अग्रज कवि

 

 

 

 

 

 

 

 

कुमारनाशान

 

मलयालम साहित्य में नवोधारा का प्रवेश बीसवीं सदी के आरंभ में हो गया था। इस परिवर्तन का श्रेय जिन कवियों को जाता है, उन्हें मलयालम साहित्य “कवि त्रय” के नाम से याद करता है। कुमारनाशान उनमें से एक हैं। कुमारनाशान का जन्म १८७३ अप्रेल की चैत पूर्णिमा के दिन दक्षिण केरल के कायिक्करा नामक गांव में हुआ था। आपका बचपन का नाम कुमारु था। आशान की कविता के दो सोपान माने जाते हैं। प्रथम सोपान में संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद प्रसिद्ध हैं। द्वितीय सोपान १९०८ में “वीणापूवु” नामक कृति से आरंभ होता है। आपकी प्रसिद्ध उक्ति हैः “तुम नियम बदल दो नहीं तो नियम तुम्हें बदल देंगे”। आपने कविता के क्षेत्र में दो तरह से परिवर्तन का आह्वान किया। एक-रूढ़ि, रीतियों से पृथक नए विचारों, भावों और शिल्प सौन्दर्य का अनुकरण, दूसरा-सामाजिक क्षेत्र के निम्न व पीड़ित समुदाय के लिए सक्रिय क्रान्ति का आह्वान।

कुमारनाशान की कविता में प्रकृति सौन्दर्य, भाव, विचार और वैदुष्य का अनुपम संगम है। दर्शन को जीवन से जोड़ने का अदद कार्य आशान ने किया। कुमारनाशान का नाम आज भी मलयालम साहित्य में बड़े आदर व सम्मान के साथ लिया जाता है। आपके प्रमुख काव्य ग्रन्थ हैं-
वीणापूवु, लीला, बालरामायण, प्ररोदन, दुरवस्था, करुणा, नलिनी, श्रीबुद्धचित, ग्राम वृक्ष की कपयल, चिन्ताविष्ट सीता, चण्डाल भिक्षुकी।

हम कृत्या के लिए आशान की चिन्ताविष्ट सीता के कुछ पदों को लेंगे, जिसमें कवि ने नारी के आत्मसम्मान की बात की है। इस कृति का अनुवाद स्वर्गीय देव केरलीय ने किया था। देव केरलीय निष्ठावान हिन्दी प्रचारक और लेखक थे। उन्होंने स्वयं भी कई काव्य ग्रन्थ रचे और कइयों का अनुवाद किया। चिन्ताविष्ट सीता का अनुवाद एक उपलब्धि है।

 

