मेरी पसन्द

 

मदन कश्यप की कविताएं

 

 

 

 

 

 

29 मई 1954 को बिहार राज्य के वैशाली में जन्में वरिष्ठ कवि और पत्रकार मदन कश्यप के अब तक ‘पनसोखा है इन्द्रधनुष’, ‘दूर तक चुप्पी’, ‘नीम रोशनी में’, ‘लेकिन उदास है पृथ्वी’ सहित छः कविता संग्रह एवं आलेखों के तीन संकलन ‘मतभेद’, ‘लहूलुहान लोकतंत्र’, और ‘राष्ट्रवाद का संकट’ प्रकाशित हो चुके हैं। आपको कविता के लिए शमशेर सम्मान, केदार सम्मान, नागार्जुन पुरस्कार और बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है।

  

पनसोखा है इन्द्रधनुष

 

पनसोखा है इन्द्रधनुष

आसमान के नीले टाट पर मखमली पैबन्द की तरह फैला है

कहीं यह तुम्हारा वही सतरंगा दुपट्टा तो नहीं

जो कुछ ऐसे ही गिर पड़ा था मेरे अधलेटे बदन पर

तेज सांसों से फूल-फूल जा रहे थे तुम्हारे नथने

लाल मिर्च से टहकते होंठ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे मेरी ओर

एक मादा गेहूंअन फुंफकार रही थी

क़रीब आता एक डरावना आकर्षण था

मेरी आत्मा खिंचती चली जा रही थी जिसकी ओर

मृत्यु की वेदना से ज़्यादा बड़ी होती है जीवन की वेदना

 

दुपट्टे ने क्या मुझे वैसे ही लपेट लिया था

जैसे आसमान को लपेट रखा है

पनसोखा है इन्द्रधनुष

बारिश रुकने पर उगा है

या बारिश रोकने के लिए उगा है

 

बारिश को थम जाने दो

बारिश को थम जाना चाहिए

प्यार को नहीं थमना चाहिए

 

क्या तुम वही थीं

जो कुछ देर पहले आयी थीं इस मिलेनियम पार्क में

सीने से आईपैड चिपकाए हुए

वैसे किस मिलेनियम से आयी थीं तुम

प्यार के बाद कोई वही कहां रह जाता है जो वह होता है

 

धीरे-धीरे धीमी होती गयी थी तुम्हारी आवाज़

क्रियाओं ने ले ली थी मनुहारों की जगह

ईश्वर मन्दिर से निकलकर टहलने लगा था पार्क में

 

धीरे-धीरे ही मुझे लगा था

तुम्हारी उसांसों से बड़ा कोई संगीत नहीं

तुम्हारी चुप्पी से मुखर कोई संवाद नहीं

तुम्हारी विस्मृति से बेहतर कोई स्मृति नहीं।

पनसोखा है इन्द्रधनुष

जिस प्रक्रिया से किरणें बदलती हैं सात रंगों में

उसी प्रक्रिया से रंगहीन किरणों से बदल जाते हैं सातों रंग

 

होंठ मेरे होंठों के बहुत क़रीब आये

मैंने दो पहाड़ों के बीच की सूखी नदी में छिपा लिया अपना सिर

बादल हमें बचा रहे थे सूरज के ताप से

पांवों के नीचे नर्म घासों के कुचलने का एहसास हमें था

 

दुनिया को समझ लेना चाहिए था

हम मांस के लोथड़े नहीं

प्यार करने वाले दो ज़िंदा लोग थे

महज़ चुम्बन और स्पर्श नहीं था हमारा प्यार

कुछ उपक्रमों और क्रियाओं से ही सम्पन्न नहीं होता था वह

 

हम इन्द्रधनुष थे लेकिन पनसोखे नहीं

अपनी-अपनी देह के भीतर ढूंढ़ रहे थे अपनी-अपनी देह

बारिश की बूंदें जितनी हमारे बदन पर थीं

उससे कहीं अधिक हमारी आत्मा में

 

जिस नैपकिन से तुमने पोंछा था चेहरा

मैंने उसे कूड़ेदान में नहीं डाला था

दहकते अंगारे से तुम्हारे निचले होंठ पर

तब भी बची रह गयी थी एक मोटी-सी बूंद

मैं उसे अपनी तर्जनी पर उठा लेना चाहता था

पर निहारता ही रह गया

अब कविता में उसे छूना चाह रहा हूं

तो अंगुली जल रही है।

 

तुम्हारा हाथ थामे-थामे

 

तुम्हारा हाथ थामे-थामे

पार कर लूंगा तमाम सारे दुर्गम रास्ते

जंगल की छाती पर

उगती चली आएंगीं पगडंडियां

कंटीली झाड़ियां

नरम दूब की तरह तलुए सहलाएंगीं

अंधेरे को चीरती चली जाएगी तुम्हारी हंसी

पर्वत के शिखर से शिखर पर लगाऊंगा छलांग

तुम्हारा हाथ थामे–थामे

 

 

सागर की लहरों पर स्केटिंग करूंगा

डॉलफिन के मुंह से छूटे फव्वारे के साथ

ऊंचे उछल जाऊंगा

इतना तेज़ भागूंगा

कि पीछा करते नसे फट जाएंगी कार्ल लुईस की

 

महानाग थोड़ा सा झुका देगा फण

और उस पर पांव रख कर

फांद जाऊंगा क्षीर-समुद्र

महाबराह का दांत पकड़ कर

झूल जाऊंगा अंतरिक्ष में

तुम्हारा हाथ थामे–थामे

 

दौड़ूंगा तो छोटी पड़ जाएगी पृथ्वी

उड़ूंगा तो कम पड़ेगा आसमान

डुबकी लगाऊंगा

प्रतिपदार्थों के कृष्णविवर में

और एकदम साबुत बच निकल आऊंगा

तुम्हारा हाथ थामे–थामे

 

सातों नदियों का जल तुम्हारी आंखों में

सातों सुरों का सारांश तुम्हारे स्वर में

सातों छंदों में तुम्हारा अक्स

मैं पार कर लूंगा

सातों द्वीप

सात समुद्र

सातों लोक

सातों आसमान

तुम्हारा हाथ थामे-थामे !

