समकालीन कविता
तिथि दानी की कविताएं –
उठना होगा कविताओं को आकाश की ओर
उठना होगा कविताओं को आकाश की ओर
पार करनी होगी तमाम आकाशगंगाओं की वैतरणी
झाड़नी होगी अनिश्चितता, असमंजस और डर की धूल
दिल दिमाग़ के गुलदस्तों से
समझना होगा उन्हें,
कि
आत्मविश्वास
ट्रेन के गुज़रने से थरथराता कोई पुल नहीं है
वह शाम से रात और रात से सुबह
सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम के
परिवर्तन काल पर टिका वह धन का चिन्ह है
जिसके योग से वे चौबीस घण्टे का काल बनाते हैं
कविताओं अपनी आंखें खोलो
तुम्हारे छाते के नीचे आ कर बैठे हैं
विश्व के सारे दुख, क्लेश,
पाप, संताप और विकार
किन्हीं निरीह बालकों के झुंड से,
उन्हें पता है तुम ही बुझा सकती हो
उनकी आत्माओं की रोटी की प्यास
और पानी की भूख
अचंभे में पड़े हैं
रूमी, कन्फ्यूशियस, सुकरात, प्लेटो और ओशो
अपने जीवन दर्शन को
ख़ारिज करने की कोशिशों में
खींच रहे हैं आकाश पर लकीरें
कुर्बानी
उस दरख़्त ने जो कहीं घने जंगल में
मुस्कुरा रहा था अपने साथियों संग
उसे नहीं पता था
कि मैं उसके टुकड़े कर
रसोईघर तक ले आऊंगी
उसे अच्छी तरह से पता था कि
उससे मेरा राब्ता लिविंग रूम के ख़ूबसूरत
नक्काशीदार फर्नीचर तक है
जहां कई बार मैंने फलां ब्रांड के शोरूम से
उसे खरीद लाने की बघारी हैं शेखियां
अब रसोई में
वो और भी दरख़्तों के टुकड़े देख कर
ज़ार-ज़ार रोता है
वह सोच रहा था सिर्फ उसी की किस्मत में है
आदमी की सुबह से शाम तक की ग़ुलामी,
बेरहमी से उसका स्कोरर से घिस दिया जाना,
फिर झड़ती चमड़ी पर आंसू बहाना
लेकिन यहां उससे कहीं ज़्यादा दुखी और हमदर्द मिले
कभी उनसे कूटने में मदद ली गयी कभी हिलाने
कभी पलटने मे
तो कभी उन्हें बूचड़खाना समझ
काटा गया उन्हीं की संततियों को उनके पेट पर
घर के बगीचे में अलाव जला कर
जब भी ऊष्मा का नरम स्पर्श किया महसूस
कहां देखे आदमी ने अंगारों पर पड़े लकड़ी के जिस्म
जहां आग उनकी दुश्मन बनी और ठंडे दिनों में
आदमी की प्रेयसी
यहां तक कि आदमी ने आंदोलन भी
जिस मशाल की आभा में मुखरता से संभव किए
उसकी पृष्ठभूमि में लेकिन
जंगल के दरख़्त की मौन कुर्बानी अज्ञात रही
आदमी ने अपनी अराजकताओं, उपद्रवों में
उठायी मशाल और फूंक दिए
घर, बस, कारें, रेलगाड़ियां
आदमी अपने दुस्साहसों के कीर्तिमान रच रहा था
जबकि दरख़्त कर रहा था प्रयास
पृथ्वी पर अपने बचे खुचे बालों की चोटी बना कर
उसे संरक्षित कर झुलसने से बचने का
आदमी अपने कारनामों को
इतिहास में दर्ज कर रहा था एक के बाद एक
और उधर दरख़्त शहीद हो रहे थे एक के बाद एक
जिसकी मृत्यु पर नहीं बनी कोई क़ब्र
ना ही लिखा गया कभी उनका नाम स्वर्णाक्षरों में
क्योंकि आदमी को पता है इसके लिए लेनी होगी
एक और दरख़्त की जान
आदमी अपने महानता बोध को
क्यों त्यागेगा आख़िरकार
पहाड़ों पर उगी है दूब
पहाड़ों पर उगी है दूब
अपने भरपूर सौंदर्य में
पीले सफेद फूलों के प्रेम में
आप पूछेंगे वह कैसे?
