प्रिय कवि

 

 

 

 

 

 

 

 

अरुण आद‌ित्य की कव‌िताएं

उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में जन्में अरुण आदित्य के अब तक “रोज ही होता था यह सब’” (कविता संग्रह) व ‘उत्तर वनवास’ (उपन्यास) प्रकाशित हो चुके हैं। मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के दुष्यन्त पुरस्कार से सम्मानित कवि अरुण आदित्य की कविताएं असद जैदी द्वारा संपादित ‘दस बरस’ और कर्मेंदु शिशिर द्वारा संपादित ‘समय की आवाज़’ में  संकलित़  हैं, तथा आपकी रचनाएं पहल, हंस, वसुधा, पल-प्रतिपल, वागर्थ, साक्षात्कार, कथादेश, बया आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित, कुछ कविताएं पंजाबी मराठी और अंग्रेज़ी में अनूदित़ हुई हैं। वर्तमान में अमर उजाला गोरखपुर संस्करण के संपादक अरुण आदित्य अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, बेकल उत्साही  सम्मान, व आयाम सम्मान जैसे सम्मानों से सम्मानित किए जा चुके हैं।

 

अन्योन्याश्रित

 

हवा चूमती है फूल को
और फिर नहीं रह जाती है वही हवा
कि उसके हर झोंके पर फूल ने लगा दी है अपनी मुहर

और फूल भी कहां रह गया है वही फूल
कि उसकी एक-एक पंखुड़ी पर हवा ने लिख दी है सिहरन

फूल के होने से महक उठी है हवा
हवा के होने से दूर-दूर तक फैल रही है फूल की खुशबू
इस तरह एक के स्पर्श ने
किस तरह सार्थक कर दिया है दूसरे का होना।

 

कागज का आत्मकथ्य

 

अपने एकांत की छाया में बैठ
जब कोई लजाधुर लड़की
मेरी पीठ पर लिखती है
अपने प्रिय को प्रेमपत्र
तो गुदगुदी से फरफरा उठता हूं मैं

परदेश में बैठे बेटे की चिट्ठी बांचते हुए
जब कांपता है किसी जुलजुल मां का हाथ
तो रेशा-रेशा कांप जाता हूं मैं
और उसकी आंख से कोई आंसू टपकने से पहले
अपने ही आंसुओं से भीग जाता हूं मैं

महाजन की बही में गुस्से से सुलग उठता हूं तब
जब कोई बेबस
अपने ही दुर्भाग्य के दस्तावेज़ पर लगाता है अंगूठा

मुगालते भी पाल लेता हूं कभी-कभी
मसलन जब उत्तर पुस्तिका की भूमिका में होता हूं
तो इस ख़ुशफ़हमी में डूबता उतराता हूं
कि मेरे ही हाथ में है नई पीढ़ी का भविष्य

रुपए की भूमिका में भी हो जाती है ख़ुशफ़हमी
कि मेरे ही दम पर चल रहा है बाजार और व्यवहार
जबकि मुझे अच्छी तरह पता होता है
कि कीमत मेरी नहीं उस चिड़िया की है
जिसे रिजर्व बैंक के गवर्नर ने बिठा दिया है मेरी पीठ पर

अपने जन्म को कोसता हूं
जब लिखी जाती है कोई काली इबारत या घटिया किताब
पर सार्थक लगता है अपना होना
जब बनता हूं किसी अच्छी और सच्ची रचना का बिछौना

बोर हो जाता हूं जब पुस्तकालयों में धूल खाता हूं
पर जैसे ही किसी बच्चे का मिलता है साथ
मैं पतंग हो जाता हूं

मेरे बारे में और भी बहुत सी बातें हैं
पर आप तो जानते हैं
हम जो कुछ कहना चाहते हैं
उसे पूरा-पूरा कहां कह पाते हैं

जो कुछ अनकहा रह जाता है
उसे फिर-फिर कहता हूं
और फिर-फिर कहने के लिए
कोरा बचा रहता हूं।

