समकालीन कविता
गौरव गुप्ता की कविताएं
छूटना
मैं उदास इसलिए नहीं रहा कि
मुझे प्रेम नहीं मिला
मैं उदास इसलिए रहा कि मैंने
जिसको भी दिया प्रेम
लगा कम ही दिया
किसी का माथा चूमते वक़्त लगा कि
उसके होंठों को चूमना छूट गया
किसी के होंठ चूमते वक़्त लगा
शायद घड़ी भर और वक़्त मिलता तो,
चूम लेता उसकी आंखें,
सोख लेता उसका दुःख
जो उसके आँखों के नीचे जमा बैठा था।
किसी से जब सब कुछ कहा
लगा कि चुप्प रहकर साथ चलना छूट गया
किसी के साथ घण्टों चुप्प बैठा तो
उसके कांधे पर सिर रख
‘मैं तुम्हारे गहन प्रेम में हूँ’ कहना छूट गया।
इस तरह हर बार प्रेम करते वक़्त
कुछ न कुछ छूटता रहा
और हर बार उसके दूर चले जाने पर लगता रहा
जितना भी किया प्रेम, कम ही तो किया
जिसे भी दिया प्रेम, कम ही तो दिया।
मैं चाहता हूं
मैं चाहता हूं
तुम जाओ तो उतना भर दूर जाओ कि
एक अंतिम पुकार सुन सको मेरी,
मेरे आखिरी समय की
अगर यह भी ना हुआ तो इतना भर जरूर हो कि
किसी आसान सा पता चुन
वहां रहने लगो तुम।
कोई डाक पहुंच जाए तुम तक भटकते हुए
मेरी ख़बर लिए
अपने फोन का नम्बर कुछ ऐसा चुनो
कि लग जाये रॉन्ग नम्बर हर बार होगा
तुम्हारे ही पते पर
ख़बर हो जाए तुम्हें मेरे मृत्यु की
जिसे कोई न कोई तुम तक पहुंचा रहा
नहीं, मैं यह नहीं चाहता कि
तुम आंसू बहाओ
या कहो ‘उफ्फ’ भर
या छिपा लो आंचल के कोर में अपनी आंखें
या भाग कर सबसे, छिप जाओ गुसलखाने में
नहीं, मैं यह नहीं चाहता
कि तुम्हारे आसपास मौजूद एक शख़्स भी देखें तुम्हें
शक भरी निगाह से
पूछे तुमसे तुम्हारा अतीत
जिसे तुम ज़माने पहले छोड़ चुकी हो
मैं बस चाहता हूं
तुम एक गहरी सांस लो और
आश्वस्त होकर जियो कि
अब कहीं कोई,
तुम्हारा इंतजार नहीं करता।
अलविदा
जब भी
अलविदा लिखने के लिए
लिखा ‘अ’
हाथ कंपने लगे
“अ” के अकेलेपन को हरबार बदलकर “आ” किया
औऱ पूरा किया वाक्य “आ जाओ”
पर
तुम कभी नहीं आयी
औऱ
मैं कभी नहीं लिख सका अलविदा।
एकालाप
मैं कभी बीते कल की स्मृतियों में रहा,
तो कभी भविष्य की योजनाओं में
वर्तमान की सुई पर जब भी नज़र गयी,
वो सेकंड भर आगे हो गई,
औऱ मैं रहा कभी अफ़सोस में झूलता
या कभी उसे पकड़ पाने की चाह में…
बुद्ध कहते है-वर्तमान में ठहरना, मुक्ति का द्वार है
एक रोज़ तुम्हारे होठों का नर्म स्पर्श मेरे माथे पर पड़ा
औऱ सब कुछ ठहर गया था उस क्षण..
कोई शोरगुल नहीं,
ना कोई स्मृति और ना ही भविष्य की योजनाएं
ना किसी सुख की चाह, और ना ही दुःख की पीड़ा
ना कोई बेचैनी, ना ही किसी मृत्यु का भय
एक परम संतोष…और अधरों पर मीठी मुस्कान…
रीढ़ की हड्डियों से बहती हो जैसे कोई नदी
उस रोज़ सुना अपने ही हृदय की आवाज़ बिना किसी स्टेथेस्कोप के
लब-डब लब-डब
औऱ मैंने उस रोज़ जाना एक मात्र तुम्हारा ‘प्रेम’ ही है, मेरे ‘मुक्ति का द्वार’ …
बसंत
दुनिया में जिसको जहां होना चाहिए
वह ठीक वहीं है,
सिवाए मेरे और तुम्हारे.