क्योंकि वह जानती है कि
रात को ठंड लगेगी फूलों को
और मिट्टी ने दिया नहीं है उन्हें
चादर, तकिया, गद्दा, रजाई
खिड़कियों की आंखें
खिड़कियों की आंखों को
नहीं मिली है आज
उड़ते हुए हवाई जहाज़ों के
सुंदर दृश्यों की औषधि
आज नन्हें कोमल हाथों और मुंह ने भी
चूमा नहीं उनका नम चेहरा
उनके आरपार नहीं गयीं भोली आंखें
ऑफिस जाते पिता के अभिवादन में
घर की काली बिल्ली और भूरे कुत्ते ने भी
बना रखी है एक अजेय दूरी
स्पर्श का प्रोटीन न मिलने से
पीली पड़ गई हैं वे।
यहां तक कि
देख नहीं सकीं
उनके बचपन से बड़प्पन की साक्षी
परिंदों की आँखें भी उन्हें।
खड़ीं हैं आज प्रतीक्षा में
अपने धूसर कटोरे फैलाए
कि
आकाश के प्रेमी
रंगीन परिंदे आएं
स्नेह का जल
अपनी चोंच में भरकर लाएं
और उड़ेल दें उनमें
अपनी चोंच टकराकर
इस पर
यथार्थ का भी पूरा एहसास है उन्हें
मौसम ख़राब हुआ है
बर्फ़ ने पृथ्वी की हर शय को
ओढ़ा दिए हैं अपने दुशाले
ये सब सोचते हुए
शुष्क हो गए हैं उनके होंठ।
आश्चर्य में पड़े
वे उन गमलों की तरह हैं
जिन्हें संज्ञान है
कि
सच्चे और निस्वार्थ प्रेम की ऊष्मा के फूल
क्यों नहीं उगते मानव मन की क्यारी में।
पूछती हैं वे
सामने के घर की दीवारों में
अपनी ही तरह चिपकी सखियों से-
क्या संस्कारों की नहीं डाली किसी ने इनमें खाद
या फिर मिली नहीं
जल की ममता और बीजों की करुणा इन्हें?
वे बुरी तरह कांप रही हैं
बाकी सभी प्राणियों की तरह….
फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
यह ठंड की नहीं
विरह की कँपकँपी है।
चींटी धप खेल कर देखो
जीवन हम चुटकी बजाते सीखते थे
बचपन से किशोरावस्था की दहलीज़ पर
चींटी धप केवल एक खेल नहीं था
वह परिपक्वता और संवेदनशीलता की हवा से भरा गुब्बारा था
जिसे पकड़ कर एकदम से भांप जाते थे हम
टीम से अलग खड़ी बालिका का मन
और उसकी छोटी क़द-काठी देख कर
छोटा कर देते थे उसका घर
ताकि
आसानी से फांदा जा सके उसे
और बचपन ही बन जाए कुंजी
सामंजस्य के प्रमेय हल करने की
सब घरों की सीमाओं को लांघते हुए पार करने पर
हमने जाना था कि
ज़मीन पर खिंची वे रेखाएं
दरअसल दुविधाओं के अरण्य और
बाधाओं की गहराती धुंध हैं,
जिसके पार देखने
दिमाग़ को स्टेथोस्कोप
और आंखों को दूरबीन बनाया,
पता किया कि, अरण्य की सामान्य धड़कन
दरख़्तों की हल्की सरसराहट है
लेकिन यह असामान्य हो जाती है
यदि हो जाए तकनीकी खेलों के शोर की चहलकदमी
उस वक़्त मित्रों और वरिष्ठों के मीठे उलाहने,
एकाधिक बार लगी फटकारों से
सरपट दौड़ता हुआ मन
सिर पर पैर रख
आ जाता था वापिस
और साफ़ कर लेते थे हम
आंखों की दूरबीन का लेंस,
फिर संतुलन, सजगता और उत्साह का
अपना-अपना मुहावरा गढ़ने की बारी आती थी
बार-बार हार कर भी नहीं बदलते थे अपने साथी
बेहतरी के हर बार नए पाठ
ऐसे ही पढ़ते थे हम
अब तक ईर्ष्या के प्रलोभनों को बंद कर चुके हैं हम
दोस्ती की सफलताओं की पेटी में,
फिर कभी उसे न खोलने के
वादों का लगा दिया है ताला
काफी समय से ये खेल खेलते हुए
हो गयी है हमारी उम्र
अब इसे हम घर, दफ़्तर, शहर
प्रांत, देश और विदेश में भी खेलते हैं
न हम लड़खड़ाते हैं, न गिरते हैं।
हमारे कनिष्ठ हमसे पूछते हैं-
रोज़ नई आपदाओं की ज़द में आ कर भी
कैसे रह लेते हैं आप लोग
इतने शांत, अविचलित, धीर-गंभीर,
यहां तक कि प्रसन्न और सजग भी?
