कविता के बारे में

संस्कृति, तकनीक और कला समकालीन सन्दर्भ में

रति सक्सेना

संस्कृति, तकनीक और कला इन तीनों का आयाम इतना विशद है कि इन्हें परिभाषित करना जटिल है। फिर भी यदि इन्हें परिभाषाओं के दायरे में लाने की कोशिश की जाए तो सामान्य रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृति एक ऐसी संहति है जिसमें समान आचार, विचार, व्यवहार, मान्यताओं, रूढ़ियों और विश्वासों का पालक समुदाय आपसी तालमेल बैठाते हुए वैश्विक परिवेश में अपने को स्थापित करता है। संस्कृति समुदाय को प्रकृति से कुछ परे ले जाती हुई एक ऐसे कृत्रिम वातावरण का निर्माण कर देती है जो कृत्रिम होते हुए भी कृत्रिमता का आभास नहीं देता। वहीं तकनीक एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन को सरल बनाने और विश्व के अन्य तत्वों के बीच अपने वर्चस्व को बनाए रखने के उद्देश्य से मानव और समाज द्वारा निर्मित होती है। इसमें निरन्तर विकास की संभावनाएं होती हैं। कला इन दोनों की सहगामिनी होते हुए भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यह मानव के मानसिक विकास के साथ-साथ भावनात्मकता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता को उल्लेखित करती हुई उसके कृत्यों को सृष्टि निर्माण के सहतत्वों के रूप में स्थापित करती है।
उल्लेखनीय है कि ये तीनों तत्व सहगामिनी तथा परस्पर आधारित हैं। कला एवं तकनीक संस्कृति परिवर्धन के महत्वपूर्ण उपादान है। किसी भी संस्कृति की श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कला तथा तकनीक की दृष्टि से कितनी उत्तम है। इनमें प्रकृति से अलगाव है ऐसा अलगाव जो अपनी उपस्थिति का भास देते हुए अनुपस्थित रहता है। अर्थात प्रकृति से दूरी भासित न होते हुए भी उपस्थित है। दूसरे अर्थों में ये तीनो कृत्रिमता की ओर कुछ कदम हैं, किन्तु ऐसी कृत्रिमता जो न केवल मानव अपितु सृष्टि के हित में हो। ये मूल्यों से आबद्ध होते हैं, समय समय पर इन मूल्यों में अवपतन की संभावना भी उपस्थित हो जाती है जिस पर रोकथाम की कोशिश संस्कृति व समाज को जीवित रखने में सहायक होती है। किसी भी मानव समाज की उन्नति में इन तीनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। किसी भी समाज की उन्नति तकनीक के बिना संभव नहीं है, वहीं तकनीक कहीं न कहीं कला से जीवन शक्ति लेती है। तकनीक निरन्तर विकासशील है, इसका आरंभ मानव समाज के विकास की यात्रा से ही आरंभ हो गया था। पहिया, या फिर चिमटा या बेलन आदि इसके आरंभिक उपादान रहे हैं। नवीन तकनीक पुरातन का स्थान लेती है, अधिकतर ये अपने को पुनरावृत्ति से बचाती है। किन्तु कला के बारे में ऐसा नही कहा जा सकता है, विकास कला की प्रकृति में है, इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु कभी-कभी पुरातन कला नवीनता की अपेक्षा अधिक समकालीन प्रतीत होती है। संस्कृति भी समवर्धन की अपेक्षा रखती है, किन्तु यह नवीन एवं पुरातन में सामंजस्य बैठाने की कोशिश करती है। किसी संस्कृति विशेष के नाश के साथ-साथ उससे जुड़ीं तकनीक व कला नष्ट हो जाती हैं किन्तु उन्हें एक सीमा तक सश्रम जीवित किया जा सकता है।