 

इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं लोग

 

कुछ दिनों पहले मिला मुझे एक विचार
आग का एक सुर्ख गोला
सुबह के सूरज की तरह दहकता हुआ बिलकुल लाल
और तब से इसे दिल में छुपाए घूम रहा हूं
चोरों, बटमारों, झूठे यारों और दुनियादारों से बचाता हुआ

सोचता हूं कि सबके सब इस आग के पीछे क्यों पड़े हैं

उस दोस्त का क्या करूं
जो इसे गुलाब का फूल समझ
अपनी प्रेमिका के जूड़े में खोंस देना चाहता है

एक चटोरी लड़की इसे लाल टमाटर समझ
दोस्ती के एवज़ में मांग बैठी है
वह इसकी चटनी बना मूंग के भजिए के साथ खाना चाहती है

माननीय नगर सेठ इसे मूंगा समझ अपनी अंगूठी में जड़ना चाहते हैं
ज्योतिषियों के अनुसार मूंगा ही बचा सकता है उनका भविष्य

राजा को भी ज़रूरत आ पड़ी है इसी चीज की
मचल गया है छोटा राजकुमार इसे लाल गेंद समझ
लिहाज़ा, राजा के सिपाही मेरी तलाश में हैं

और भी कई लोग अलग-अलग कारणों से
मुझसे छीन लेना चाहते हैं यह आग
हिरन की कस्तूरी सरीखी हो गई है यह चीज
कि इसके लिए कत्ल तक किया जा सकता हूं मैं

फिर इतनी खतरनाक चीज को
आखिर किसलिए दिल में छुपाए घूम रहा हूं मैं

दरअसल मैं इसे उस बुढ़िया के ठंडे चूल्हे में डालना चाहता हूं
जो सारी दुनिया के लिए भात का अदहन चढ़ाए बैठी है
और सदियों से कर रही है इसी आग का इंतज़ार।

 

कोहरा

कई दिनों से छाया हुआ है कोहरा घना
कंपकंपाती ठंड और सूरज का कहीं अता पता नहीं
जहां तक नजर जाए बस धुआं ही धुआं
और धुएं में उलझे हुए जलबिंदु अतिसूक्ष्म

जरा सी दूर की चीज भी नजर नहीं आ रही साफ-साफ
टीवी अखबार से ही पता चलता है
कि क्या हो रहा है हमारे आस-पास

45 रेलगाड़ी से कट मरे
54 सड़क दुर्घटनाओं में
140 ठंड से
अलग-अलग कारणों से मरे नजर आते हैं ये 239 लोग
पर वास्तव में तो ये कोहरा ही है इनकी मौत का जिम्मेदार

इनके अलावा और कितने लोग
और कितनी चीजें हुई हैं इस कोहरे की शिकार
इसका हिसाब तो मीडिया भी कैसे दे सकता है
जो स्वयं है इस धुंध की चपेट में

जब इस तरह घना हो तो कोहरे में देखते हुए
सिर्फ कोहरे को ही देखा जा सकता है
और उसे भी बहुत दूर तक कहां देख पाते हैं हम
थोड़ी दूर का कोहरा
दिखने ही नहीं देता बहुत दूर के कोहरे को
और बहुत पास का कोहरा भी कहां देख पाते हैं हम

घने से घने कोहरे में भी
हम साफ-साफ देख लेते हैं अपने हाथ-पांव
इसलिए लगता है
कि एक कोहरा मुक्त वृत्त में है हमारी उपस्थिति
जबकि हक़ीक़त में इस वृत्त में भी
होता है कोहरा उतना ही घना
कि दस गज दूर खड़ा मनुष्य भी नहीं देख सकता हमें
ठीक उसी तरह जैसे उसे नहीं देख पाते हैं हम

इस घने कोहरे में
जब जरा से फासले पर खड़ा मूर्त मनुष्य ही नहीं दिखता मनुष्य को
तो मनुष्यता जैसी अमूर्त चीज के बारे में क्या कहें?