‘चींटी धप खेल कर देखो’
हमारा हर बार यही होता है जवाब।
हिंदी गौरव सम्मान से सम्मानित तिथि दानी एक लेखिका, अनुवादक, स्वतंत्र पत्रकार हैं। आपका प्रथम कविता संग्रह-‘प्रार्थनारत बत्तखें’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। तिथि की आधा दर्जन से अधिक कविताएं प्रमुख काव्य संकलनों में सम्मिलित, सभी प्रमुख भारतीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं व आलेख प्रकाशित एवं यूरोप की पत्रिकाओं में अंग्रेज़ी कविताएं प्रकाशित हो रही हैं। आपकी कविताएं अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं में अनुवादित हो चुकी हैं। आपको भारतीय उच्चायोग लंदन के पांडुलिपि सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
सुनील गज्जाणी की राजस्थानी कविताओं का हिंदी अनुवाद
(1)
रेतीले धोरें
मेरी पहचान
मेरे हृदय में
रचे-बसे!
धोरे, निशानी
धोरे, मेरा मान
धोरे जिनके लिए गर्व है मुझे!
धोरे सिर्फ बालू के धोरे नहीं हैं
धोरे मखमली
किसी प्रेम की भांति!
धोरे मेरा मान
धोरे परोटते हैं
मानव को
और, मानव
पग-पग लगातार काटता है
उन्हें अपने स्वार्थ में!
धोरे मनहर
बहुत लम्बे ऊंचे-ऊंचे
काट दिए धोरे
अनगिनत मेरे गांव के
वो जमात
जिनके हृदय में प्रेम नहीं है
वो आदमी जिसे प्रेम नहीं हैं अपनी संस्कृति से
ये धोरे
ये टिब्बे
सिर्फ बालू नहीं है
मेरा बालपन है
जहां में खेल-कूदकर बड़ा हुआ !
इन धोरों की
आने वाली पीढ़ियां सिर्फ निशानी खोजेगीं
किताबों में पंक्तियां पढ़ते हुए
संस्कृति तब बचेगी
जब हृदय में प्रेम जागेगा
जैसे किसी पत्थर को मूरत में ढाल अपनी आस्था तलाशते हैं
श्रद्धा खातिर
उसी तरह इसके प्रति भी कोई श्रद्धा होनी चाहिए
ये सोनलिया धोरें
स्वप्न हैं ज्यों के त्यों
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
जैसे सौपती है
अपने घरों के पुराने पट्टे!
(2)
मेरे सपने
मुझसे भेद-भाव करते हैं
नींद में कुछ दिखते हैं
और सच कुछ और होते हैं!
सपने सच में पीछे भागते हैं
और सच ज़िंदगी के झंझावतों में
फंसा, उलझा!
(3)
उसने अपनी आंखों से
सब कुछ कह दिया
टप-टप बरस रही थीं बूंदें
उन आंखों से
वो सिर्फ़ मौन धारण किये बैठी
मुंह से कुछ भी ना बोली
मन का प्रेम
आंखों ने स्पष्ट कर दिया!
(4)
प्रेम
कभी नियोजित नहीं होता
प्रेम
हृदय में बस पनपता है!
(5)
ज़िंदगी
चूल्हे-चौके जितनी ही नहीं
परन्तु
इससे स्वछन्द भी नहीं होती!
बीकानेर राजस्थान में जन्में लेखक और कवि सुनील गज्जाणी के ओस री बूंदाँ (राजस्थानी), किनारे से परे एवं अन्य नाटक (हिंदी नाट्य संग्रह), बोई कट्या हे (राजस्थानी बाल नाट्य संग्रह) एवं एक वन दो-दो राजा (बाल नाट्य संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं। देश के विभिन्न पुरस्कारों से पुरस्कृत सुनील गज्जाणी जी को बाल सलिला सम्मान, काव्य – कुमुद सम्मान, हिंदी भाषा – भूषण, साहित्य सारस्वत और विद्यावाचस्पति सम्मान सहित प्रदेश – देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया है।
—
सरिता जेनामणि – (English)
प्रवास
जीवन-भर
एक अनन्त यात्रा
चलती है साथ-साथ
और किसी लक्ष्य की अनुपस्थिति में
कितना कुछ खो जाता है
भीतर से
और टूटता-फूटता रहता है
अस्तित्व का ताना-बाना
विएना के कॉफीहाउस
शाम ढलते ही
जी उठते हैं इस शहर के कॉफीहाउस
उदासीनता की खनखनाहट के साथ
बढ़ती है धीरे-धीरे
एकांत की भीड़
मेज़ों के चारों तरफ़
दरवाज़ा
मैं दस्तक देती हूं दरवाज़े पर
और खुलता है दरवाज़ा
लेकिन इस से पहले कि मैं भीतर प्रवेश करूं
दरवाज़ा प्रवेश कर जाता है मेरे भीतर
और खुलते चले जाते हैं अनगिनत दरवाज़े
मेरे भीतर
मैं तय नहीं कर पाती
कि मैं दहलीज़ों को पार कर रही हूं
या वे मुझे पार कर रही हैं?
