मेरी बात
कविता और परम्परा
कविता एक ऐसी विधा है, जिसके कलेवर और कथ्य में परिवर्तन समय की मांग रही है। यह स्थिति विश्व की सभी भाषाओं की काव्यपरम्परा में रही है। कविता के सम्बन्ध में खास बात यह है कि जब भी उसे बांधने की कोशिश हुई, वह सभ्य समाज का हिस्सा बनते बनते लोक से लुप्त हो गई। मुझे याद है कि एक वकील साहिब ने मुझ से पूछा था कि क्या आजकल भी कविता लिखी जा रही है? हमे तो दिनकर, निराला जैसे कवियों की कविता मुंह जबानी याद थी,लेकिन अब जो कविता कभी- कदार अखबार के पन्नों पर दिख जाती है, वह क्या है, हम समझ नहीं पाते।
मैंने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की, क्यों कि संस्कृत की छात्रा होने के कारण मैंने भी काव्य परम्परा के परिवर्तन को पढ़ा और अनुभूत किया। जो उपनिषदीय उक्तियां बेहद सामान्य व्यक्ति के करीब पहुंच जाती थीं, उसी भाषा की साहित्यिक प्रस्तुतियां काव्यशास्त्रीय नियमों की जकड़न से व्यथित हो सामान्य से दूर होती गई।
भारतीय भाषाओं में यह स्थिति अलग रूप में देखी जाती है। उदाहरण के लिए मलयालम की कविता विशेष छन्द प्रक्रिया का पालन करते हुए गेय थी। एक वक्त था कि अय्यप्प पणिक्कर जैसे वरिष्ठ कवि आधुनिक कविता का पोषण करते हुए भी देशीय श्रोताओं के लिए अनेक गेय कविताएं रचते थे। कुछ समय पूर्व तक यहां पर कविता पारायण की विधा स्कूल कालेजों में लोकप्रिय थी। हर किसी को अपने प्रिय कवि की कविताएं कंठस्थ थीं, लेकिन फिर आधुनिकता की ओर ऐसा झुकाव हुआ कि गेयता या छन्द प्रियता को पूरी तरह से विदा कर दिया गया। आज मैं सामान्य मलयाली नगरिक को कविता से दूर ही पाती हूं। सुगत कुमारी जी कहा करती थीं कि नई पीढ़ी बेशक छन्द विहीन लिखे, लेकिन कम से कम दो चार कविताएं तो छन्द में लिखे और गेयता से परहेज न करे, नहीं तो बहुत पुरानी परम्परा लुप्त हो जाएगी।
अभी हाल में सम्पन्न WPM movement की पहल पर world Poetic Congress के एशिया चेप्टर की बैठक हूई, जिसमें एशिया के बड़े छोटे -तीस देशों के देशीय समन्वयकों (कार्डिनेटरो) ने भाग लिया। मैं एशिया चेप्टर की प्रमुख समन्वयक होने के नाते विभिन्न देशों की रिपोर्ट को पढ़ रही थी तो पाया कि एशिया के प्रत्येक देश में कविता की उपस्थिति किसी न किसी रूप में प्राचीन काल से रही थी, जिसकी जड़ें वर्तमान तक फैली हुई हैं। यह भी देखने को मिला कि कुछ देशों में पारम्परिकता से कविता को जोड़ना जरूरी माना जा रहा है। जैसे कि अजरबैजान में “SOZ” नामक साहित्यिक संस्था प्राचीन काव्य परम्परा को युवाओं के जोड़ने और अनुवाद और अन्य माध्यम से काव्य परम्परा से परिचित करवाना है। तजाकिस्तान में युवाओं में अधिक से अधिक किताबे पढ़ने की प्रतियोगिता करवाई जा रही है, जिसके अन्तर्गत 250 किताबें पढ़नी थीं।। साथ ही 120 रुबाइयां, 200 पंक्तियां दास्तान की याद करने को प्रेरित किया जा रहा है, जिससे युवा पीढ़ी पारंपरिक काव्य परम्परा से रूबरू हो सके।
मैं केवल ये तीन उदाहरण दे रही हूं, लेकिन क्या हम इस बात पर ध्यान दे रहे हैं? परम्परा से जुड़ते हुए समकाल को रेखांकित करते हुए कविता को बेहतर रूप से जीया जा सकता है। कवि अपने आस-पास और समाज से जुड़ा तभी रह सकता है, जब उसकी आवाज़ समाज के हर तबके के पास पहुंचे, नहीं तो कविता के नाम पर लिखी गई कुछ घिसी- पिटी पंक्तियां ही समाज के पास रहेंगी और इस तरह से न केवल कविता से अपितु समस्याओं से भी आम जन कटा रहेगा।
कृत्या का नया अंक प्रस्तुत है, जिसमें पढ़ने लायक काफी है, पढ़िए और पढ़ाइए।
धन्यवाद
रति सक्सेना