओं से कैसे मनुहार करे
तुम्हें चुपके से सुला जाने की 

 

बम तमंचों के धमाकों से
बची रहे तुम्हारी साँसे
इतनी प्रार्थना में ही
उम्र बीत जाती है माँ की ।

तुम्हारे सवालों से भर जाए आँखें
इससे पहले
तुम सो नहीं सकती
क्या बच्ची ?
इससे पहले कि
तुम्हें अपने अस्तित्व पर
कोफ़्त हो

तुम
सो नहीं सकती
क्या मेरी बच्ची !

 

कविता

 

तुम्हारी  बातों से
मन छोटा हो जाता है
दर्द के शब्द
तुम कविता  की तरह पढ़ते हो।

 

 मनराखन बुआ

 

मनराखन बुआ ,ऐसा ही नाम सुना था
उनका बचपन से
पर उनके सामने बोलने पर डांट पड़ी
तब समझ आया कि ये उनका असली नाम
नहीं था
असली  नाम क्या है बुआ
पूछने पर शरमाई थी वो
‘का करबू बच्ची जाए दा’
अम्मा ,चाची की ‘जिज्जी’
और भाइयों की’ बहिन’
खोज खोज खाज कर पता लगा
सुरसत्ती  (सरस्वती )नाम है

फूफा कभी गए थे कमाने  तब के बम्बई
और कमाते ही रहे
बुआ मायके की ही रह गई

ससुर के विदाई के लिए आने पर
घर की चौखट पकड़
बोली “चार भाई की जूठी थाली
धो कर भी पी लूँगी तो पेट भर जाएगा
बाबा मत जाने दो
किसके लिए जाऊ”
ससुर अच्छे दिल के थे
बोले” ठीक है बहू पर
काज परोजन आना है तुम्हें”

 

तब से सास से लेकर
चार देवरानी ,तीन जिठानी ,दो ननद
सबकी जचगी में बुलाई गई बुआ
शादियों में  बिनन -पछोरन बिना उनके कौन करता
हाँ नई बहू और दामाद से पुरानी साड़ी में
कैसे मिलती सो दूर ही रखा गया
फिर काम से फुरसत कहाँ थी
अम्मा -चाची भी न
जाने क्यों नाराज़ हो जाती हैं
ये भी कोई बात है?

 

हाड़ तोड़ काम किया तो पेट भर खाया
पहु्ंचा दी गई फिर मायके
‘हिस्सा’ जैसा शब्द सुना ही नहीं था उन्होंने

 

उनके बच्चों की हर जरूरत पर
पहुँची
मनरखने
और नाम ही ‘मनराखन ‘पड़ गया

 

मज़ाक का कोई असर नहीं होता था उन पर
एक दिन बोली “विधना जिनगी ही मजाक बना दिहेन त का मजाक पर हंसी  का रोइ बच्ची ! “

 

हर ज़रूरत पर मन रखने पहुँची बुआ का
‘मन रखने ‘भी कोई नहीं आया
अंत समय में ।

 

वंदना मिश्रा -कविता संग्रह – 1.कुछ सुनती ही नहीं लड़की,2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में, 3.खिड़की जितनी जगह
गद्य साहित्य – 1. सिद्ध नाथ साहित्य की abheevnjna शैली पर संत साहित्य का प्रभाव,2. महादेवी वर्मा का काव्य और बिम्ब शिल्प,3.समकालीन लेखन और आलोचना
हिंदवी , कविता कोश , लोकराग ,समकालीन जनमत ,स्त्री दर्पण , ,अनहद कोलकाता, सिताबदियारा एवं गूँज वेबपोर्टल पर कविताएँ प्रकाशित ।

 

बलराम गुमास्ता

 

जन्मना

 

यह रहा

मूर्ति वाला
मुख्य चौराहा
चौराहे के बीच में गड़ी मूर्ति
महान आदमी की है
चलो
नमस्ते करो

 

उसने
न में सिर हिलाया
मेरे बार-बार कहने पर
कि करो ना नमस्ते
वह रोने लगी

 

बोली,
पापा मुझे
डर लगता है
यह तो किसी
भूत की मूर्ति
है न!