चिन्ताविष्ट सीता: –
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अनुराग, तेरा रिपु केवल अमर्ष, नहीं
जिसमें छल का कहीं बिल्कुल नाम है।
निरर्थक अभिमान सदा जो जागृत रहा
तेरा महनीय मार्ग वही रोक देता है।। १२५
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समभाव, अन्योन्य गुण अनुराग
समर्थ चिन्तन, क्षमा आदि गुण हैं।
कुतर डालता है, अहंता का मूषक
जो बैठा सदा रहता मन में।। १२६
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अधिक संपदा, कार्यकुशलता पुनः
भुवन विश्रुत कीर्ति, जय की परंपरा।
अहंता की तब होती है जीत
प्रभविष्णु भाव जब सभी साथ हों। १२७
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जृंभित मिथ्याभिमान वायु की थपेट से
बुझ जाता है प्रेम का मंगल दीप।
दूसरो की प्रशंसा सुन विचलित होता मन
दुर्गम कुपथ चल भ्रष्ट हो जाता है।। १२८
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दुर्भाग्य ना होता तो क्या संभव था यह?
जनावाद सुन वे क्यों मुझ से विरक्त होते?
गर्भिणी सति को घोर वन में तज
धरती पालक राम क्यों कर शासन करते? १२९
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शत्रुजयी राम के क्या अन्य भाई नहीं?
क्या वे नहीं कर सकते थे राज्य का शासन?
राम रह सकते थे वन में प्रिया संग
क्या इतना सा स्थान वे हमें दे नहीं सके? १३०
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पत्नी के सतीत्व पर कोई भी कटाक्ष करे
सह न सकेगा कोई मानव अधम भी़।
उत्तम राजा ने मेरा दोष वेद वाक्य सम
कैसे सुना, सोच सोच लज्जा आती है।। १३२
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काक को तीर मारा था राम ने एक बार
तब रक्षोवंश वन मरुस्थल बना दिया।
यही सब सोच सोच धैर्य छूट जाता है
वीरवर राम मन का मन कैसे बदल गया।। १३३
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अथवा अपनी वह राजनीति मानकर
गुप्तचर कथन को राम ने माना भी होगा।
प्रथमान यशोधन उनके मन में तब
अपवाद की बात से खेद हुआ होगा।। १३४
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बात यह सुनते ही आग सी लगी मन में
धर्मवर्ती राम ने तो घोषणा तुरन्त की।
कही हुई बात का तो पालन अवश्य होगा
विपदा का ध्यान कभी मानी नही करते हैं।। १३५
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काम ऐसे बहुत हैं, गणना असंभव
भानुकुल चूड़ामणि राम ने भी जो किए।
अनेक गुणों के मध्य, होता है दोष भी
ऊंचे पर्वतों के बीच, होती जो घाटियां।। १४०
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वन गज के धोखे में मुनि पुत्र का वध किया
पिता दशरथ ने भी कई ऐसे काम किए।
भरत जननी को वर दिया प्रथम, फिर
अकाल मृत्यु का किया वरण उन्होंने।। १४१
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कितने ही ऐसे काम किए पिता ने
सभी उचित थे, ऐसा मैं मानती नहीं।
पितृगत गुण दोष प्राप्त करती सन्तति
कौन मिटा सकता है परंपरा दोष।। १४२
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क्षण क्षण बदलता राजनियम का रंग,
पवन की गति भी तो सदा बदलती है।
अपने किए का फल सदैव भोगना होगा
लक्ष्य पर लगा बाण, घाव भी तो करगा ही।। १६६
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जीवन का फल जब देही ने प्राप्त किया
पुनः में देह में प्रवेश योग्य नहीं।
रंगमंच से हटना पड़ेगा उस नट को
जिसने अपना नाट्य सम्पूर्ण दिखला दिया।। १६८
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अपनी संतान, उन दानों से अलग हो
वन की शालियां स्वयं नष्ट हो जाती हैं।
मोतियों को पैदा कर अतल जल में तभी
जननी शुक्तियां स्वयं नष्ट हो जाती हैं।। १६९
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जनयित्री वसुन्धरे! तुमने उदार मन
पालन किया मेरा पुत्री समान।
अनघे, देखो यह स्नेह पालित तन
बनाने जा रहा है धरा को सेज।। १७७
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अतल धरा की उस सेज पर मैं
मधुर झरनों का सुनूंगी शान्ति गान
निकट ही मंजुल लताएं नित्य
प्रसन्न मन करेंगी पुष्प वर्षा।। १७८
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जननी वसुधे! तेरी सुखद गोद में
गाढ़ सुषुप्ति में कैसे सो पाउंगी मैं।
तन मिल जाएगा माटी में, किन्तु
चेतना उठेगी आकाश की ओर।। १८१
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प्रियतम, रघुराज, तुमको प्रणाम मेरा
आपकी भुज शाख तज मैं जाती ऊपर
बिना किसी आश्रय के विगत भय मैं उड़ूँ
स्वयं ही द्यूलोक पा, कहीं भी रह सकूं।। १८३
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यह क्या संभव कि पुनः मैं नगर को आऊं?
जनता समक्ष अग्नि प्रवेश करूं
क्या चाहते हैं नृप? बड़ी विचित्र है यह बात
नाचूँ हमेशा इशारे पर, क्या कठपुतली हूं मैं? १८७
***
मुनिदेव, क्षमा करें, आप पवित्र आत्मा
पर नहीं मानती यह बात मेरी आत्मा।
अन्यथा ना सोचें आप, यह निश्चित है
विनय आधीन मेरी देह कर लेगी अनुकरण।। १८८

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