चकराकर, मैं ढूंढती हूं कोई छत
लेकिन इससे पहले कि मैं उसे पाऊं
ख़िसक जाती है पांवों के नीचे से ज़मीन
उधर, उस तरफ़
निःस्तब्धता फैलाती है पंख
मरुस्थल की तरह
तड़के से उज्ज्वल होते आकाश तले
और दमकते हैं पक्षाघातग्रस्त पिरामिड
नभोनील और स्वर्णिम रंगों के मिश्रण से
अभी बहत कुछ शेष है
कहने को
सभ्याताओं से परे
सरिता जेनामणि ऑस्ट्रिया में भारतीय मूल की कवयित्री, साहित्यिक अनुवादक, मानवशास्त्री, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नारीवादी हैं। वह प्रवासी साहित्य के लिए एक द्विभाषी पत्रिका: वर्ड्स एंड वर्ल्ड्स की संपादक हैं और PEN इंटरनेशनल के ऑस्ट्रियाई शाखा की महासचिव हैं। अब तक उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। जेनामनी ने कई ऑस्ट्रियाई कवियों का हिंदी और ओडिया में अनुवाद किया है, जिनमें राईना मारिया रिल्के, रोज ऑस्लैंडर आदि शामिल हैं। उन्हें जर्मनी और ऑस्ट्रिया में कई साहित्यिक फ़ेलोशिप मिली हैं, जिनमें ‘हेनरिक बॉल फाउंडेशन’ और ‘कुन्स्टलरडॉर्फ शॉपिंगन’ के प्रतिष्ठित संगठन भी शामिल हैं।
रणजीत सरपाल (English)
सब्जी मंडी
कंक्रीट और तारों के बीच
दूर से
एक टापू जैसी लगती है
हरी भरी सब्जियों और फलों के ढेर
ठुसी हुई सब्जियों के बीच
टेड़ी मेढ़ी पतली पगडंडियां
और एक दूसरे से बचते टकराते
एक ही शहर के
अनजान से चेहरे
यहां कोई नहीं पूछता
किसी का नाम
ना किसी को मतलब
तुम्हारी शादी से
एक अजीब सा मज़ा है
अजनबी होने का
लेकिन ये अजनबीपन
वो अजनबीपन नहीं है
जहां लोग एक दूसरे को
बता देते हैं घर की बातें
बिना किसी
राज़ खुलने के डर से
जैसे अक्सर होता है
हमारे यहां
लोकल रेलगाड़ियों में।
यहां सब्जियों के आलावा
कुछ नहीं देखा जाता
किसी ने कहा नहीं है
बस मान लिया गया है
वो सब सब्जी बेचने वाले हैं
और
हम सब्जी खरीदने वाले।
सब्जियों के ढेरों पे
मक्खियों की तरह
मंडराते मंडराते
हम अपनी
पहचान खो देते हैं
और
सस्ती और बढ़िया सब्जी
खरीदने की लालसा
छीन लेती है हमसे
इंसान होने की उत्सकता
हम सिर्फ सब्जियां देखते हैं
और वो हम में
एक पुख्ता ग्राहक
एक इंसानी
रिश्ते की सम्भावना
और एक मर्मक संवाद
स्वाद और दामों के बीच की
कश्मकश तक सिमट कर रह जाते हैं
हम नहीं पूछ पाते
किसी का नाम
लालच और स्वाद की
ऐसी एकाग्रता
देखने लायक है
तरबूज बेचने वाले को मैं
अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखता हूं
और थोड़ा झिझकता भी हूं
उसके पास जाने से
उसके तरबूज की परख
मुझे अपनी नाकाबलियत लगती है
वो सारे तरबूज
चीनी कह कर बेच देता है
मैं भी खरीदता हूं
लेकिन कोई तरबजू
मीठा नहीं निकलता
बड़ा अजीब लगता है
जब घर आकर
आप ठगा हुआ महसूस करते हो
फिर से सब्जी मंडी में जाना
अपनी हीन भावना
से लड़ने जैसा लगता है
ऐसी मनोदशा में
अगले दिन सब्जी मंडी
फिर ऐसे जाते हो