अब बात करें समकालीन सन्दर्भ में, तो यह निश्चित है कि आज इन तीनों का स्वरूप काफी बदल गया है। या फिर यह भी कहा जा सकता है कि इनके अपने स्वरूप में ही इतनी विविधता है कि सही रूप को रेखांकित करना संभव नहीं है। यहां एक बात और कही जा सकती है कि संस्कृति सदैव भूत की ओर देखती है, वर्तमान सदैव उसकी आलोचना करता है। लेकिन तमाम आलोचना के बावजूद संस्कृति वर्तमान में ही स्वरूप बनाती है। यहां मैं उस संस्कृति की बात नहीं कर रही जिसका हवाला देकर छाती पीटो अभियान चलाता हुआ हर कोई चला आता है। या जिसकी दुहाई देते हुए सत्य से आंखें मूंदी जा रही हैं। मैं बात कर रही हूं उस संस्कृति की जो अपने स्थान और काल में एक स्थाई जगह बना लेती है, ऐसी जगह जो उसके न रहने के उपरान्त भी भाव लोक में क्रियाशील होती है। आज जिसे हम संस्कृति का नाम देते हैं उसमें स्थान भाव लुप्त होता जा रहा है। आज ऐसी संस्कृति बन रही है, जिसका चेहरा स्पष्ट नहीं है, वस्तुतः यह एक संक्रमण काल है। ऐसा नहीं कि ऐसा संक्रमण काल पहली बार उपस्थित हुआ है, पहले भी ऐसी स्थितियां उपस्थित होती रही हैं। किन्तु अधिकतर समाज उस पर लगाम कसने का काम करता है। किन्तु आज अधिकतर स्थानों में समाज का स्थान नगण्य होता जा रहा है। जहां पर समाज की लगाम की बात आती भी है तो वहां कभी कट्टर धार्मिकता हावी हो जाती है तो कभी राजनीति, जो समाज हित में न होकर किसी समूह विशेष के हित में काम करती है। सब कुछ व्याप्त होते हुए भी अजीब से घालमेल की स्थिति है।

आज गांवों में लड़कियां शैम्पू आदि का उपयोग कर रही हैं तो शहरों में हर्बल ट्रीटमेन्ट का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। गोरी चमड़ी वाले धूप में रंग काला करना चाहते हैं तो काली चमड़ी वाले गोरे होने के तरह-तरह के साधन प्रयोग में ला रहे हैं। एक अजीब सी स्थिति यह भी है कि मंगोल मूल की लड़कियां जिनमें कोरिया, जापान, चीन प्रमुख हैं, अपनी आंखें लम्बी और नाक ऊंची करवाने के लिए आपरेशन भी करवा रही हैं। यह प्रचलन इतना हावी हो रहा है कि लड़कियों की सेहत पर असर पड़ने का अन्देशा हो गया। विस्थापन की परिभाषा बदल गई है, आज अर्थ और सुविधा को दृष्टि में रखकर अपने स्थान से पलायन कुछ इस कदर से सामाजिक स्वीकृति पा गया है कि कभी-कभी इसे सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ कर देख लिया जाता है। व्यापारिक लाभ शिक्षा से कहीं ऊंचा स्थान पा गया है। आज चीन का बाजार यह जानता है कि भारत के बाजार में चीनी ड्रेगन या “लाफिंग बुद्ध” के स्थान पर दीवाली पर लक्ष्मी-गणेश तथा रंगीन दीपों का बाजार ज्यादा गरम हो सकता है। दीवाली व क्रिसमस के मौके में तो केरल की झोपड़ी-झुग्गी में भी बिजली की लड़ी जलीं, जिसका श्रेय चीन के बाजारीकरण को जाता है। क्या कारण है कि चीन में बने दीए तथा लक्ष्मी-गणेश भारतीय बाजार के मुकाबले में अधिक चटकीले और सस्ते थे। इनकी मार दो तरफा पड़ी, एक तो देश के लघु उद्योगों और कलाकारों की पटिया बैठ गयी, दूसरी ओर उपभोक्ताओं की जरूरत में बदलाव आया।

