मेरी पसन्द

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

ओसिफ़ ब्रोद्स्की: Joseph Brodsky

(24 मई 1940 – 28 जनवरी 1996)

अनूदितः वरयाम सिंह

1940 में लेनिनग्राद में जन्म। 1958 से कविता लिखना आरम्भ। 1956 में हंगरी में सोवियत सेनाएं भेजे जाने के विरोध के बाद तत्कालीन सामाजिक-राजनैतिक जीवन के प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण। सोवियत पत्रिकाओं में बहुत कम कविताएं प्रकाशित। सरकारी साहित्य-नीति के विरोध में प्रकाशित संकलन सींतक्सिस में कविताएं प्रकाशित एवं विशेष चर्चित। विदेशी कविताओं के अनुवाद तथा उसी पर जीवनयापन। 1964 में पांच वर्ष की सज़ा, आरोप- ‘सामाजिक रूप से उपयोगी श्रम में हिस्सा न लेना’। मार्शाक, अख्मातोवा जैसे कवियों द्वारा विरोध किये जाने पर एक साल छह महीने के बाद रिहाई। 1972 में देश-त्याग। 1965 से 1970 तक रूसी में रूस के बाहर कविता-संग्रह प्रकाशित। अमेरिका आकर अंग्रेज़ी में लेखन-कार्य आरम्भ। 1987 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित।

 

शोकगीत

लगभग एक बरस बीत गया है। मैं लौट आया हूं
युद्धक्षेत्र में, लौट आया हूं उनके पास
जो सीख चुके हैं उस्तरे के सामने पंख फैलाना
या – बेहतर स्थिति में – भौंहों के पास,
जो हैरान हैं कभी सांझ के आलोक पर
कभी व्यर्थ रक्तपात पर।

अब यहां व्यापार होता है तुम्हारी अस्थियों का,
झुलसी सफलताओं के तमगों का, बुझी मुस्कानों का,
नये भण्डारों के डरावने विचारों का,
षडयंत्रों की स्मृतियों और धुले झण्डों पर अनेकों जिस्मों
की छाप का।

बढ़ती जा रही है लोगों की संख्या
उदंड वास्तुकला की एक विधा हैं ये खण्डहर,
बहुत अधिक अंतर नहीं है
हृदय और अंधेरी खाइयों में –
इतना नहीं कि डरने लग जायें इससे
कि हमारी कहीं-न-कहीं फिर से मुठभेड़ होगी
अंधे अंडों की तरह।

सुबह-सुबह जब कोई देख नहीं रहा होता तुम्हारा चेहरा
मैं चल देता हूं पैदल उस स्मारक की ओर
जिसे ढाला गया होता है बोझिल सपनों से।
जिस पर अंकित होता है शब्द ‘विजेता’,
पढ़ा जाता है ‘बीजूका’
और शाम तक हो जाता है ‘बिटका’।

समुद्र

समुद्र ज्यादा विविधता लिये होता है ज़मीन की तुलना में
ज्यादा रोचक होता है वह किसी भी दूसरी चीज से
भीतर से होता है वैसा ही जैसा दिखता है बाहर से।
मछली अधिक रोचक होती है नाशपाती से।

ज़मीन पर चार दीवारें और छत होती है
हमें डर लगा रहता है भेड़िये या भालू का,
भालू से हम कम डरते हैं
हम उसे नाम देते हैं ‘मीशा’
यदि कुछ अधिक कल्पनाशील हुए तो ‘फेद्या’।

ऐसा कुछ भी नहीं होता समुद्र में।
अपने आदिम रूप में व्हेल मछली को फर्क नहीं पड़ता
उसे ‘बोरिया’ कहो या कहो ‘असभ्य’।

समुद्र भरा होता है आश्चर्यों से
भले ही वे इतने अच्छे नहीं लगते
इसकी वज़ह ढूंढने की बहुतों को ज़रूरत नहीं पड़ती
धब्बों की गिनती करते दोष नहीं दिया जा सकता चंद्रमा को
न ही पुरुष या स्त्री की पापपूर्ण इच्छाओं को।

समुद्री जीवों का खून हमसे ज्यादा ठंडा होता है
उनकी कुरूपता देख बर्फ की तरह जम जाता है हमारा ख़ून
मछली की दुकानों में भी।
यदि डार्विन ने समुद्र में गोता लगाया होता
तो हमें मालूम नहीं हो पाते जंगल के कानून
इसलिए कि हम कर चुके होते उनमें असंख्य संशोधन।

 

बात यह नहीं

बात यह नहीं कि दिमाग फिर गया है मेरा,
बस, थका दिया है मुझे यहां की गर्मियों ने।

अलमारी में ढूंढने लगता हूं कमीज़
और इसी में पूरा हो जाता है एक दिन।
अच्छा हो कि सर्दियां आएं जल्दी-से-जल्दी
बुहार कर ले जाएं
इन शहरों और लोगों को
शुरूआत वे यहां की हरियाली से कर सकती हैं।

मैं घुस जाऊंगा बिस्तर में
बिना कपड़े उतारे
पढ़ने लगूंगा किसी दूसरे की किताब
किसी भी जगह से
अंधे के पास से भागे कुत्ते की तरह
पहुंच नहीं जाते निर्धारित जगह पर।

पढ़ता जाऊंगा
जब तक साल के बाकी दिन
हम स्वतंत्र होते हैं उस क्षण
जब भूल जाते हैं
आततायी के सामने पिता का नाम,
जब शीराजा के हलवे से अधिक
मीठा लगता है अपने ही मुंह का थूक।

भले ही हमारा दिमाग़
मोड़ा जा चुका है मेढ़े के सींगों की तरह
पर कुछ भी नहीं टपकता
हमारी नीली आंखों से।

तुम पहचानते हो

तुम पहचानते हो मुझे मेरी लिखावट से;
हमारे ईर्ष्याजनक साम्राज्य में सब कुछ संदेहास्पद है:
हस्ताक्षर, कागज़, तारीख़ें।
बच्चे भी ऊब जाते हैं इस तरह के शेखचिल्लियों के खेल में,
खिलौनों में उन्हें कहीं अधिक मज़ा आता है।

 

लो, मैं सीखा हुआ सब भूल गया।

अब जब मेरा सामना होता है नौ की संख्या और
प्रश्न – जैसी गर्दन से प्रायः सुबह-सुबह
या आधी रात दो के अंक से, मुझे याद आता है
हंस पर्दे के पीछे से उड़कर आता हुआ,
और गुदगुदी होती है नथुनों में पाउडर और पसीने से
जैसे उनमें महक जमा हो रही हो, जमा होते हैं जैसे
टेलीफोन नम्बर या ख़ज़ाने के भेद।

मालूम होता है कि मैंने फिर भी कुछ बचत कर रखी है।
अधिक दिन तक चल नहीं सकेंगे ये छोटे सिक्के।
पर नोट से अच्छे तो ये सिक्के हैं,
अच्छे हैं पायदान सीढ़ियों के।

अपनी रेशमी चमड़ी से विरक्त श्वेत ग्रीवा
बहुत पीछे छोड़ आती है घुड़सवार औरतों को।
ओ प्रिय घुड़सवार लड़की! असली यात्रा
फर्श के चरमराने से पहले ही शुरू हो चुकी होती है,
इसलिए कि होठ मृदुता प्रदान करते हैं, पर क्षितिज की रेखा
और यात्री को ठहराने के लिए
कहीं जगह नहीं मिलती।

आभार बींसवी शताब्दी का साहित्य, साहित्य अकादमी

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