जैसे
किसी युद्ध के मैदान में
और आपका
स्वाद से ज्यादा
मकसद होता है
ना ठगे जाने का
निरंतर प्रयत्न करना।
मेरी माँ के पास
एक अलग तरीका है
इससे लड़ने का
वो जब भी
सब्जी खरीदती है
मुफ्त का धनिया और हरी मिर्ची
डलवाना नहीं भूलती
मेरी माँ को लगता है
बिना चालाकी के
सब्जी नहीं खरीदी जा सकती
मुझे लगता है
सब्जी बेचने वाला भी यही सोचता होगा
पहला ग्राहक आता है
अपनी तरफ से सबसे उत्तम
भिंडियां छांट के ले जाता है
दूसरा ग्राहक भी
अपनी तरफ से सबसे उत्तम
भिंडियां छांट के ले जाता है
भिंडियां तब तक छंटती रहती हैं
जब तक खत्म नहीं हो जाती
मैं देखता हूं
सब्जी बेचने वाले की तरफ
वो एक रहस्मयी तरीके
मुस्करा देता है
हक्का बक्का सा
मैं घर की तरफ़ चल पड़ता हूं
और सोचता हूं
ये दुकानदार कितना
जानता है हमारे बारे में
सदमा
सदमा अब कोई अलग से
झकझोर देने वाला अनुभव नही रहा
अब ये उतना ही साधारण
हो गया है जितना कि
कमीज पहनते
वक़्त बटन का टूट जाना।
हमने सीख लिया है
चरम से चरम अनुभव को भी
साधारण कर देना।
बिस्तर पे लेटे हुए
पति मोबाइल पे
पत्नी को सन्ता बंता
का चुटकला सुनाता है
पत्नी हंसते हुए
उसकी छाती पे ढेर हो जाती है
पति, चुटकले ढूंढते-ढूंढते
एक आदमी को
पीट-पीट कर
मार् देने का वीडियो देखता है
फिर से देखता है
और आगे दोस्तों को भेजता है
उसकी पत्नी अभी भी
उसी चुटकले पे हंसती है
दोंनो की हंसी
कामुकता में बदल जाती है
संता बंता फिर
जीत जाते है सदमे से
जब तक संते बंते में से
एक मर नहीं जाता
सदमा
सदमा नही लगेगा।
मैंने हिम्मत करके कहा
अपनी प्रमिका से
मैंने उसे कई बार
धोखा दिया है
मैं चाहता था
वो अपना सिर पीटे
थूके मेरे मुंह पे
दे गालियां मुझको
लेकिन ऎसा कुछ नही हुआ
मेरी उम्मीद के विपरीत
हंस कर बोली
“मुझे अच्छा लगा
तुमने सच बोला”
उसे भी आता था
हर अनुभव को
साधारण कर देना
चीटियां
चींटियां इतनी छोटी होतीं हैं कि
हमारा पाप नही बन सकती।
हम हाथ के एक घुमाव से
कत्ले आम कर देते हैं चीटियों का
ना कहीं करहाने की आवाज़
ना कहीं खून का निशान।
शरीर पे काले तिल
के आकार का वज़ूद
मसल दिया जाता है दीवारों पे
जिसका खून नही
उसके मरने का भला क्या पाप!
पाप सिर्फ
लहू का लगता है
जैसे की पाप का रंग
तय किया गया हो।
चीटियां इतिहास रहित
ज़िंदगी जीती है
इनका कहीं ज़िक्र नही होता
फिर भी हमारे
विचारों से नही जाती
हमारे न बयां किये
जा सकने वाले डर का
जीता जागता
सबूत है चीटियां
दीवारों और इधर उधर की चीजों पे
सट कर एक सीधी लाइन
में चलती चीटियां
एक ताना है
हमारी भटकन पे
कवि रणजीत सरपाल सरकारी कॉलेज चंडीगढ़ में अगंरेजी साहित्य के सहायक प्रोफेसर हैं, अंग्रेजी और हिंदी में कवितायें लिखते है। आप इंस्टाग्राम पर एक कविता पेज का भी संचालन करते हैं www.instagram.com/indianpoetry07
Email: ranjeetsarpal@gmail.com