महर्षि पाराशर!
आपने अपने रति-सुख के लिए
रचा था जो कोहरा
देखो, कितना कोहराम मचा है उसके कारण

इस बात से पता नहीं तुम खुश होगे या दुखी
कि धुंध रचने के मामले में
तुम्हारे वंशज भी कुछ कम नहीं
अपने स्वार्थ के लिए
और कभी-कभी तो सिर्फ चुहल के लिए ही
रच देते हैं कोहरा ऐसा खूबसूरत
कि उसमें भटकता हुआ मनुष्य
भूल जाता है धूप-ताप और रोशनी की जरूरत

भूल ही नहीं जाता बल्कि कभी-कभी तो
उसे अखरने भी लगती हैं ये चीजें
जो करती हैं इस मनोरम धुंध का प्रतिरोध।

 

किसी के सपने में ली गई कोई चीज

 

‘कल रात सपने में
मेरी घड़ी रह गई थी तुम्हारे पास
लौटा देना
अगर तुम्हारी नीयत हो साफ’

निश्चित ही उसने
मज़ाक में कही होगी यह बात
पर इसमें कुछ ऐसा था जरूर
कि मुझे लगा, लौटा ही देनी चाहिए
सपने में ली गई उसकी घड़ी
पर इस विचार की राह में
एक दिक्कत थी बड़ी
कि सपने के बाहर कैसे लौटा सकता हूं
सपने के भीतर ली गई कोई चीज

सोचते-सोचते दिमाग हो गया परेशान
तो दिल ने दिया एक समाधान
कि अगर हम लौटाना ही चाहते हैं
किसी के सपने में ली गई कोई चीज
तो उसी के सपने में जाना होगा हमें

किंतु किसी और के सपने में जाना
हमारे बस में कहां ?
परंतु अपने सपने के भीतर
तो किसी और के सपने में जा ही सकते हैं हम
किंतु वह तो
हमारा ही देखा हुआ स्वप्न हुआ, उसका नहीं
फिर कैसे लौटाऊं मैं
उसके सपने में ली हुई घड़ी ?

डायरी

पंक्ति-दर-पंक्ति तुम मुझे लिखते हो
पर जिन्हें नहीं लिखते, उन पंक्तियों में
तुम्हें लिखती हूं मैं

रोज-रोज देखती हूं कि लिखते-लिखते
कहां ठिठक गई तुम्हारी क़लम
कौन सा वाक्य लिखा और फिर काट दिया
किस शब्द पर फेरी इस तरह स्याही
कि बहुत चाह कर भी कोई पढ़ न सके उसे
और किस वाक्य को काटा इस तरह
कि काट दी गई इबारत ही पढ़ी जाए सबसे पहले

रोज तुम्हें लिखते और काटते देखते हुए
एक दिन चकित हो जाती हूं
कि लिखने और काटने की कला में
किस तरह माहिर होते जा रहे हो तुम

कि अब तुम कागज से पहले
मन में ही लिखते और काट लेते हो
मुझे देते हो सिर्फ संपादित पंक्तियां
सधी हुई और चुस्त

इन सधी हुई और चुस्त पंक्तियों में
तुम्हें ढूंढ़ते हैं लोग
पर तुम खुद कहां ढूंढ़ोगे खुद को
कि तुमसे बेहतर जान सकता है कौन
कि जो तस्वीर तुम कागज पर बनाते हो
खुद को उसके कितना करीब पाते हो?

 

भीतर की नदी

साथ-साथ चलती नदी
अचानक मुड़ जाती है किसी ओर
हो जाती है हमारी आंख से ओझल
फिर भी हमारे भीतर बहता रहता है उसका जल

आगे किसी मोड़ पर फिर सामने है नदी
वही शुभ्र जल
वही कलकल
पर कहां गई मेरे अंतस की हलचल
कहीं सूख तो नहीं गई मेरे भीतर की नदी

अरे ! मेरा गला भी तो सूख रहा है
कहां गई मेरी बिसलेरी की बोतल ?