 

कुछ देर साथ चलो

कुछ देर साथ चलो

महानगर बनते शहर की काली सड़क पर

इस ढलती मगर जलती तिपहरी में चलना कठिन है

फिर भी कुछ देर साथ चलो

 

यही समय है कि सड़कें सूनी हैं

तुम्हारा कुछ दूर हट कर चलना भी

साथ-साथ चलने सा लगेगा

थोड़ी देर निहारूंगा तेज़ धूप में दमकता

पसीने से लथपथ तुम्हारा चेहरा

और कभी नहीं प्रकट होने दूंगा

तुम्हें बाजू में समेट कर

अंतरिक्ष की ओर भाग जाने की अपनी इच्छा

 

बस थोड़ा दूर-दूर ही सही

थोड़ी दूर तक चलो

 

इस शहर में शामें सुनहरी नहीं होतीं

कोई ऐसी ममतामयी वाटिका भी नहीं

जिसके एकांत के आंचल में थोड़ी देर दुबक सकें हम

कोई झील नहीं

जो हमारे स्नेह को दे सके शीतल स्पर्श

बस तपती हुई सड़क का निर्मम सूनापन है

यह काफ़ी है कुछ दूर तक साथ चलने के लिए

कुछ देर साथ चलो !

 

लौटूंगा

मुमकिन हुआ तो लौटूंगा ज़रूर

और जो न लौटा

तब भी एक चाहत तो बची ही रहेगी

वैसे दिक् में लौटना भले ही

काल में लौटने की तरह असम्भव नहीं हो

फिर भी, हो कहां पाता है लौटना

 

पहाड़ों की गोद में इठलाती नदियां

मैदानों में कितना दुख पाती हैं

पर लौट कहां पाती हैं पहाड़ों में

 

अपना तो स्मृतियों में लौटना भी कठिन होता जा रहा है

कितनी ख़ुशनुमा यादें तुम्हारी

धीरे-धीरे पथराती जा रही हैं।

कभी आकांक्षाओं के तलुए में चुभती हैं

तो कभी चाहतों के अंगूठे को कर देती हैं लहूलुहान

 

आसान तो कहीं आना-जाना भी नहीं होता है

लेकिन लौटना हमेशा ही बहुत-बहुत मुश्किल होता है

कई ऐसे सवाल होते हैं

जो आख़िरी वक़्त तक मांगते रहते हैं जवाब

 

केवल चोरों

दलालों

लालचियों

कालाबाजारियों…

और नेताओं के लिए होता है लौटना आसान

जो सवालों के साथ निकलता है

उसे सवालों में ही घिरा रहना होता है

 

और जब पहले का ही उत्तर तुमने ही नहीं दिया

तो आख़िरी सवाल का जवाब ईश्वर भी भला क्या देगा

उसके लिए तो और भी कठिन है

जो उसके बस में होता

तो इस दुनिया को समेट कर

लौट न जाता शून्य की अपनी गुफ़ा में!

 

 

 

शिशिर आ रहा है

धीरे-धीरे ठण्डा हो रहा है मौसम

कमज़ोर पड़ रही हैं

पृथ्वी को गर्म रखने की

सूरज की कोशिशें

 

शिशिर आ रहा है

 

अभी-अभी कटे धान के पुआल

और कोल्हूआर में पक रहे गुड़ की नयी महक के साथ

शिशिर आ रहा है

 

सरसों-फूल के चटख रंग से

हमारी आंखों को चुंधियाते हुए

हमारे रक्त में बर्फ के बुरादे भरते हुए

शिशिर आ रहा है

 

हमारी उफनती बेचैनी को

मादक नशीली थपकियों से

आहिस्ता-आहिस्ता सुला देने की कोशिश करते हुए

शिशिर आ रहा है

 

इसके पहले

कि उमस और छटपटाहटें

बढ़कर ढूंढ़ सकें कोई दिशा

हमारी गरमाहट को

नुकीली ठण्डी हवाओं से बेधते हुए

हमारे सपनों को

कुहरों की दीवारों में चुनते हुए

शिशिर आ रहा है

 

कल के कलेवे के लिए

एक मुट्ठी भात की जुगाड़ के साथ

पूरे वर्ष भर के रोटी के सवाल को

निर्मम ठण्डेपन से दबाते हुए

शिशिर आ रहा है

 

इससे पहले

कि बर्फ और कुहरों से ढक जाएं दिशाएं

सुलगा लो अपने अलाव

शिशिर आ रहा है।

———-

 

हम मन्दिर के बाहर थे

देवता मन्दिर के भीतर

हमारी कोई कथा नहीं थी

हर देवता की कोई-न-कोई कथा थी

 

हमारे पास सपने थे

देवता के पास सपने नहीं थे

 

 

हम देखते रहे एक-दूसरे को

सन्नाटों और सपनों के ताने-बाने से कुछ बुनते रहे

जो शायद प्यार था

 

तुम्हारी चुप्पी इतनी सुन्दर थी

हम भाषा में उसके कमतर अनुवाद से बचना चाहते थे

 

बैठे थे हम एक-दूसरे के निकट

तब ईश्वर था हमारे कितने निकट!

 

Post a Comment