 

यहाँ से कहीं
और
दूर ले चलो
चलो न पापा

 

मैं कुछ समझाता
इसके पहले
अपनी तोतली बोली में
वह
सुनाने लगती है
दादी से सुनी कहानी

 

पता है
ऐसे-ऐसे
एक राजा था
गन्दा
उसके राज्य में
सभी परेशान रहते
राजा के अत्याचार से
जनता भूखी मरती थी
दुखी जनता
क्या करती

 

तो एक दिन
सभी ने
राजा को घेर लिया
फिर पत्थर
मार-मार कर
राजा को
मार डाला

 

और
लाश को
शहर के मुख्य चौराहे
के बीच में
गड़वा दिया

मैं
इतिहास का
कोई प्रसंग देकर
बच्ची को
समझाना चाहता था

 

मगर
इतिहास में तो
सिर्फ जीतने वालों का
जिक्र था
जहाँ
जीतने वाले
ताकतवर और महान
बताए गए थे

 

और
हारने वाले
जाहिर है जो
जीतने वालों से
कमजोर रहे होंगे
अत्याचारी

 

गनीमत
इसी में थी कि
मैं विषय को
बदल दूँ

 

तो, मैंने
बच्ची को मूर्ति पर बैठी
चिड़िया दिखाई

 

देखो वो, वहाँ
मूर्ति पर
कितनी सुन्दर चिड़िया

 

मैंने
जो इशारा किया
वह समय था
और
वहाँ चिड़िया होने की बात
इच्छा वस्तु

 

दोनों का
एक साथ मिलना
प्राणों का
लक्षण था

 

पंखों का फड़फड़ाया जाना
डूबते पेड़ की चिड़िया का
उड़ान भरना था

 

जहाँ विवरण प्रज्ञा
चोंच में दबाये
नीली स्लेट पर
लगातार
वह लिख रही थी
जन्मना-सन्देश

 

साइबेरिया में
जिसे गा रहे थे
सारस

 

भरतपुर की
दलदली
झील में
केंचुए
जन रहे थे
थोड़ी और धरती

 

मेंढक
जोर-जोर से
दुहरा रहे थे
बूँदों की गिनती

 

स्वर्ग में भी
धान के खेतों से
चिड़िया उड़ाती
एक कोने से
दूसरे कोने तक
ताबड़तोड़ भागती
माँ
अचानक
ठिठकी

 

गुनगुनाते हुए,
‘सारस बधाई ले’
का गीत

 

दोपहर में
पीठ पर बँधा
कलेवा खोलती है

 

जिसमें
टुकुर-टुकुर देखता
बँधा
पाती है मुझे

 

पिलाती है
दूध
तो धरती
कुछ और हरी हो जाती है

 

दोपहर का खाना

माँ
आज भी
इसी तरह खाती है

 

फिर पानी पीने
उतर जाती है

 

पुरानी बावड़ी की
सीढ़ियाँ

जहाँ
छपक-छपककर
चढ़ाती है जल
दरवाजे पर डटे
तुंदियल
गणेश को

 

बुदबुदाती हुई
नातिन को सुनाई
कहानी

 

मानो भूख से
अब तक मर चुके
करोड़ों पुरखों को
देती है
देर तक
उनका
सूख गया पानी।
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सूचना

 

माँ गांव में मरीं
जिसकी सूचना
भोपाल में
मुझे
तीन दिन बाद मिली

 

इस तरह
मरने के बाद भी
मेरे लिए
तीन दिन और
जिन्दा रहीं
माँ

दोस्त-सम्बन्धी
और तमाम वह अपने
जिनकी सूचनाएं
वर्षों से नहीं

 

कहीं
इसी तरह से तो नहीं
बचे हुए हैं
जिंदा

 

अतीत में
घट चुके को
वर्तमान
बनाती सूचनाएँ
हमें बनाती हैं
अमानवीय

 

वह भी इतना कि
देखो तो भला
मैं
माँ की मौत पर नहीं
उसकी
सूचना पर रोया

 

एक दिन सूचना थी कि

ब्रह्मांड में खोज लिया गया है
पहले से
वहाँ उपस्थित
एक और नया तारा

 

जिस पर
करोड़ों वर्ष पहले
समाप्त हो चुका
हुआ है जीवन

 

इस तरह
हर-एक नई
सूचना के साथ
मैंने
अपना
एक अर्जित
सच खोया

 

अमानवीय होते जा रहे
इस समय में
पूरे मनोयोग से रोकर ही
धोया जा सकता था
अंतर मन का कलुष

 

बचाया जा सकता था
भीतर ,नित -प्रति
मरता जाता मनुष्य

 

सुखों और दु:खों का
हिसाब
गड़बड़ाया इतना कि
जीवन
अवशेष हुआ

 

आवेगों की
प्रामाणिकताएँ
समाप्त होती हैं
जहां
वहां
तब पेड़ तक
संवाद नहीं करते

 

चिड़ियों के
इस तरह गायब होने से
आसमान में
होने लगते हैं
सुराख

 

देवदूत
इन्हीं से रिसते हैं
मौत को
मोक्ष का
पर्याय कहने

 

धरती तब भी गाती है
झींगुरों में
जीवन राग

 

