कविता के बारे में
विहाग वैभव
द्वारा कमल मेहता
आज के कविता जगत में विहाग वैभव स्थापित होने की ओर निरंतर अग्रसर हैं। उनकी कविता “चाय पर शत्रु सैनिक” के लिए उन्हें प्रतिष्ठित “भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार” मिला और रातों-रात चर्चा में आ गए। हालांकि उनकी चर्चा पहले भी उनकी अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं को लेकर हवा ले चुकी थी, हाल में ही राजकमल प्रकाशन से उनका पहला कविता संग्रह “मोर्चे पर विदागीत” प्रकाशित हुआ है, इसमें कई कविताएं पहले ही कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कविताओं में विविध पक्ष खोल देना और सामाजिक भेद के खिलाफ मोर्चे पर खड़े सैनिक की भूमिका निभाना उन्हें नए कवियों के बीच में अलग पहचान के साथ खड़ा करता है।
विहाग वैभव की कविताओं पर बात करने के लिए “चाय पर शत्रु सैनिक” से शुरुआत करना मुझे सही लग रहा है। इस कविता में वे युद्ध के कई पक्षों पर बात करते दिखते हैं जो सामान्य दृष्टिकोण से नज़र अंदाज़ कर दिए जाते हैं। यह कविता बताना चाहती है कि युद्ध के लिए सैनिक रूप में खड़े होना ही देशभक्ति का आखिरी सोपान नही है और न ही देशभक्त होना सैनिक के लिए यह रास्ता चुनने का एकमात्र कारण।
- मैं तो विकल्पहीनता की राह चलते यहां पहुंचा
पर तुम सैनिक कैसे बने ?
क्या तुम बचपन से देशभक्त थे
वह इस मुलाकात में पहली बार हंसा
मेरे इस देशभक्त वाले प्रश्न पर और स्मृतियों में टटोलते हुए बोला-
मैं एक रोज़ भूख से बेहाल अपने शहर में भटक रहा था
तभी उधर से कुछ सिपाही गुजरे
उन्होंने मुझे कुछ अच्छे खाने और पहनने का लालच दिया
और अपने साथ उठा ले गए
सत्ताएं कैसे युद्ध की विभीषिका में देश को झोंक देती हैं, यह समझ पाना कभी-कभी आवाम के लिए मुश्किल हो जाता है वे सत्ता की मंशा को देश की जरूरत समझने लगते हैं। हरिशंकर परसाई व्यंगात्मक लहज़े में युद्ध को ‘जादू’ की संज्ञा देते है जिसे सत्ताएं जरुरत के हिसाब से दिखाती रहती हैं। विहाग इसे कुछ यूं लिखते हैं –
- हम दोनों राज्य की हवस के लिए लड़ते हैं
हम लड़ते हैं क्योंकि हमें लड़ना ही सिखाया गया है
हम लड़ते हैं कि लड़ना हमारा रोज़गार है
विहाग वैभव अपनी कविताओं में अपना एक संसार रचते हैं जहां मनुष्य को मनुष्य की न्यूनतम हैसियत तो हासिल हो। ऐसा उनकी इतिहासबोध की समझ से विकसित हुआ है, जहां वे पुरखो के साथ हुए अन्यायों के बारे में खुलकर लिखते हैं। उनकी कविताएं इतिहासबोध की उस धारा की ओर इंगित करती हैं जो घटित तो हुआ लेकिन लिखा नही गया, यही धारा उनकी कलम से कविताओं के माध्यम से बिना छने उजागर होती है। कहीं भी वे आकर्षक इतिहासबोध को तवज़्ज़ो देते नही दिखते-
- एक भूख सदियों से मेरा पीछा करती है
एक आदमी की कराह सीने में सारंगी की तरह बजती है
तुम ध्यान से देखोगे तो
तुम्हें मेरी पीठ पर कोड़ो के हज़ार निशान मिलेंगे
मां कहती है जन्मजात हैं ये निशान
वे उन लोगो पर सीधा हमला करते जो घटित, वास्तविक इतिहासबोध को नकारते हैं, जो हाशिये के लोगो के इस दावे को अपने ऊपर हमले की तरह लेते हैं –