दीवाली आदि त्यौहारों में कुम्हार, तेली, माली आदि संस्कृति का एक अहम हिस्सा थे। दीवाली आदि त्यौहारों के वक़्त उनका महत्व बढ़ जाता था। गांव कस्बों में प्रचलित पूजा कथाओं में उनका उल्लेख सम्मान के साथ होता था। कुम्हारिन, नाईन आदि के लिए पूजापा निकालने का भी विधान था। क्या चीन में बने लक्ष्मी-गणेश वह सामाजिक अपनापा बना सकते हैं? नहीं बाजारीकरण का उद्देश्य समाज के नहीं बल्कि बाजार के हित में है। दूसरी ओर धार्मिक सदभाव वैश्विक पर्दे से ही गायब होने की स्थिति में आ गया है। धर्मों ने अपने-अपने कोष्ठक बना लिए हैं, आप न चाह कर भी इन में बन्द होने को बाध्य हैं। ऐसे में किस तरह की संस्कृति शक्ल अख़्तियार करेगी, यह सोचने की बात है।
सामान्य रूप से तकनीक का समाज से सीधा सम्बन्ध नहीं होता है फिर भी इसका उद्देश्य समाज हित होता है। वह बात अलग है कि यह जाने-अनजाने में अहित भी कर बैठती है। दरअसल मानव को अपने को सृष्टि में स्थापित करने के लिए तकनीक का सहारा लेना पड़ा। आज के वक़्त को तकनीक प्रधान कहा जाता है, जबकि सच यह है कि मानव व समाज के लिए तकनीक हमेशा से महत्वपूर्ण रही है। लेकिन आज स्थिति इसलिए समस्यापूर्ण है कि आज तकनीक सभी विज्ञान शास्त्रों की अपेक्षा महत्वपूर्ण होती जा रही है। विज्ञान के मूल विषय जैसे कि भौतिकी, रसायन, वनस्पति शास्त्र आदि महत्व खोने से लगे हैं। यहां फिर आर्थिक पक्ष कारण बनता है। तकनीक के क्षेत्र में जिस तरह से अर्थ उपार्जन करना संभव है, वह अन्य किसी विषय से नहीं। यह स्थिति विज्ञान को एकांगी बना देगा, कोई सन्देह नहीं। यही नहीं एक ओर तो तकनीक समाज के हित में बेहतरीन काम कर रही है, दूसरी ओर समाज में आर्थिक लालसा और असन्तुल भी पैदा कर रही है। तकनीक के कारण आज दुनिया छोटी लगती है। छोटी से छोटी खबर तुरन्त ही विश्व में फैल जाती है। आम आदमी ऐसे दृश्यों को घर में बैठे-बैठे देख सकता है जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की।

अब हम कला की बात करें-कहने को तो कला किसी की मुहताज नहीं है, किन्तु इन दिनों जिस तरह से कला में तकनीक की घुसपैठ हो रही है, देख कर अचंभा होता है। यह स्थिति करीब-करीब हर क्षेत्र में है। चाहे गायकी हो या फिर नृत्य, फिल्म हो या फिर अन्य कोई विधा, तकनीक का प्रभाव नजर आता है। यह प्रभाव कभी अच्छे के लिए होता है तो कभी नुकसान भी कर डालता है। आज कलाकार को सुर साधने के लिए अधिक परिश्रम नही करना पड़ता है, अनेक वाद्य-यन्त्र उसके गले को सहारा देने को तत्पर रहते हैं। इसका प्रभाव सुरों पर सीधा पड़ता है। कला का एक अहम रूप है साहित्य। विचित्र बात यह है कि साहित्य में आधुनिक तकनीक की घुसपैठ बेहद कम हुई है। विशेष रूप से भारत के सन्दर्भ में साहित्य में तकनीक बेहद कम दिखाई देती है। प्रादेशिक भाषाओं की बात करें तो हिन्दी साहित्य में आधुनिक तकनीक की स्थिति बेहद सोचनीय है। इसके कई कारण हो सकते हैं। सबसे प्रमुख बात यह है कि आज हिन्दी साहित्य अनेक खेमों में बंटा है, एक वह खेमा है जो केन्द्र या सत्ता के साथ जुड़ा है और दूसरा जो अलग-थलग पड़े रच रहें हैं। अतः जब हम साहित्य की दृष्टि से तकनीक के बारे में चिन्तन करते हैं तो दोनों पक्षों पर चिन्तन करने की जरूरत है।