नींद

वो दिन भर लिखती है आपकी गोपनीय चरित्रावली
और उसी के आधार पर करती है फैसला
कि रात, कैसा सुलूक करना है आपके साथ

वो रात भर आपके साथ रही
तो इसका मतलब है, दिन में
बिलकुल सही थे आपके खाता बही

अगर वह नहीं आई रात भर
तो झांकिए अपने मन में
जरूर दिखेगा वहां कोई खोट
या कोई गहरी कचोट

यानी आप खुद हैं अपनी नींद के नियामक
पर कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें मुगालता है
कि वे ही हैं सबके नींद-नियंता

समय के माथे पर निशाना साधने के लिए
कुछ सिरफिरे एक खंडहर से निकालते हैं चंद ईंटें
और भरभरा कर ढह जाता है एक ढांचा
जिसके मलबे में सदियों तक
छटपटाती है कौम की लहू-लुहान नींद
लाखों की नींद चुराकर एक सिरफिरा सोचता है
कि उसके हुक्म की गुलाम है नींद
और ऐसे नाज़ुक वक़्त में भी
उसके सोच पर हंस पड़ती है वह
कि वही जानती है सबसे बेहतर
कि दूसरों की नींद चुराने वाला
सबसे पहले खोता है अपनी नींद
बेचैनी में रात-रात भर बदलता है करवट
उसके दिमाग पर हथौड़े की तरह बजती है
चौकीदार के डंडे की खट-खट

खट-खट के संगीत पर थिरकती नींद
रात भर गिनती है सिरफिरों के सिर
करती है सुबह का इंतज़ार

क‌ि थोड़ी देर सो सके रात भर का जागा चौकीदार।

 

लोटे

 

देवताओं को जल चढ़ाने के काम आते रहे कुछ
कुछ ने वज़ू कराने में ढूंढ़ी अपनी सार्थकता
प्यासे होठों का स्पर्श पाकर ही खुश रहे कुछ
कुछ को मनुष्यों ने नहाने या नित्यकर्म का पात्र बना लिया
बहुत समय तक अपनी-अपनी भूमिका में सुपात्र बने रहे सब

पर आजकल बदल गई हैं इनकी भूमिकाएं
जल चढ़ाने और वज़ू कराने वाले लोटे
अब अकसर लड़ते झगड़ते हैं
और बाद में शांति अपीलें जारी करते हैं

काफी सुखी हैं ये लोटे
पर सबसे ज्यादा सुखी हैं वे
जो बिना पेंदी के हैं

परेशान और दुखी हैं वे
जो किसी की प्यास बुझाना चाहते हैं
आजकल पात्रों की सूची से
गायब होता जा रहा है उनका नाम
जग-मग के इस दौर में लोटों का क्या काम?

राष्ट्रीय लुढ़कन के इस दौर में
जब गेंद की तरह इस पाले से उस पाले में
लुढ़क रही हैं अंतरात्माएं
कितना आसान है वोटों का लोटों में तब्दील हो जाना
ये जो आसानी है
कितनी बड़ी परेशानी है।

 

पहाड़ झांकता है नदी में

पहाड़ झांकता है नदी में
और उसे सिर के बल खड़ा कर देती है नदी
लहरों की लय पर
हिलाती-डुलाती, नचाती-कंपकंपाती है उसे

पानी में कांपते अपने अक्स को देखकर भी
कितना शांत निश्चल है पहाड़
हम आंकते हैं पहाड़ की दृढ़ता
और पहाड़ झांकता है अपने मन में –

अरे मुझ अचल में इतनी हलचल
सोचता है और मन ही मन बुदबुदाता है-
किसी नदी के मन में
झांकने की हिम्मत न करे कोई पहाड़।

 

1 Comment

  • प्रीति जायसवाल

    “संपादित पंक्तियाँ “

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