- ये देश उनका है
जो धूप में दह गए
जो पाताल में बह गए
जो फांसी को गह गए।
विहाग की कविताएं सहजता के मानकों को सहेज कर चलती हैं, ऐसा वे नियतवश करते लगते हैं। उनमें चीख भी स्पष्ट सुनायी देती है और सवाल भी-
- बिखरे चेहरे वाली अधनंगी लड़की ने
हवा में खून सना सलवार लहराया
और रोकर चीखी….न्याय।
जातिवाद पर उनकी कविताएं सीधी सपाट टिप्पणियां हैं, जिस पर ओमप्रकाश वाल्मीकि का प्रभाव कहीं-कहीं देखा जा सकता है। ‘कभी सोचा है’ कविता में वाल्मीकि लिखते हैं – कभी सोचा है/गन्दे नाले के किनारे बसे/वर्ण व्यवस्था के मारे लोग/इस तरह क्यो जीते हैं?/तुम क्यों पराये लगते हो उन्हें/कभी सोचा है?। विहाग इसी कड़ी में शिकायत करते हैं तथाकथित उच्च जातियों के तथाकथित प्रगतिशील लोगों से जो मुखोटे लगाकर तो समाज के इस घृणित वर्गीकरण के खिलाफ बोलते हैं लेकिन मुखौटे के पीछे इसे पोषित भी करते हैं –
- तुम सच को सच की तरह नहीं कह पाते
नहीं कह पाते झूठ को झूठ की तरह
तो यह साहस के कमी का मसअला नहीं है दोस्त
तुम्हारी जाति ही है
जो हर बार आड़े आ जाती है।
साम्प्रदायिक विचारों पर वे गरजते हैं, बताते हैं कि ये प्रक्रियागत शोषण बहुत पुराना अभ्यास है। विहाग कहते हैं कि, ‘वे वीर्य से नही, घृणा से उपजे हैं। वे एक दिन देश के सभी हिन्दओं को यह समझा ले जाएंगे कि इस देश मे मुसलमानों को क्यों नही रहना चाहिए और उनकी हत्याएं क्यों जायज हैं।’ वे ऐसा करना शुरू कर चुके हैं क्योंकि उन्हें भरोसा है कि “रोपी हुई घृणाएं देर तक फलती हैं।” वे उस माहौल को समझते हैं कि किस तरह देशभक्ति को अलग परिभाषा देकर राष्ट्रवाद की संकीर्ण मानसिकता को थोपा जा रहा है। वे उलाहना देते हुए लिखते हैं –
- अपने हृदय को
फूल से बच्चों की जली लाश की राख से लीप लो
कर लो बिल्कुल मृत्यु-सा काले रंग में
और इन बच्चों की हड्डियों में
वह रंग विशेष का झंडा लहराकर
पूरे हृदय से भारत माता को करो याद
मैं ऊपर लिख कर आया हूं कि विहाग की कविताओं में सहजता आसानी से देखी जा सकती है, बहुत अधिक तार्किकता को भी वे जरूरी नही समझते। अपनी एक कविता में वे मध्यमवर्गीय सतर्कता और चतुराई पर कटाक्ष करते दिखाई देते है। वे जानते है कि ये जबरदस्ती की ओढ़ी गई निष्पक्षता की चादर, महीने दर महीने आती तनख्वाह में किश्तों पर गुज़रती ज़िन्दगी में बेफिजूल की उदासीनता आज समाज मे घट रहे अन्यायों का बड़ा कारण है। उनकी बात आज के मध्यमवर्गीय सुसुप्तावस्था के दौर में और भी प्रासंगिक दिखाई पड़ती है-
- बहोत समझदार और सुलझे हुए लोग
नहीं सोख सकते कोई नदी
नहीं हर सकते कोई आग
नहीं लड़ सकते कोई लड़ाई।
वे समाज, सत्ता, राजनीति, जाति पर लिखतें हुए भी गृहस्थी की आपाधापी में मां के यथार्थ जीवन की पड़ताल करते दिखते हैं –
- हम मां को हमेशा ही
खूबसूरत देखना चाहें
हम नाराज भी हुए मां से
जैसे सजती थीं आसपड़ोस की औरतें
मां नही सजी कभी उस तरह।