पहला पक्ष यह है कि साहित्य आधुनिक तकनीक का पूरी तरह से अनुकरण इसलिए नहीं कर पाता है कि असली साहित्य रचना के सर्जक मुख्यतया जमीन से जुड़े लोग होते हैं, यह जरूर है कि उन्हें मुख्य धारा में आते-आते समय लग जाता है, भारत जैसे विकासशील देशों में ही नहीं अमेरिका आदि देशों में भी जमीन से जुड़े लेखक अपने को नई तकनीक से नहीं जोड़ पाते हैं। इसके विपरीत तकनीक से जुड़े लोग रचनाशीलता से जुड़ते तो हैं किन्तु अधिकतर स्तर कायम नहीं रख पाते। स्वाभाविक है कि साहित्य से जुड़े लोग इस स्तर हीनता को सहन नहीं कर पाते और इस प्रणाली को खारिज कर देते हैं। इस तरह से एक ऐसी तकनीक संवाद स्थापित करने का श्रेष्ठ उपाय हो सकती है, अचानक मूल्यहीन बन जाती है। इस बात को नकारना संभव नहीं है कि हर नई तकनीक को स्वीकारने में समाज को वक़्त लगता है। जब प्रिन्ट तकनीक को भी पूरी तरह छाने में काफी वक़्त लगा था। नई संचार तकनीक जैसे नेट पर साहित्य को स्वीकारने में कई समस्याएं आ सकती हैं। पहली तो यह कि यह साधन सर्व उपलब्ध नहीं है। दूसरी यह कि इससे जुड़ने वाले लोग साहित्य की विशेष जानकारी रखें यह आवश्यक नहीं। यही नहीं कि एक पुस्तक पढ़ते वक़्त व्यक्ति जिस तरह के पाठन आनन्द से गुजरता है वह नेट या कम्पूटर में संभव नहीं है। इस प्रणाली में पाठक व लेखन में आत्मीयता स्थापित करने में वक़्त लगता है। इसके अतिरिक्त यह सुविधाजनक भी कम है। किन्तु इस तकनीक के सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं- सूचना की तीव्रता। आधुनिकतम तकनीक हमें शीघ्रता से पाठकों के पास पहुंचा देती है। सबसे क्रान्तिकारी कदम तो यह है कि ब्लाग आदि के कारण लेखक अपना स्वयं का प्रकाशक भी बन जाता है। हर कोई छपने की संभावना तलाशने लगता है। किन्तु फिर कठिनाई यह आती है कि साहित्य में अराजकता का सा माहौल बन जाता है, क्या साहित्य है और क्या नहीं, लोग वहां तक पहुंच भी नहीं पाते, इस अराजकता का प्रभाव साहित्य पर कितना पड़ेगा, यह तो वक़्त बतलायेगा, किन्तु साहित्यिक अभिरुचि पर भी कम नहीं पड़ेगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

किन्तु इन समस्याओं के चलते आधुनिकतम तकनीक से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। अन्यथा कला और साहित्य समकक्षी साहित्य के मुकाबले में पिछड़ जाएगा। इसलिए आवश्यकता यह है कि साहित्य और कला के मर्मज्ञ तकनीक से परहेज़ ना करें, जिससे साहित्य में दख़लअन्दाज़ी की सीमा का अतिक्रमण ना हो।

कहने का तत्पर्य यह है कि साहित्य कला या विज्ञान, ज्ञान की कोई भी विधा हो, तकनीक या आधुनिकतम प्रणालियों के विरोध में अपना अस्तित्व नहीं बना सकती, अतः सृष्टि के सामंजस्य के अनुरूप क्रियाओं में भी सामंजस्य या समरस सिंफनी की जरूरत है, इस तथ्य को नकारना असंभव है।

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