जिस तरह आसमां के पास है चांद, तारे और नक्षत्र
धरती के पास हैं बहती नदियां, खिलते फूल
ठीक उसी तरह तुम्हें होना चाहिए था मेरे पास
सीने से लिपटे हुए
जैसे लिपटा हुआ है बसंत, पेड़ों से।
पूर्वी चंपारण, बिहार से युवा कवि गौरव गुप्ता वर्तमान में दिल्ली में निवासरत हैं। वह कवि होने के साथ-साथ अनुवादक भी हैं। गौरव का कविता संग्रह ‘तुम्हारे लिए’ (मुम्बई लिटरेचर फेस्टिवल में सम्मानित कृति) प्रकाशित हो चुका है। आपके कविताएँ, डायरी, ब्लॉग्स देश की विभिन्न पत्र, पत्रिकाओं, दैनिक अख़बार और हिन्दी ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हो चुके हैं।
आनंद कुमार विश्वास की कविताएं
कई दिनों से कोई ऐसी
कविता लिखना चाहता हूं,
जिसे लिखते वक्त मैं
शब्दों के साथ-साथ उसके भावनाओं के
आंतरिक टीस और
अन्तर्द्वन्द का भी वहन कर सकूं।
मैं भुगतना चाहता हूं हर वो पीड़ा
जो एक कवि अपनी ईप्सा की पूर्ति हेतु
केवल लिखते हैं, रचते हैं।
बिना कभी रोये आंसुओं पर लिखना कितनी छोटी बात है न?
मैं हर बार किसान नहीं कभी-कभी
खुद मिट्टी हो जाना चाहता हूं;
जिसकी छाती चीर कोई अपनी
आकांक्षाओं को पूर्ति कर खुश होता है।
मैं हमेशा महल नहीं बल्कि
कभी-कभी स्तंभ भी हो जाना चाहता हूं;
जो अनवरत कितने ही बोझों को
अपने मस्तक पर लिये खड़ा है,
कई सालों से, चुपचाप!
मैं अक्सर चित्र नहीं यदा-कदा
कील भी हो जाना चाहता हूं;
जिसकी जिह्वा पर वर्षों से टंगा है,
कोई खूबसूरत सा दृश्य,
प्रशंसा से लबरेज़।
मैं हमेशा कवि नहीं बल्कि
कभी-कभार खुद कविता हो जाना चाहता हूं
ताकि मैं समझ सकूं; चित्कार पड़ती मिट्टी,
असहाय स्तंभ, दीवारों में धंसी कील और काग़ज़ों में
लिखी कविताओं का दुःख ।
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मैं जानता हूं समाज के चौतरफ़ा
बंदिशों में मेरा तुमसे मिल पाना
इतना आसान नहीं।
तुमसे मिलकर अपना
हंसना-गाना-रोना-सिसकना
सुना पाना,
इतना आसान नहीं।
इतना आसान नहीं तुम्हारा हाथ थाम
दूर तक बेझिझक साथ चल पाना।
आसान नहीं तुम्हारे समीप बैठ
दुनियाभर की बातें सहजता से कर पाना।
काश ! अपनी सारी भावनाओं को तुमसे कह पाता मेरी प्रेयसी
मैं तुम्हारा तुम मेरा समझ सको तो समझो लाचारी और बेबसी
मैं रोता हूं तो अक्सर पत्ते मेरे आंसू पोंछते हैं
हंसता हूं तो शाखाएं एक साथ झूमते और नाचते हैं
गाता हूं तो पुष्प की कलियां सुनती है चुपचाप मेरा मौन संगीत
हे प्रिय! तुम्हारी अनुपस्थिति में एक पेड़ को माना है मैंने अपना मनमीत।
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मुझे मारो !
बहुत मारो !