“ईश्वर को किसान होना चाहिए” कविता में तो वे अपनी व्यवहारिक समझ को जैसे उड़ेल देते हैं। जैसे वे मिट्टी में सनी जमीन को काग़ज़ कर कविता लिख रहे हैं –
- मुझे यकीन है ईश्वर महाजन का दिया परचा
किसी दिव्यज्ञान की तरह नही पढ़ेगा
वह उसे पढ़कर उदास हो जाएगा
फिर वह महसूस करेगा कि
इस देश मे ईश्वर होना
किसान होने से कई गुना आसान है
आज के समय मे किसानों की स्थिति को देखते हुए इन पंक्तियों की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है।
मंगलेश डबराल विहाग वैभव की कविताओं को ‘लोक जीवन के मार्मिक संवेदनात्मक ज्ञान की कविताएं’ कहते हैं। उनकी संवेदना में लोकस्मृति गहरे बसी हुई है और यह खूबी उन्हें अपने समकालीनों और शहराती कवियों से कुछ अलग करती है। यह लोकसंवेदना भी भावुकता या रूमान से नही, बल्कि साधारण जनो के श्रम और संघर्ष से उत्पन्न हुई है। एक कविता में वे कहते हैं –
- जिस हवा को पिया अभी-अभी
उसी में आती रही मुझे पूर्वजों की पसीनाई गंध
एक अर्थ में यह लोक के प्रचलित और सामंती रूपो का अतिक्रमण करती है।
एक प्रसिद्ध उक्ति है, प्रेमी और क्रांतिकारी एक ही मिट्टी के बने होते है। एक प्रेमी हृदय ही संवेदना के साथ समाज और देश मे हो रहे अन्याय के खिलाफ लिखते हुए न्याय कर सकता है। वे बंधे बंधाये दायरों से बाहर जीवन में प्रेम के हिस्सों को आगे बढाते जाने की हिमायत करते हैं। स्थापित मान्यताएं तो जैसे उन्हें शरीर मे कीलों जैसी चुभन देती हैं और उससे छुटकारे के लिए ही उन्होंने कविता का रास्ता चुना।
- ऐसी लड़कियां
अपनी आत्मा के पवित्र कोने में रख देती हैं
पहले प्रेमी के साथ का मौसम
और संभावनाओं से भरे इस विशाल दुनिया में से
फिर से चुनती हैं एक प्रेमी
इस बार भी वही पवित्र भावनाएं जन्मती हैं
उनके दिल के गर्भ से
वही बारिश से धुले आकाश सा होता है मन
जिन लड़कियों के प्रेमी मर जाते हैं
वे लड़कियां
दुबारा प्रेम करके भी बदचलन नही होतीं।
विहाग सत्ता को चुनौती देते हुए प्रेम की सृजन शक्ति पर भरोसा जताते हैं, यह भरोसा उनके कविता संग्रह की शीर्षक कविता ‘मोर्चे पर विदागीत’ में स्पष्ट दिखाई देता है-
- वे बार-बार पूछेंगे नाम तुम्हारा
और मैं मर जाऊंगा पर नही बताऊंगा
तब वे जान जाएंगे
यह अंत नहीं है
मेरे जैसा कोई दूसरा आएगा
तीसरा, चौथा, पांचवां और न जाने कितने आएंगे
जो अपनी प्रेमिकाओं के लिए
अपनी कल्पनाओं की खूबसूरत दुनिया चाहते हैं
यहां विहाग अपने उस रचना संसार को उतार लेना चाहते हैं जिसे आप यूटोपिया कह लीजिए, मगर जिस तरह की वे आवाज़ उठा रहे हैं, वे आवाज़ें उस रचना संसार के लिए जरूरी खुराक हैं। और मुझे बार-बार यह कहना चाहिए कि वे अपनी क्रांतिकारी आवाज़ के बीच प्रेम को बारम्बार पन्नों पर उड़ेल देते हैं। इसमें छिपा हुआ संदेश भी है कि परिवर्तन का रास्ता मोहब्बत के रास्ते ही मंज़िल तक पंहुचेगा-
- यदि आप प्रेम को नही चुनते
तो घृणा आप को चुन लेती है।
द्वारा – कमल कुमार मेहता
कमल कुमार मेहता पेशे से राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, वर्तमान में बगरू, जयपुर (राजस्थान) में निवासरत हैं ।