मेरी बात

हर कविता को ऐसे लिखो
गोया कि यह तुम्हारी आख़िरी कविता है
यह सदी, जो कि प्रदूषण से भीगी है
आतंकवाद से कंपित है
उड़ती जा रही है सुपरसोनिक गति से,
अचानक चली आने वाली मौत
तुम्हारे हर शब्द को
जेल की दीवार पर टंगी
आख़िरी पहचान देगी
तुम्हें अधिकार नहीं कि मीठा झूठ बोलो
या बचकाना खिलवाड़ करो
तुम्हारे पास कोई वक़्त नहीं
गलती सुधार का
हर कविता को लिखो
संक्षेप में, कठोरता से
अपने ख़ून से
गोया कि यह आख़िरी है

बुल्गेरियन कवयित्री ब्लागा दिमित्रोवा के ये शब्द कविता के जिस स्वरूप को व्याख्यायित कर रहे हैं, वह आज के वक़्त की मांग है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या कविता में कलात्मकता या प्रेम के लिए कोई दूसरा वक़्त होगा? विज्ञान की दृष्टि से वक़्त एक सा होता है, वक़्त में रंग भरना हमारे हाथ में है, जब हम मानवता को भूल कर प्रकृति के विरोध में खड़े होते हैं, जब हम भाईचारे को भूल मार-काट में लग जाते हैं, वक़्त लहू के रंग का हो जाता है, लेकिन लहू धोने के लिए पानी की जरूरत होती है, और पानी प्यास से तृप्ति का रंग है। यही कारण है कि हम युद्ध में कहीं प्रेम को देख पाते हैं, क्योंकि प्रेम हमें मनुष्य बने रहने देता है।

इस तरह कविता विचित्र समय में हमें जीने का संबल देती है, और सहज समय में कलात्मक रुझान देती है। इसी नज़रिये के साथ हम कविता की विविधता को कायम रखते हैं।

कृत्या के इस अंक में प्रेम के स्वर को रेखांकित करती वरिष्ठ कवि मदन कश्यप की कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं। युवा कवि आदित्य की कविताएं दार्शनिक गांभीर्य को रेखांकित करती हैं तो दीप्ति पाण्डेय विषाद के स्याह रंगो से विचित्र चित्र उकेरती हैं। रमेश प्रजापति सहज शब्दों में जीवन से जुड़ते दिखते हैं तो हेंकर रोकोम बाडो कवि अपनी भूमि और प्रकृति के रसानन्द का अनुभव कराते हैं।
अग्रज कवि के रूप में मुहम्मद इक़बाल को याद करना समय की ज़रूरत है। ‘कविता के बारे’ भाग में उड़िया कवि अपर्णा मोहन्ती जी की कविता के बारे में दिब्य रंजन साहू का लेख प्रस्तुत है।

कृत्या की यात्रा जारी है, कविता प्रेमियों से आग्रह है कि वे साथ जुड़े।

शुभकामनाएं

रति सक्सेना

 

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