शब्दों के तीक्ष्ण प्रहार से मारो
वेदना की हरेक पुकार से मारो
करुणा की किसी झंकार से मारो
या किसी हसुवे या कैंची की धार से मारो
मुझे किसी धधकती चूल्हों में जला-जलाकर मार डालो।
मारो मुझे, तड़पा-तड़पा कर मार डालो
मुझे तब तक मारो
जब तक मैं स्वीकार न लूं खुद के अवगुणों को
मेरे अंदर ही बैठे हैवानों को, शैतानों को
परंतु मैं फ़िर भी नहीं मरुंगा
मैं ना तो तुम्हारे किसी बातों से मरूंगा
न किसी उष्मा की तापों से मरूंगा
और ना किसी खंज़र या तलवारों से मरूंगा
क्योंकि
मैं अहंकार हूं
मैं जब भी मरुंगा
तुमको मारकर ही मरूंगा ।
पूरा नाम आनंद कुमार ‘विश्वास’ है, जो मूल रूप से भागलपुर, बिहार के निवासी हैं। तिलकामांझी भागलपुर विश्वविद्यालय से इन्होंने विज्ञान संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त कर साहित्य में विशेष रुचि होने के कारण वर्तमान में सामग्री लेखन के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं।
प्रदीप सैनी की चार कविताएं
[1]
हमें आवाज़ पर भरोसा नहीं खोना चाहिए
जो दुनिया के होने की आवाज़ें हैं
हम तक नहीं पहुंचती
जैसे सूर्य का चक्कर लगाती या
अपनी ही धुरी पर घूमती हुई पृथ्वी की आवाज़
समंदर के जल का भाप होकर बादल बनने की
या हिमनदों के पिघलने की आवाज़
किसी अंकुर के फूट पड़ने की
हमारी अपनी ही नब्ज़ की या
लहू के पसीना बन कर बहने की आवाज़।
[2]
सबसे जोर से सुनाई देतीं आवाज़ें
अक्सर होती हैं सबसे अश्लील और बेहूदा
जिनके होने से हम नहीं जान पाते
कि सबसे जरूरी आवाज़ें उनके नीचे दब कर
बेआवाज़ मर जाती हैं।
[3]
जब किसी एक को मरना हो
आततायी गला दबाता है
जब उसे मारना हो पूरे का पूरा समाज
तो वह आवाज़ दबाता है
किसी भी चिकित्सीय जांच में पता नहीं चलता
मौत का कारण
आवाज़ दबाकर मारना
मारने का सबसे कारगर और अचूक तरीका है।
[4]
तानाशाह के डर से डरते-डरते
चंगे-भले लोग भी मिमियाने लगते हैं
उनके हलक से निकलती नहीं आवाज़ साफ़
जिस पर कान रखती हैं उसकी ख़ुफ़िया एजेंसियां
जबकि दबी और कुचली हुई जनता की कमज़ोर
और डरी हुई आवाज़ से भी डरता है
तानाशाह
हमें आवाज़ पर भरोसा नहीं खोना चाहिए।
[5]
आवाज़ का अपना चेहरा होता है
जो ज़्यादा सच्चा और भरोसे के काबिल होता है
अक्सर वह बोलने वाले के चेहरे से
मेल नहीं खाता।
[6]
उस कवि को संदेह से देखना चाहिए
जिससे बहुत आवाज़ आती हो
और उन कविताओं को भी
जिनसे कोई आवाज़ न आती हो।
[7]
सब कुछ लेकर चले जाने वाला भी
दूर निकल जाने से पहले रुकता है कुछ देर
वह चाहता है कि तुम दो उसे वह एक आवाज़
जो तुम्हारे कंठ में कांप रही है
सभी दृश्य अंततः एक आवाज़ में बदल जाते हैं।
पानी
इतना पानी था मेरे पास
सबका सब बेकार गया
बहुत पहले मेरी प्यास ने उसे अपने लिए ढूंढा
और उसके पास गई
और गहराई का अनुमान न होने पर
उसमें ही डूबकर मर गई
मेरी प्यास तो बिन पानी पिये इस तरह मुक गई
मगर उस पानी में उसकी आत्मा रह गई
अब कोई प्यासा भटकता हुआ आता है जो मेरी तरफ
पानी देख रुकता है खुश होता है
पानी पीता है और पहले से ज़्यादा प्यासा हो लौट जाता है।
आग
मैं आग की तलाश में हूं
मुझे वह जीते जी चाहिए
मरकर मिलने पर उसका मैं क्या करूंगा ?
सरल बात
आंखें देख सकती हैं
कान सुन सकते हैं
और सूंघ सकती है नाक
जीभ बता सकती है स्वाद और त्वचा महसूस कर सकती है
स्पर्श और ताप
मुझे मालूम नहीं कि क्रम विकास में इन शक्तियों को अर्जित करने में कितने लाख वर्ष लगे होंगे
और यह भी नहीं जानता कि इन्हें उपयोग में लाए बिना
कितने वर्षों में खो जाएंगीं ये
मुझे मालूम है केवल इतना
कि यह इतनी सरल बात समझी गई
कि शिक्षाविदों ने इसे प्राथमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में जगह दी
लेकिन देखना, सुनना, सूंघना, चखना और महसूस करना
बिल्कुल भी साधारण नहीं हैं
मैं भूल न जाऊं इस साधारण सी लगती बात को
बस इसलिए ही मैं इस सरल बात को दोहराता हूं।
प्रदीप सैनी विधि स्नातक हैं, इनकी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित हुई हैं। सम्प्रति वकालत करते हैं , निवास हिमाचल प्रदेश। मोबाइल : 7018503601, 9418467632
अजेय
प्रदीप सैनी लंबे अरसे से लिख रहे हैं। कोरोना काल ने इन्हें अपनी रचनशीलता को री विज़िट करने का मौका दिया और तदनंतर इन्होंने हिंदी कविता को अपना बेहतरीन दिया है। मेरे मनपसंद और हिंदी के महत्वपूर्ण कवि को छापने के लिए कृत्या का आभार