जुगनुओं में
लौट-लौट आते हैं
उसके
ठगे गए
पूर्वज

 

न रो पाने का
मेरा दुःख
रह-रहकर
फूटता है कि
मैं
माँ की मौत पर नहीं
उसकी
सूचना पर रोया

 

हवा में पसीजता
पेड़-पौधों में
होता हरा

 

किसी नये पीके में
रह-रहकर
उगने को
होता हुआ।


 

आज घर बेटी आई

 

दूर गिलहरी रुकी
आम की पतली टहनी झुकी
भींगी पलकें
भरे गले से
माँ ने टेर लगाई
आज घर बेटी आई

 

किस निहारिका से टूटी कब
घुटने-घुटने चलकर
ग्रह पिंडों के
कितने
देश-प्रदेश
पार कर आई
आज घर बेटी आई

 

हाथों में तो इसके देखो
अरे-अरे!
चमकीला पत्थर
जाने किस पहाड़ का मन
यह मुट्ठी में भर लाई

 

आज घर बेटी आई

 

पिन्नाटा यूँ भरे
प्रार्थना झरे
किसी गुंबद से
जैसे टेर
भरम सब टूटा
कुछ-कुछ फूटा

 

रोने के भीतर हँसी
छलक कर
घर आँगन भर छाई
जिसे लूटने
खोल ओस की
बूँदों के दरवाजे

 

उड़-उड़ कर निकले
हंस
खेत की मेड़ों
को भागे
कोहरा छाया

 

बाजी गगन बधाई
आज घर बेटी आई।

 


हाँ, हम लड़ेंगे और जीतेंगे

 

मंच पर चढ़कर
वह मुट्ठी बाँध
हवा में लहराते हैं
चिल्लाते हैं
एक साथ
हाँ,
हम लड़ेंगे और जीतेंगे

 

जिन पहलवानों के भरोसे
लड़ी जानी है लड़ाई

 

उनमें
एक पैदायशी निखट्टू
जीवन भर जो रहा
कामचोर
संघर्ष तेज करने की
करता है बात

 

दूसरा
आपातकाल का समर्थक
अभिव्यक्ति की आजादी पर
लगातार
उठा रहा है
गम्भीर सवाल

 

तीसरा जो
कॉलेज का प्रोफेसर है
अभी-अभी
मी-टू में
आया है उसका नाम

 

महिला से
छेड़छाड़ के
आरोप में
किया गया है
उसे
नौकरी से बर्खास्त

 

महिलाओं के सम्मान
उनकी गरिमा
सुरक्षा को लेकर
जता रहा है
अपनी गहरी चिंता

 

और वह जो
नैतिक मूल्यों की
दे रहा है दुहाई

 

यूँ तो बनता है
सरकार का
घोर विरोधी
पर उसी के
खर्चे पर
आया है इस
आयोजन में
होने शामिल

 

मंच से
झुग्गी-झोंपड़ी वालों को
बताता है
अपने ही परिवार का
आत्मीय सदस्य

 

अनैतिक सरकार को घेरने
वह जुलूस की कर रहा है
अगुवाई

 

सार्वजनिक जीवन में
शुचिता को लेकर
जो महाशय दिखा रहे हैं
व्यग्रता
सामुदायिक भवन निर्माण
के घोटाले में रँगे हैं
उस बहरूपिए के हाथ

 

और उसे देखो
वह जो बनता है
बहुत बड़ा
क्रांतिकारी लेखक
आम जन का
झंडाबरदार

घोर दक्षिणपंथियों
के आगे
सिर झुका कर
जुगाड़ लाया है
साहित्य का पुरस्कार

 

इतना ही नहीं
जन की
कविता के नाम पर
वह
लगातार
फैला रहा है
सांप्रदायिक घृणा
उसके
ध्रुवीकरण में
हो रहा है
सहभागी

 

कुछ इस तरह
कि बिगाड़ रहा है
सामाजिक समरसता

 

अपने वर्ग शत्रु से
लड़ने हमें
अर्जित करनी होगी
सच्ची पात्रता

 

जाहिर है
लड़ना होगा हमें
अपने ही
दोगलेपन से
हाँ, हम लड़ेंगे और जीतेंगे।

 

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बलराम गुमास्ता

 

रिटायर्ड कृषि अभियन्ता, प्रमुख विधाएं हैं, कविता, बाल साहित्य और आलोचना। अब तक चौदह कृतियां प्रकाशित हुई हैं, बाल साहित्य विशेष रूप से प्रकाशित। ब्रिटिश काउंसिल अवार्ड और टी सी टी अवार्ड प्राप्त हुए हैं।

1 Comment

  • नीरज

    बहुत सुंदर कविताऍं।

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